इन अंधेरों से परे इस शब-ए-ग़म से आगे,
इक नई सुब्ह भी है शाम-ए-अलम से आगे!
होके मायूस ना यूं शाम से ढलते रहिये,
ज़िन्दगी भोर है सूरज सा निकलते रहिये!
राह के पत्थर से बढ़ कर कुछ नहीं हैं मंज़िलें
रास्ते आवाज़ देते हैं सफ़र जारी रखो
एक ही नदी के हैं ये दो किनारे दोस्तो
दोस्ताना ज़िंदगी से मौत से यारी रखो
~ डॉ राहत इंदौरी
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