Friday, May 28, 2021

मिट्टी शायरी

मिट्टी की आवाज़ सुनी जब मिट्टी ने
सांसों की सब खींचा-तानी ख़त्म हुई
- नज़र जावेद


भीगी मिट्टी की महक प्यास बढ़ा देती है
दर्द बरसात की बूंदों में बसा करता है
- मरग़ूब अली 

मिट्टी का बदन कर दिया मिट्टी के हवाले
मिट्टी को कहीं ताज-महल में नहीं रक्खा
- मुनव्वर राना 


मैं तो चाक पे कूज़ा-गर के हाथ की मिट्टी हूं
अब ये मिट्टी देख खिलौना कैसे बनती है
- ज़ेब ग़ौरी

मिट्टी में कितने फूल पड़े सूखते रहे
रंगीन पत्थरों से बहलता रहा हूं मैं
- असग़र मेहदी होश


मिट्टी पर उंगली से मिट्टी लिख देना
मैं ने अपना दिल बहलाना सीख लिया
- मुक़द्दस मालिक 

सुब्ह मिट्टी है शाम है मिट्टी
या'नी अपना मक़ाम है मिट्टी
- आसिम तन्हा


मिट्टी से कुछ ख़्वाब उगाने आया हूं
मैं धरती का गीत सुनाने आया हूं 
- नज़ीर क़ैसर

कोई ख़ुश्बू मिट्टी से आने लगी है
ज़मीं पर वो बूंदें गिराने लगी है
- साइमा जबीं महक


मिट्टी पे कोई नक़्श भी उभरा न रहेगा
गिर जाएगी दीवार तो साया न रहेगा
- नज़ीर क़ैसर

एक-दूसरे को बिना जाने पास-पास होना

एक-दूसरे को बिना जाने
पास-पास होना
और उस संगीत को सुनना
जो धमनियों में बजता है,
उन रंगों में नहा जाना
जो बहुत गहरे चढ़ते-उतरते हैं ।

शब्दों की खोज शुरु होते ही
हम एक-दूसरे को खोने लगते हैं
और उनके पकड़ में आते ही
एक-दूसरे के हाथों से
मछली की तरह फिसल जाते हैं ।

हर जानकारी में बहुत गहरे
ऊब का एक पतला धागा छिपा होता है,
कुछ भी ठीक से जान लेना
खुद से दुश्मनी ठान लेना है ।

कितना अच्छा होता है
एक-दूसरे के पास बैठ खुद को टटोलना,
और अपने ही भीतर
दूसरे को पा लेना ।

 : सर्वेश्वरदयाल सक्सेना 

तुम सच हो बाक़ी जो है फ़साना है और बस


मिलना न मिलना एक बहाना है और बस 
तुम सच हो बाक़ी जो है फ़साना है और बस 

लोगों को रास्ते की ज़रूरत है और मुझे 
इक संग-ए-रहगुज़र को हटाना है और बस 

मसरूफ़ियत ज़ियादा नहीं है मिरी यहाँ 
मिट्टी से इक चराग़ बनाना है और बस 

सोए हुए तो जाग ही जाएँगे एक दिन 
जो जागते हैं उन को जगाना है और बस 
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तुम वो नहीं हो जिन से वफ़ा की उम्मीद है 
तुम से मिरी मुराद ज़माना है और बस 

फूलों को ढूँडता हुआ फिरता हूँ बाग़ में 
बाद-ए-सबा को काम दिलाना है और बस 

आब ओ हवा तो यूँ भी मिरा मसअला नहीं 
मुझ को तो इक दरख़्त लगाना है और बस 
नींदों का रत-जगों से उलझना यूँही नहीं 
इक ख़्वाब-ए-राएगाँ को बचाना है और बस 

इक वादा जो किया ही नहीं है अभी 'सलीम' 
मुझ को वही तो वादा निभाना है और बस 

Thursday, May 27, 2021

हंसो तो साथ हंसेंगी दुनिया बैठ अकेले रोना होगा

हंसो तो साथ हंसेंगी दुनिया बैठ अकेले रोना होगा
चुपके चुपके बहा कर आंसू दिल के दुख को धोना होगा

बैरन रीत बड़ी दुनिया की आंख से जो भी टपका मोती
पलकों ही से उठाना होगा पलकों ही से पिरोना होगा

खोने और पाने का जीवन नाम रखा है हर कोई जाने
उस का भेद कोई न देखा क्या पाना क्या खोना होगा

