बातें....
कभी सुनी जाती है,
या कभी अनकही रह जाती है।
फिर भी
बातें बाकी रह जाती है...
क्या किसी को पता है..
कि ये बातें कब पूरी होती है?
ये बातें इतनी चतुर होती हैं
कि मन के भेद खोल देती है।
ये जुबां से हरदम
निकलना चाहती है.....
मगर ये होंठ रोक देते है....
कभी-कभी तो ये
हृदय के राज़ को
मन के झूले से होते हुए
आंखों की झांकी से
सब प्रकट कर देती है...
इसे लज्जा भी नहीं आती....
ये बेहिसाब उड़ना चाहती हैं,
सबसे आगे जाना चाहती है....
इसे बंदिशों में रहना नहीं आता....
ये सारी बेड़ियाँ तोड़कर,
झिझक की दहलीज़ छोड़कर,
स्वतंत्रता के आंगन में
अपना घर बसाना चाहती है.....
ऐसी होती हैं...
ये 'बातें'
बेधड़क और बेझिझक...
क्योंकि जज़्बात सही या गलत नहीं होते...
जज़्बात तो बस जज़्बात होते हैं।
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