न जाने किस गली में ज़िंदगी की शाम हो जाए
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ज़िंदगी तू ने मुझे क़ब्र से कम दी है ज़मीं
पाँव फैलाऊँ तो दीवार में सर लगता है
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कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी
यूँ कोई बेवफ़ा नहीं होता
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न जी भर के देखा न कुछ बात की
बड़ी आरज़ू थी मुलाक़ात की
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दुश्मनी जम कर करो लेकिन ये गुंजाइश रहे
जब कभी हम दोस्त हो जाएँ तो शर्मिंदा न हों
लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में,
तुम तरस नहीं खाते बस्तियाँ जलाने में.
कोई हाथ भी न मिलाएगा जो गले मिलोगे तपाक से
ये नए मिज़ाज का शहर है ज़रा फ़ासले से मिला करो
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