बिन चाहे बिन बोले पल में टूट फूट कर फिर बन जाए
बालक सोच रहा है अब भी ऐसा कोई खिलौना होगा

प्यारों से मिल जाएं प्यारे अनहोनी कब होनी होगी
कांटे फूल बनेंगे कैसे कब सुख सेज बिछौना होगा

बहते बहते काम न आए लाख भंवर तूफ़ानी-सागर
अब मंजधार में अपने हाथों जीवन नाव डुबोना होगा

जो भी दिल ने भूल में चाहा भूल में जाना हो के रहेगा
सोच सोच कर हुआ न कुछ भी आओ अब तो खोना होगा

क्यूं जीते-जी हिम्मत हारें क्यूं फ़रियादें क्यूं ये पुकारें
होते होते हो जाएगा आख़िर जो भी होना होगा

'मीरा-जी' क्यूं सोच सताए पलक पलक डोरी लहराए
क़िस्मत जो भी रंग दिखाए अपने दिल में समोना होगा

बेपनाह हुस्न


तुझको नज़रों ने देखा है मेरी, 
लबों से तारीफ़ कैसे करूं.

निगाहों में जो क़ैद है अक्स तेरा, 
उसे लफ़्ज़ों में बयाँ कैसे करूँ. 

तेरे लबों में सिमटे हैं जो सुर्ख़ गुलाब, 
उन्हें छूने की हसरत होती है बार बार. 

तेरी पलकों में रखा है मैंने सावन, 
उसमें भीगने को बेक़रार है मेरा तन मन. 

तेरे रुखसार पे खिला है ये जो मख़मली चाँद का नूर, आईने में तू भी इसे एक बार देखना जरूर. 

बेपनाह हुस्न की तू ही तो है मल्लिका, 
हो जाएगा तुझे ख़ुद पर ही गुरुर! 

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जीवन मुझ से मैं जीवन से शरमाता हूं

जीवन मुझ से मैं जीवन से शरमाता हूं
मुझ से आगे जाने वालो में आता हूं

जिन की यादों से रौशन हैं मेरी आंखें
दिल कहता है उन को भी मैं याद आता हूं

सुर से सांसों का नाता है तोड़ूं कैसे
तुम जलते हो क्यूं जीता हूं क्यूं गाता हूं

तुम अपने दामन में सितारे बैठ कर टांको
और मैं नए बरन लफ़्ज़ों को पहनाता हूं

जिन ख़्वाबों को देख के मैं ने जीना सीखा
उन के आगे हर दौलत को ठुकराता हूं

ज़हर उगलते हैं जब मिल कर दुनिया वाले
मीठे बोलों की वादी में खो जाता हूं

'जालिब' मेरे शेर समझ में आ जाते हैं
इसी लिए कम-रुत्बा शाएर कहलाता हूं

Monday, May 24, 2021

मजरूह सुल्तानपुरी शायरी



मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंज़िल मगर
लोग साथ आते गए और कारवां बनता गया 


देख ज़िंदां से परे रंग-ए-चमन जोश-ए-बहार
रक़्स करना है तो फिर पांव की ज़ंजीर न देख 

कोई हम-दम न रहा कोई सहारा न रहा
हम किसी के न रहे कोई हमारा न रहा


शब-ए-इंतिज़ार की कश्मकश में न पूछ कैसे सहर हुई
कभी इक चराग़ जला दिया कभी इक चराग़ बुझा दिया 

बहाने और भी होते जो ज़िंदगी के लिए
हम एक बार तिरी आरज़ू भी खो देते


अब सोचते हैं लाएंगे तुझ सा कहां से हम
उठने को उठ तो आए तिरे आस्तां से हम 

कुछ बता तू ही नशेमन का पता
मैं तो ऐ बाद-ए-सबा भूल गया


मुझे ये फ़िक्र सब की प्यास अपनी प्यास है साक़ी
तुझे ये ज़िद कि ख़ाली है मिरा पैमाना बरसों से 

तुझे न माने कोई तुझ को इस से क्या मजरूह
चल अपनी राह भटकने दे नुक्ता-चीनों को 

यही है मौक़ा-ए-इज़हार आओ सच बोलें: क़तील शिफ़ाई

यही है मौक़ा-ए-इज़हार आओ सच बोलें: क़तील शिफ़ाई

खुला है झूट का बाज़ार आओ सच बोलें 
न हो बला से ख़रीदार आओ सच बोलें 

सुकूत छाया है इंसानियत की क़द्रों पर 
यही है मौक़ा-ए-इज़हार आओ सच बोलें 

हमें गवाह बनाया है वक़्त ने अपना 
ब-नाम-ए-अज़्मत-ए-किरदार आओ सच बोलें 

सुना है वक़्त का हाकिम बड़ा ही मुंसिफ़ है 
पुकार कर सर-ए-दरबार आओ सच बोलें 
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तमाम शहर में क्या एक भी नहीं मंसूर 
कहेंगे क्या रसन-ओ-दार आओ सच बोलें 

