Wednesday, August 27, 2025

बहार (शेर, शायरी)

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दोस्त बन कर भी नहीं साथ निभाने वाला

वही अंदाज़ है ज़ालिम का ज़माने वाला

 

अब उसे लोग समझते हैं गिरफ़्तार मिरा

सख़्त नादिम है मुझे दाम में लाने वाला

 

सुब्ह-दम छोड़ गया निकहत--गुल की सूरत

रात को ग़ुंचा--दिल में सिमट आने वाला

 

क्या कहें कितने मरासिम थे हमारे उस से

वो जो इक शख़्स है मुँह फेर के जाने वाला

 

तेरे होते हुए जाती थी सारी दुनिया

आज तन्हा हूँ तो कोई नहीं आने वाला

 

मुंतज़िर किस का हूँ टूटी हुई दहलीज़ पे मैं

कौन आएगा यहाँ कौन है आने वाला

 

क्या ख़बर थी जो मिरी जाँ में घुला है इतना

है वही मुझ को सर--दार भी लाने वाला

 

मैं ने देखा है बहारों में चमन को जलते

है कोई ख़्वाब की ताबीर बताने वाला

 

तुम तकल्लुफ़ को भी इख़्लास समझते हो 'फ़राज़'

दोस्त होता नहीं हर हाथ मिलाने वाला

-अहमद फ़राज़

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बहार आए तो मेरा सलाम कह देना

मुझे तो आज तलब कर लिया है सहरा ने

 

कैफ़ी आज़मी

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मिरी ज़िंदगी पे मुस्कुरा मुझे ज़िंदगी का अलम नहीं

जिसे तेरे ग़म से हो वास्ता वो ख़िज़ाँ बहार से कम नहीं

 

शकील बदायूनी

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मेरी आँखों में हैं आँसू तेरे दामन में बहार

गुल बना सकता है तू शबनम बना सकता हूँ मैं

 

नुशूर वाहिदी

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शग़ुफ़्तगी--दिल--कारवाँ को क्या समझे

वो इक निगाह जो उलझी हुई बहार में है

 

शकील बदायूनी

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जब से छूटा है गुलिस्ताँ हम से

रोज़ सुनते हैं बहार आई है

 

जलील मानिकपूरी

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ग़ुरूर से जो ज़मीं पर क़दम नहीं रखती

ये किस गली से नसीम--बहार आती है

 

जलील मानिकपूरी

 

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तिनकों से खेलते ही रहे आशियाँ में हम

आया भी और गया भी ज़माना बहार का

 

फ़ानी बदायुनी

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