कमाल की ग़ज़ल तुम को सुनायेंगे किसी रोज़ ।
थी उन की ज़िद के मैं जाऊँ उन को मनाने
मुझ को ये वहम था वो बुलाएंगे किसी रोज़ ।
उड़ने दो इन परिंदों को आज़ाद फ़िज़ाओं में
तुम्हारे होंगे अगर, तो लौट आएंगे किसी रोज़ ।
#परवीन शाकिर
आशु तो कुछ भी नहीं आसूँ के सिवा, जाने क्यों लोग इसे पलकों पे बैठा लेते हैं।
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