बजा कि ख़ू-ए-वफ़ा एक भी हसीं में नहीं 
कहाँ के हम भी वफ़ादार आओ सच बोलें 

जो वस्फ़ हम में नहीं क्यूँ करें किसी में तलाश 
अगर ज़मीर है बेदार आओ सच बोलें 
छुपाए से कहीं छुपते हैं दाग़ चेहरे के 
नज़र है आइना-बरदार आओ सच बोलें 

'क़तील' जिन पे सदा पत्थरों को प्यार आया 
किधर गए वो गुनहगार आओ सच बोलें 

जिगर और दिल को बचाना भी हैनज़र आप ही से मिलाना भी है

जिगर और दिल को बचाना भी है
नज़र आप ही से मिलाना भी है

मोहब्बत का हर भेद पाना भी है
मगर अपना दामन बचाना भी है

जो दिल तेरे ग़म का निशाना भी है
क़तील-ए-जफ़ा-ए-ज़माना भी है

ये बिजली चमकती है क्यूं दम-ब-दम
चमन में कोई आशियाना भी है

ख़िरद की इताअत ज़रूरी सही
यही तो जुनूं का ज़माना भी है

न दुनिया न उक़्बा कहां जाइए
कहीं अहल-ए-दिल का ठिकाना भी है

मुझे आज साहिल पे रोने भी दो
कि तूफ़ान में मुस्कुराना भी है

ज़माने से आगे तो बढ़िए 
ज़माने को आगे बढ़ाना भी है 

Sunday, May 16, 2021

आ गई याद शाम ढलते ही

 आ गई याद शाम ढलते ही

बुझ गया दिल चराग़ जलते ही 


खुल गए शहर-ए-ग़म के दरवाज़े 
इक ज़रा सी हवा के चलते ही 

कौन था तू कि फिर न देखा तुझे 
मिट गया ख़्वाब आँख मलते ही 

ख़ौफ़ आता है अपने ही घर से 
माह-ए-शब-ताब के निकलते ही

तू भी जैसे बदल सा जाता है 
अक्स-ए-दीवार के बदलते ही 

ख़ून सा लग गया है हाथों में 
चढ़ गया ज़हर गुल मसलते ही 

Friday, May 14, 2021

तेरी ही आस थी तो चले आये।

अथाह प्यास थी तो चले आये। 

तेरी ही तलाश थी तो चले आये ।


ये ना समझना कि मजबूर थे हम,

तबियत उदास थी तो चले आये। 


इतना बहाना भी ठीक नही यार, 

तेरी ही आस थी तो चले आये। 


मानते तो हो पर पहचानते नही, 

चाहत हताश थी तो चले आये। 


आ तेरी आँखो मे झाँक लूँ खूब

भड़की सी आग थी तो चले आये। 


आगोश में आओ तो बता दूँ हाल, 

दिल की पुकार थी तो चले आये। 



Sunday, May 9, 2021

साथी, सब सहना पड़ता है।

साथी, सब सहना पड़ता है। 
उर-अंतर के अरमानों को, 
छालों को मधु-वरदानों को, 
और मूक गीले गानों को 

निर्मम कर से स्वयं कुचल कर 
और मसल कर— 
भी तो #जननी के सम्मुख 
असमर्थ हमें हँसना पड़ता है। 
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संचित जीवन-कोष लुटा कर 
पाषाणों पर हृदय चढ़ाकर 
सब अपने अधिकार मिटाकर 
घूँट हलाहल-सी भी पीकर— 

अपने ही हाथों से कंपित 
और विनिंदित— 
भी हो, ख़ुशी न ख़ुशी से 
पर मर-मर कर जीना पड़ता है। 
जीवन के एकाकी-पथ पर 
कुछ काँटों की सेज बिछाकर 
कर का जलता दीप बुझाकर 
पग अपने सहला-सहला कर— 

अपने ही हाथों से विह्वल 
तन-मन व्याकुल— 
भी हो पर जीवन-पथ पर 
हमको प्रतिपल बढ़ना पड़ता है। 

साथी, सब सहना पड़ना पड़ता है॥

गोपाल दास नीरज 

बिखरा हुआ ख्वाब हूं मैं..

