Wednesday, August 27, 2025

गुनाह, गुनाहगार, अमल, खता (शेर, शायरी)

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अपने किसी अमल पे नदामत नहीं मुझे

था नेक-दिल बहुत जो गुनहगार मुझ में था


हिमायत अली शाएर

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गुनाहगार तो रहमत को मुँह दिखा न सका

जो बे-गुनाह था वो भी नज़र मिला न सका


नुशूर वाहिदी

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देखा तो सब के सर पे गुनाहों का बोझ था

ख़ुश थे तमाम नेकियाँ दरिया में डाल कर


मोहम्मद अल्वी

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गुनह-गारों में शामिल हैं गुनाहों से नहीं वाक़िफ़

सज़ा को जानते हैं हम ख़ुदा जाने ख़ता क्या है


चकबस्त बृज नारायण

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मुझे गुनाह में अपना सुराग़ मिलता है

वगरना पारसा-ओ-दीन-दार मैं भी था


साक़ी फ़ारुक़ी

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लज़्ज़त कभी थी अब तो मुसीबत सी हो गई

मुझ को गुनाह करने की आदत सी हो गई


बेख़ुद मोहानी

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महसूस भी हो जाए तो होता नहीं बयाँ

नाज़ुक सा है जो फ़र्क़ गुनाह ओ सवाब में


नरेश कुमार शाद

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आज मैं जहाँ हूँ कल कोई और था
ये भी एक दौर है वो भी एक दौर था

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अगर तुम जान जाओ तकलीफ मेरी, तो तुम्हें मेरे मुस्कुराने पर भी तरस आयेगा

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इंसान का अगर मन बेचैन हो ना तो फिर उसे खुद के घर में भी सुकून नहीं मिलता !!

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मुझसे नाराज़ नहीं हुआ जाता, मैं बस खामोश हो जाता हूं. !!

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मुझसे मिलना हो तो खुद के किरदार में आना,

चेहरे परख लेने की बुरी आदत है मुझे..!
































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