उर-अंतर के अरमानों को,
छालों को मधु-वरदानों को,
और मूक गीले गानों को
निर्मम कर से स्वयं कुचल कर
और मसल कर—
भी तो #जननी के सम्मुख
असमर्थ हमें हँसना पड़ता है।
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संचित जीवन-कोष लुटा कर
पाषाणों पर हृदय चढ़ाकर
सब अपने अधिकार मिटाकर
घूँट हलाहल-सी भी पीकर—
अपने ही हाथों से कंपित
और विनिंदित—
भी हो, ख़ुशी न ख़ुशी से
पर मर-मर कर जीना पड़ता है।
जीवन के एकाकी-पथ पर
कुछ काँटों की सेज बिछाकर
कर का जलता दीप बुझाकर
पग अपने सहला-सहला कर—
अपने ही हाथों से विह्वल
तन-मन व्याकुल—
भी हो पर जीवन-पथ पर
हमको प्रतिपल बढ़ना पड़ता है।
साथी, सब सहना पड़ना पड़ता है॥
गोपाल दास नीरज
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