कभी भूल ना पाओगे
वह एहसास हूं मैं. 
नींद की आगोश में
बिखरा हुआ ख्वाब हूं मैं..

आंचल शायरी

गोशे आंचल के तेरे सीने पर
हाए क्या चीज़ लिए बैठे हैं
जलील मानिकपुरी

तेरे माथे पे ये आंचल बहुत ही ख़ूब है लेकिन
तू इस आंचल से इक परचम बना लेती तो अच्छा था
असरार-उल-हक़ मजाज़

दूर के चांद को ढूंढ़ो न किसी आंचल में
ये उजाला नहीं आंगन में समाने वाला
निदा फ़ाज़ली

ये हवा कैसे उड़ा ले गई आंचल मेरा
यूं सताने की तो आदत मेरे घनश्याम की थी
परवीन शाकिर

हिनाई हाथ से आंचल संभाले
ये शरमाता हुआ कौन आ रहा है
मजनूं गोरखपुरी

मुद्दतों बाद मयस्सर हुआ मां का आंचल
मुद्दतों बाद हमें नींद सुहानी आई
इक़बाल अशहर

न छांव करने को है वो आंचल न चैन लेने को हैं वो बांहें
मुसाफ़िरों के क़रीब आ कर हर इक बसेरा पलट गया है
क़तील शिफ़ाई

अपने आंचल में छुपा कर मेरे आंसू ले जा
याद रखने को मुलाक़ात के जुगनू ले जा
अज़हर इनायती

नमी सी थी दम-ए-रुख़्सत कुछ उन के आंचल पर
वो अश्क थे कि पसीना मैं सोचता ही रहा
मिर्ज़ा महमुद सरहदी


मैं ढूँढता हूँ जिसे वो जहाँ नहीं मिलता

मैं ढूँढता हूँ जिसे वो जहाँ नहीं मिलता 
नई ज़मीन नया आसमाँ नहीं मिलता 

नई ज़मीन नया आसमाँ भी मिल जाए 
नए बशर का कहीं कुछ निशाँ नहीं मिलता 

वो तेग़ मिल गई जिस से हुआ है क़त्ल मिरा 
किसी के हाथ का उस पर निशाँ नहीं मिलता 

वो मेरा गाँव है वो मेरे गाँव के चूल्हे 
कि जिन में शोले तो शोले धुआँ नहीं मिलता 

जो इक ख़ुदा नहीं मिलता तो इतना मातम क्यूँ 
यहाँ तो कोई मिरा हम-ज़बाँ नहीं मिलता 

खड़ा हूँ कब से मैं चेहरों के एक जंगल में 
तुम्हारे चेहरे का कुछ भी यहाँ नहीं मिलता 

Friday, May 7, 2021

ज़मीं पे इंसाँ ख़ुदा बना था वबा से पहले

ज़मीं पे इंसाँ ख़ुदा बना था वबा से पहले 
वो ख़ुद को सब कुछ समझ रहा था वबा से पहले 

पलक झपकते ही सारा मंज़र बदल गया है 
यहाँ तो मेला लगा हुआ था वबा से पहले 

तुम आज हाथों से दूरियाँ नापते हो सोचो 
दिलों में किस दर्जा फ़ासला था वबा से पहले 

अजीब सी दौड़ में सब ऐसे लगे हुए थे 
मकाँ मकीनों को ढूँढता था वबा से पहले 

हम आज ख़ल्वत में इस ज़माने को रो रहे हैं 
वो जिस से सब को बहुत गिला था वबा से पहले 

न जाने क्यों आ गया दुआ में मिरी वो बच्चा 
सड़क पे जो फूल बेचता था वबा से पहले 

दुआ को उट्ठे हैं हाथ 'अम्बर' तो ध्यान आया 
ये आसमाँ सुर्ख़ हो चुका था वबा से पहले 

जिंदगी शायरी

1. जिंदगी बता तेरी दास्तां मैं क्या लिखूं
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बावफ़ा लिखूं तुझको या बेवफ़ा लिखूं

2. कभी इनायत कभी कहर भी होगी
जिंदगी कभी जाम कभी जहर भी होगी

3. प्यालों की शाम उजालों की सहर भी होगी
मगर हयात के सफ़र में दोपहर भी होगी

4. जिसकी हमें उम्मीद थी तुझसे कभी मिला नहीं
फिर भी मगर ऐ जिंदगी तुझसे हमें गिला नहीं

