मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंज़िल मगर
लोग साथ आते गए और कारवां बनता गया
देख ज़िंदां से परे रंग-ए-चमन जोश-ए-बहार
रक़्स करना है तो फिर पांव की ज़ंजीर न देख
कोई हम-दम न रहा कोई सहारा न रहा
हम किसी के न रहे कोई हमारा न रहा
शब-ए-इंतिज़ार की कश्मकश में न पूछ कैसे सहर हुई
कभी इक चराग़ जला दिया कभी इक चराग़ बुझा दिया
बहाने और भी होते जो ज़िंदगी के लिए
हम एक बार तिरी आरज़ू भी खो देते
अब सोचते हैं लाएंगे तुझ सा कहां से हम
उठने को उठ तो आए तिरे आस्तां से हम
कुछ बता तू ही नशेमन का पता
मैं तो ऐ बाद-ए-सबा भूल गया
मुझे ये फ़िक्र सब की प्यास अपनी प्यास है साक़ी
तुझे ये ज़िद कि ख़ाली है मिरा पैमाना बरसों से
तुझे न माने कोई तुझ को इस से क्या मजरूह
चल अपनी राह भटकने दे नुक्ता-चीनों को
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