Sunday, May 16, 2021

आ गई याद शाम ढलते ही

 आ गई याद शाम ढलते ही

बुझ गया दिल चराग़ जलते ही 


खुल गए शहर-ए-ग़म के दरवाज़े 
इक ज़रा सी हवा के चलते ही 

कौन था तू कि फिर न देखा तुझे 
मिट गया ख़्वाब आँख मलते ही 

ख़ौफ़ आता है अपने ही घर से 
माह-ए-शब-ताब के निकलते ही

तू भी जैसे बदल सा जाता है 
अक्स-ए-दीवार के बदलते ही 

ख़ून सा लग गया है हाथों में 
चढ़ गया ज़हर गुल मसलते ही 

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