5. तमाम उम्र हमने जिंदगी से आशनाई की
मगर जिंदगी ने फिर भी हमसे बेवफाई की

6. पहले क्यों बिठाया था उठाकर हमें अपने ठिकानों से
अब ए जिंदगी तेरे शानों से हम उतर नहीं सकते

7. 'नामचीन' मौत तो जब आएगी तब आएगी
ये जिंदगी पहले ही मेरा काम तमाम करके छोड़ेगी

8. दरबदर भटकाती रही जिंदगी हमें उम्रभर आजमाती रही
कभी हम इस इम्तिहान में रहे कभी उस इम्तिहान में रहे

9. ऐ जिंदगी अगर तू मयस्सर होने का वादा करे तो हम
तेरी तलाश में कुछ दिन और दुनिया की ख़ाक छान लेते हैं

10.मुकद्दर के इस खेल में हम भी अपनी किस्मत आजमाकर
देखते हैं
अगर ज़िन्दगी जुआ है तो हम भी एक दांव लगाकर देखते हैं

अपनों को बहुत नज़दीक से देखा है

सीधे से रास्ते को कई बार मुड़ते देखा है
कैसे कहें कि खामोशियों को चीखते देखा है ...

आस-पास बेमतलब सी चीजों की मौजूदगी क्यों??
मैंने दूर जाते अपनों को बहुत नज़दीक से देखा है...

कुछ रिश्ते निभा लिए गए बेसबब ही जिंदगी भर
कुछ रिश्तों को बेवज़ह उलझते देखा है...

कैसे बुन लें पूरे सफर का ख्वाब बंद आंखों से
खुली आँखों से जब पल में मंजर को बदलते देखा है...

कहना, सुनना, देखना ,छू पाना...बहुत आसानी है इन बातों में
मैंने सनसनी हवाओं को चुप होकर गुज़रते देखा है। 

वक़्त, समय शायरी

सदा ऐश दौराँ दिखाता नहीं 
गया वक़्त फिर हाथ आता नहीं 
- मीर हसन

सुब्ह होती है शाम होती है 
उम्र यूँही तमाम होती है 
- मुंशी अमीरुल्लाह तस्लीम

वक़्त की गर्दिशों का ग़म न करो 
हौसले मुश्किलों में पलते हैं 
- महफूजुर्रहमान आदिल

और क्या चाहती है गर्दिश-ए-अय्याम कि हम 
अपना घर भूल गए उन की गली भूल गए 
- जौन एलिया

वक़्त अच्छा भी आएगा 'नासिर' 
ग़म न कर ज़िंदगी पड़ी है अभी 
- नासिर काज़मी

गुज़रने ही न दी वो रात मैं ने 
घड़ी पर रख दिया था हाथ मैं ने 
- शहज़ाद अहमद

उम्र भर मिलने नहीं देती हैं अब तो रंजिशें 
वक़्त हम से रूठ जाने की अदा तक ले गया 
- फ़सीह अकमल

वक़्त करता है परवरिश बरसों 
हादिसा एक दम नहीं होता 
- क़ाबिल अजमेरी

वक़्त हर ज़ख़्म का मरहम तो नहीं बन सकता 
दर्द कुछ होते हैं ता-उम्र रुलाने वाले 
- सदा अम्बालवी

'अख़्तर' गुज़रते लम्हों की आहट पे यूँ न चौंक 
इस मातमी जुलूस में इक ज़िंदगी भी है 
- अख़्तर होशियारपुरी

कोई ठहरता नहीं यूँ तो वक़्त के आगे 
मगर वो ज़ख़्म कि जिस का निशाँ नहीं जाता 
- फ़र्रुख़ जाफ़री

सब आसान हुआ जाता है 
मुश्किल वक़्त तो अब आया है 
- शारिक़ कैफ़ी

गुज़रते वक़्त ने क्या क्या न चारा-साज़ी की 
वगरना ज़ख़्म जो उस ने दिया था कारी था 
- अख़्तर होशियारपुरी

रोके से कहीं हादसा-ए-वक़्त रुका है 
शोलों से बचा शहर तो शबनम से जला है 
- अली अहमद जलीली

Thursday, May 6, 2021

आहट शायरी

दिल पर दस्तक देने कौन आ निकला है 
किस की आहट सुनता हूँ वीराने में 
- गुलज़ार

जिसे न आने की क़स्में मैं दे के आया हूँ 
उसी के क़दमों की आहट का इंतिज़ार भी है 
- जावेद नसीमी

