Sunday, August 24, 2025

परवीन शाकिर (शेर, शायरी, ग़ज़ल)

कैसे कह दूँ कि मुझे छोड़ दिया है उस ने

बात तो सच है मगर बात है रुस्वाई की


परवीन शाकिर

*

वो मुझ को छोड़ के जिस आदमी के पास गया

बराबरी का भी होता तो सब्र आ जाता


*

मैं सच कहूँगी मगर फिर भी हार जाऊँगी

वो झूट बोलेगा और ला-जवाब कर देगा

*

काँप उठती हूँ मैं ये सोच के तन्हाई में

मेरे चेहरे पे तिरा नाम न पढ़ ले कोई

*
वो कहीं भी गया लौटा तो मिरे पास आया
बस यही बात है अच्छी मिरे हरजाई की

*

बहुत से लोग थे मेहमान मेरे घर लेकिन

वो जानता था कि है एहतिमाम किस के लिए

***

वो तो ख़ुश-बू है हवाओं में बिखर जाएगा

मसअला फूल का है फूल किधर जाएगा


हम तो समझे थे कि इक ज़ख़्म है भर जाएगा

क्या ख़बर थी कि रग-ए-जाँ में उतर जाएगा


वो हवाओं की तरह ख़ाना-ब-जाँ फिरता है

एक झोंका है जो आएगा गुज़र जाएगा


वो जब आएगा तो फिर उस की रिफ़ाक़त के लिए

मौसम-ए-गुल मिरे आँगन में ठहर जाएगा


आख़िरश वो भी कहीं रेत पे बैठी होगी

तेरा ये प्यार भी दरिया है उतर जाएगा


मुझ को तहज़ीब के बर्ज़ख़ का बनाया वारिस

जुर्म ये भी मिरे अज्दाद के सर जाएगा

***

अक्स-ए-ख़ुशबू हूँ बिखरने से न रोके कोई
और बिखर जाऊँ तो मुझ को न समेटे कोई

काँप उठती हूँ मैं ये सोच के तन्हाई में
मेरे चेहरे पे तिरा नाम न पढ़ ले कोई

जिस तरह ख़्वाब मिरे हो गए रेज़ा रेज़ा
उस तरह से न कभी टूट के बिखरे कोई

मैं तो उस दिन से हिरासाँ हूँ कि जब हुक्म मिले
ख़ुश्क फूलों को किताबों में न रक्खे कोई

अब तो इस राह से वो शख़्स गुज़रता भी नहीं
अब किस उम्मीद पे दरवाज़े से झाँके कोई

कोई आहट कोई आवाज़ कोई चाप नहीं
दिल की गलियाँ बड़ी सुनसान हैं आए कोई

***

अब भला छोड़ के घर क्या करते
शाम के वक़्त सफ़र क्या करते

तेरी मसरूफ़ियतें जानते हैं
अपने आने की ख़बर क्या करते

जब सितारे ही नहीं मिल पाए
ले के हम शम्स-ओ-क़मर क्या करते

वो मुसाफ़िर ही खुली धूप का था
साए फैला के शजर क्या करते

ख़ाक ही अव्वल ओ आख़िर ठहरी
कर के ज़र्रे को गुहर क्या करते

राय पहले से बना ली तू ने
दिल में अब हम तिरे घर क्या करते

इश्क़ ने सारे सलीक़े बख़्शे
हुस्न से कस्ब-ए-हुनर क्या करते

***

बहुत रोया वो हम को याद कर के
हमारी ज़िंदगी बरबाद कर के

पलट कर फिर यहीं आ जाएँगे हम
वो देखे तो हमें आज़ाद कर के

रिहाई की कोई सूरत नहीं है
मगर हाँ मिन्नत-ए-सय्याद कर के

बदन मेरा छुआ था उस ने लेकिन
गया है रूह को आबाद कर के

हर आमिर तूल देना चाहता है
मुक़र्रर ज़ुल्म की मीआ'द कर के

***
परवीन शाकिर



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