Wednesday, August 27, 2025

बदन, हुस्न, जवानी (शेर, शायरी)

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हुस्न को चाँद जवानी को कँवल कहते हैं

उन की सूरत नज़र आए तो ग़ज़ल कहते हैं


उफ़ वो मरमर से तराशा हुआ शफ़्फ़ाफ़ बदन

देखने वाले उसे ताज-महल कहते हैं


वो तिरे हुस्न की क़ीमत से नहीं हैं वाक़िफ़

पंखुड़ी को जो तिरे लब का बदल कहते हैं


पड़ गई पाँव में तक़दीर की ज़ंजीर तो क्या

हम तो उस को भी तिरी ज़ुल्फ़ का बल कहते हैं

-क़तील शिफ़ाई

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किसी कली किसी गुल में किसी चमन में नहीं

वो रंग है ही नहीं जो तिरे बदन में नहीं


फ़रहत एहसास

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तुझ सा कोई जहान में नाज़ुक-बदन कहाँ

ये पंखुड़ी से होंट ये गुल सा बदन कहाँ


लाला माधव राम जौहर

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कौन बदन से आगे देखे औरत को

सब की आँखें गिरवी हैं इस नगरी में


हमीदा शाहीन

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इक बूँद ज़हर के लिए फैला रहे हो हाथ

देखो कभी ख़ुद अपने बदन को निचोड़ के


शहरयार

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ख़ुदा के वास्ते गुल को न मेरे हाथ से लो

मुझे बू आती है इस में किसी बदन की सी


नज़ीर अकबराबादी

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रास्ता दे कि मोहब्बत में बदन शामिल है

मैं फ़क़त रूह नहीं हूँ मुझे हल्का न समझ


साक़ी फ़ारुक़ी






























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