मैं ने दिन रात ख़ुदा से ये दुआ माँगी थी 
कोई आहट न हो दर पर मिरे जब तू आए 
- बशीर बद्र
 
आहटें सुन रहा हूँ यादों की 
आज भी अपने इंतिज़ार में गुम 
- रसा चुग़ताई

'अख़्तर' गुज़रते लम्हों की आहट पे यूँ न चौंक 
इस मातमी जुलूस में इक ज़िंदगी भी है 
- अख़्तर होशियारपुरी

नींद आए तो अचानक तिरी आहट सुन लूँ 
जाग उठ्ठूँ तो बदन से तिरी ख़ुश्बू आए 
- शहज़ाद अहमद

कोई हलचल है न आहट न सदा है कोई 
दिल की दहलीज़ पे चुप-चाप खड़ा है कोई 
- ख़ुर्शीद अहमद जामी

कोई आवाज़ न आहट न कोई हलचल है 
ऐसी ख़ामोशी से गुज़रे तो गुज़र जाएँगे 
- अलीना इतरत
 
आज भी नक़्श हैं दिल पर तिरी आहट के निशाँ 
हम ने उस राह से औरों को गुज़रने न दिया 
- अशहद बिलाल इब्न-ए-चमन

शाम ढले आहट की किरनें फूटी थीं 
सूरज डूब के मेरे घर में निकला था 
- ज़ेहरा निगाह

आहट भी अगर की तो तह-ए-ज़ात नहीं की 
लफ़्ज़ों ने कई दिन से कोई बात नहीं की 
- जावेद नासिर

ये भी रहा है कूचा-ए-जानाँ में अपना रंग 
आहट हुई तो चाँद दरीचे में आ गया 
- अज़हर इनायती

मदद शायरी

हम चराग़ों की मदद करते रहे
और उधर सूरज बुझा डाला गया
- मनीश शुक्ला


कुछ न कहने से भी छिन जाता है एजाज़-ए-सुख़न
ज़ुल्म सहने से भी ज़ालिम की मदद होती है
- मुज़फ़्फ़र वारसी 


समुंदरों को भी हैरत हुई कि डूबते वक़्त
किसी को हम ने मदद के लिए पुकारा नहीं
- इफ़्तिख़ार आरिफ़ 


न कुछ सितम से तिरे आह आह करता हूं
मैं अपने दिल की मदद गाह गाह करता हूं 
- शैख़ ज़हूरूद्दीन हातिम

तदबीर के दस्त-ए-रंगीं से तक़दीर दरख़्शां होती है
क़ुदरत भी मदद फ़रमाती है जब कोशिश-ए-इंसां होती है
- हफ़ीज़ बनारसी


अज़ीज़ आए मदद को न ग़म-गुसार आए
ज़माने भर को मुसीबत में हम पुकार आए
- जावेद वशिष्ट

बहुत सादा दिल हैं बहुत नेक हैं
हमारे तुम्हारे मदद-गार सब
- अक़ील नोमानी


कोई मेरी मदद को आया नहीं
मैं ने सब को पुकार कर देखा
- सय्यदा कौसर मनव्वर शरक़पुरी

वो मुझ को क्या बताना चाहता है

वो मुझ को क्या बताना चाहता है
जो दुनिया से छुपाना चाहता है

मुझे देखो कि मैं उस को ही चाहूं
जिसे सारा ज़माना चाहता है

क़लम करना कहां है उस की मंशा
वो मेरा सर झुकाना चाहता है

शिकायत का धुआं आंखों से दिल तक
तअ'ल्लुक़ टूट जाना चाहता है

तक़ाज़ा वक़्त का कुछ भी हो ये दिल
वही क़िस्सा पुराना चाहता है

Wednesday, May 5, 2021

मैं वो हसीं ग़ज़ल बन जाऊंगी


खुद को देखोगे तुम जिसमें,
मैं वो अक्स बन जाऊंगी।
ढूंढोगे तुम जिसको हर किरदार में,
मैं वो शख्स बन जाऊंगी।।

चलना चाहोगे तुम बार-बार जिस पर,
मैं वो डगर बन जाऊंगी।
खो जाओगे तुम जिस में हमेशा के लिए,
मैं वो भंवर बन जाऊंगी।।

