बर्क सी लहराई है
फिर शक्ल तेरी
फिजाओं में नजर आई है........
याद किया होगा शायद तुमने मुझे
बेइंतहा तेरी याद आई है.........
चीख़ती है तन्हाइयां
निस्बत ने तेरी क्यो दे रखी है
मुझे सिर्फ खामोशियाँ
आरजू ए लबो ने फिर एक
सिसकी दबाई है............
फिर उठा है दर्द का समंदर
चश्म-ए-अश्क़ होने को.....
फिर देख रहा हूँ आईना
जख्म-ए-नक्श धोने को....
कितनी बंदिशे है मौजूद
तेरे रूबरू होने में....
फिर क्यों तेरी याद चली आई है....
हूक सी उठी है बर्क सी लहराई है
फिर शक्ल तेरी
फिजाओं में नजर आई है..........
No comments:
Post a Comment