Wednesday, August 27, 2025

इक लफ़्ज़-ए-मोहब्बत का अदना ये फ़साना है

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इक लफ़्ज़--मोहब्बत का अदना ये फ़साना है

सिमटे तो दिल--आशिक़ फैले तो ज़माना है

 

जिगर मुरादाबादी

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पूछा जो उन से चाँद निकलता है किस तरह

ज़ुल्फ़ों को रुख़ पे डाल के झटका दिया कि यूँ

 

आरज़ू लखनवी

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बे-ख़ुदी बे-सबब नहीं 'ग़ालिब'

कुछ तो है जिस की पर्दा-दारी है

 

मिर्ज़ा ग़ालिब

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ग़रज़ कि काट दिए ज़िंदगी के दिन दोस्त

वो तेरी याद में हों या तुझे भुलाने में

 

फ़िराक़ गोरखपुरी

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उल्टी हो गईं सब तदबीरें कुछ दवा ने काम किया

देखा इस बीमारी--दिल ने आख़िर काम तमाम किया

 

मीर तक़ी मीर

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सुब्ह होती है शाम होती है

उम्र यूँही तमाम होती है

 

मुंशी अमीरुल्लाह तस्लीम

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हज़ारों साल नर्गिस अपनी बे-नूरी पे रोती है

बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदा-वर पैदा

 

अल्लामा इक़बाल

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वो आए घर में हमारे ख़ुदा की क़ुदरत है

कभी हम उन को कभी अपने घर को देखते हैं

 

मिर्ज़ा ग़ालिब

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मुसाफ़िर हैं हम भी मुसाफ़िर हो तुम भी

किसी मोड़ पर फिर मुलाक़ात होगी

 

बशीर बद्र

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हम से क्या हो सका मोहब्बत में

ख़ैर तुम ने तो बेवफ़ाई की

 

फ़िराक़ गोरखपुरी

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वो बात सारे फ़साने में जिस का ज़िक्र न था

वो बात उन को बहुत ना-गवार गुज़री है

 

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

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कल चौदहवीं की रात थी शब भर रहा चर्चा तिरा

कुछ ने कहा ये चाँद है कुछ ने कहा चेहरा तिरा

 

इब्न-ए-इंशा

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ग़ैरों से कहा तुम ने ग़ैरों से सुना तुम ने

कुछ हम से कहा होता कुछ हम से सुना होता

 

चराग़ हसन हसरत

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तुम से बिछड़ कर ज़िंदा हैं

जान बहुत शर्मिंदा हैं

 

इफ़्तिख़ार आरिफ़

 

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