याद आएगा जो तुम्हें बार-बार,
मैं वो पल बन जाऊंगी।
इंतजार रहेगा तुम्हें जिसका हमेशा,
मैं वो कल बन जाऊंगी।।

याद करके मुस्कुराओगे तुम जिसे,
मैं वो हसीं भूल बन जाऊंगी।
महकती रहेगी तुम्हारी जिंदगी जिस खुशबू से,
मैं वो फूल बन जाऊंगी।।

जिसके बिना अधूरे हो जाओगे तुम,
मैं तुम्हारा वो हिस्सा बन जाऊंगी।
कमी महसूस होगी तुम्हे जिसकी,
मैं तुम्हारा वो किस्सा बन जाऊंगी।।

भर आए जो हर खुशी में भी,
मैं वो नयन सजल बन जाऊंगी।
गुनगुनाओगे तुम जिसे हर पल,
मैं वो हसीं ग़ज़ल बन जाऊंगी

सुर्ख इन लबों की र॔गत गुलाबों में कहां

सुर्ख इन लबों की र॔गत गुलाबों में कहां, 
होगा चांद हसीं लेकिन तेरे जितना कहां? 

ये जो ज़िन्दगी की किताब है


ये जो ज़िन्दगी की किताब है ये किताब भी क्या किताब है
कहीं इक हसीन सा ख़्वाब है कहीं जान-लेवा अज़ाब है

कहीं छांव है कहीं धूप है कहीं और ही कोई रूप है,
कई चेहरे इस में छुपे हुए इक अजीब सी ये नक़ाब है
 
कहीं खो दिया कहीं पा लिया कहीं रो लिया कहीं गा लिया,
कहीं छीन लेती है हर ख़ुशी कहीं मेहरबान बेहिसाब है
 
कहीं आंसुओं की है दास्तां कहीं मुस्कुराहटों का बयां,
कहीं बर्क़तों की है बारिशें कहीं तिश्नगी बेहिसाब है

Monday, May 3, 2021

उल्फ़त का जब किसी ने लिया नाम रो पड़े

उल्फ़त का जब किसी ने लिया नाम रो पड़े
अपनी वफ़ा का सोच के अंजाम रो पड़े

हर शाम ये सवाल मोहब्बत से क्या मिला
हर शाम ये जवाब कि हर शाम रो पड़े

राह-ए-वफ़ा में हम को ख़ुशी की तलाश थी
दो गाम ही चले थे कि हर गाम रो पड़े

रोना नसीब में है तो औरों से क्या गिला
अपने ही सर लिया कोई इल्ज़ाम रो पड़े

सुदर्शन फ़ाकिर

मेरे सजदे में थे आप

पशेमान ये नजरें, खुदा से मिलाएँ कैसे. 
मेरे सजदे में थे आप, खुदा को बताए कैसे। 

Sunday, May 2, 2021

बारिशों में जल गये होते


जिंदगी ने संभलने से रोका हमें,

शराबों में क्या नशा कि बहक जाते।

सिरफिरे न होते तो शायर क्या होते,
खामियां न होती तो कुछ भी न होते।

आज ही तो उठकर चलने लगे हम,
न मिलतेे तुम तोे उम्रभर सोये रहते।

तेरी सांसों ने बुझा दी सीने की आग,
वरना हम तो बारिशों में जल गये होते।

न होता कोई हमदर्द दुनिया में मंज़र,
गर आसमां से तारे न आंगन में गिरते।

जो मिला वो कम था क्या

दिले ख्वाहिश दिल में ही दफ्न रह गई।

मिले कोई जो होकर मेरा समझता मुझे।।
जिस तरह हो के तेरा टूटकर चाहा तुझे।
जो मिलता कोई अपना जो चाहता मुझे।।
कुछ लम्हों में जी लेती मेरी तमाम जिंदगी।
गर होती रूबरू तेरे इश्क से मेरी जिंदगी।।
जो मुकम्मल होती मेरी राहें मुहब्बत की।
तो कैसे लिखती मेरी कलम बात एहसासों की।।
सोचा चलो चलते हैं , इश्क़ की मंजिल न मिली तो गम क्या।
खूबसूरत बनाएं अपने सफर को, जो मिला वो कम था क्या।।

मुझसे बात न करो

मुझसे न बात करो कोई, मन लग जाएगा..

फिर एक दिन तुम सबका भी, मन भर जाएगा..
हम फिर भी कुछ न कहेंगे किसी से
आंसू फिर पियेंगे, दर्द सहेंगे सही से..
फ़ितरत ही रही ऎसी, हमेशा हमारी
हर शख्स अपना हो, मंज़िल थी बना ली..

