हद है अपनी तरफ़ नहीं मैं भी
और उन की तरफ़ ख़ुदाई है
जौश मलीहाबादी
मोहब्बत की तो कोई हद, कोई सरहद नहीं होती
हमारे दरमियाँ ये फ़ासले, कैसे निकल आए
ख़ालिद मोईन
ज़ालिम के हमराह था सारा जहाँ
मज़्लूम की हिमायत में बस उसका खुदा
अब तक न ख़बर थी मुझे उजड़े हुए घर की
वो आए तो घर बे-सर-ओ-सामाँ नज़र आया
~जोश मलीहाबादी
ये दिन बहार के अब के भी
रास न आ सके
कि गुंचे खिल तो सके
खिल के मुस्कुरा न सके
-जोश मलीहाबादी
ये रिश्ता मोहब्बत का, बिखरता ही नहीं शायद.
गिले सब भूल कर जो, अगर मुस्कुरा देते.
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