कभी अनकही रह जाती है।

बातें....


कभी सुनी जाती है,
या कभी अनकही रह जाती है।
फिर भी
बातें बाकी रह जाती है...
क्या किसी को पता है..
कि ये बातें कब पूरी होती है?
ये बातें इतनी चतुर होती हैं
कि मन के भेद खोल देती है।
ये जुबां से हरदम
निकलना चाहती है.....
मगर ये होंठ रोक देते है....
कभी-कभी तो ये
हृदय के राज़ को
मन के झूले से होते हुए
आंखों की झांकी से
सब प्रकट कर देती है...
इसे लज्जा भी नहीं आती....
ये बेहिसाब उड़ना चाहती हैं,
सबसे आगे जाना चाहती है....
इसे बंदिशों में रहना नहीं आता....
ये सारी बेड़ियाँ तोड़कर,
झिझक की दहलीज़ छोड़कर,
स्वतंत्रता के आंगन में
अपना घर बसाना चाहती है.....
ऐसी होती हैं...
ये 'बातें'
बेधड़क और बेझिझक...
क्योंकि जज़्बात सही या गलत नहीं होते...
जज़्बात तो बस जज़्बात होते हैं।

कुछ दिन तुम्हारे दिल में ठहर जाने दो.

प्रवासी हूँ

कुछ दिन
तुम्हारे दिल के
खूबसूरत शहर में
ठहर जाने दो.

ग़र मंजूर हो
तो धीरे से मुस्कुरा देना
ग़र तकल्लुफ़ हो तो
चुपके से बता देना.

मैं देश तुम्हारे दिल का
छोड़ चला जाऊंगा
ये वादा है मेरा
कभी लौट कर
नहीं आऊंगा.

ग़र भा गया
तुम्हारे मन को
तो दिल में बसा लेना
अपना शहर छोड़ कर
तुम्हारे दिल में बस जाऊंगा.
प्रवासी... हूँ...

हे! मजदूरों तुम्हें नमन

जो धरती की माटी लेकर
 माथे तिलक लगाते हैं

जो खेतों से राजपथों तक
 श्रम के गीत सुनाते हैं ।

जिनके भीतर जलती रहती 
सूरज जैसी कोई अगन

 हे! मजदूरों तुम्हें नमन
 हे! श्रमवीरों तुम्हें नमन।

 जिनका स्वेद, गिरे धरा पर
 वो चंदन बन जाता है।

 चट्टानों को काट काट 
जो गीत विजय के गाता है 

संघर्षों में तपकर भी
 अंदर जिंदा रखे लगन

 हे! मजदूरों तुम्हें नमन 
हे! श्रमवीरों तुम्हें नमन।
जो माटी को सींच रहे हैं 
अपने खून पसीने से ।

खूब संवरती है ये धरती
 श्रम के इसी नगीने से।

 जिनके भीतर ही पलती है 
पर्वत जैसी ठोस लगन ।

हे! मजदूरों तुम्हें नमन 
हे! श्रमवीरों तुम्हें नमन।
जिनका जीवन भी अर्पित
 राष्ट्र के निर्माणों में 

आंखों में विश्वास बसा है
मेहनत जिनके प्राणों में।

 ये माटी के, सच्चे सैनिक 
जो रखते खुशहाल वतन।

 हे ! मजदूरों ,तुम्हें नमन
 हे,श्रमवीरों तुम्हें नमन।

अच्छा तुम्हारे शहर का दस्तूर हो गया

अच्छा तुम्हारे शहर का दस्तूर हो गया 
जिस को गले लगा लिया वो दूर हो गया 

काग़ज़ में दब के मर गए कीड़े किताब के 
दीवाना बे-पढ़े-लिखे मशहूर हो गया 

महलों में हम ने कितने सितारे सजा दिए 
लेकिन ज़मीं से चाँद बहुत दूर हो गया 

तन्हाइयों ने तोड़ दी हम दोनों की अना! 
आईना बात करने पे मजबूर हो गया 

दादी से कहना उस की कहानी सुनाइए 
जो बादशाह इश्क़ में मज़दूर हो गया 

सुब्ह-ए-विसाल पूछ रही है अजब सवाल 
वो पास आ गया कि बहुत दूर हो गया 

कुछ फल ज़रूर आएँगे रोटी के पेड़ में 
जिस दिन मिरा मुतालबा मंज़ूर हो गया

बशीर बद्र