'मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग/
और भी दुख हैं जमाने में मुहब्ब्त के सिवा/
राहते और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा.'
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‘हम जीते जी मसरूफ रहे/
कुछ इश्क किया कुछ काम किया.
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लाजिम है कि हम भी देखेंगे/
वे दिन कि जिसका वादा है/
जो लौह-ए-अजल में लिक्खा है/
जब जुल्म-ओ सितम के कोह-ए-गिरां/
रूई की तरह उड़ जायेंगे…’
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‘गुलों में रंग भरे बादे नौबहार चले/
चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले.’
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‘अब जुल्म की मियाद के दिन थोड़े हैं/
इक जरा सब्र कि फरियाद के दिन थोड़े हैं.’
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‘ये दाग-दाग उजाला ये शब गजीदा सहर/
वे इंतिजार था जिसका ये वो सहर तो नहीं/
ये वो सहर तो नहीं जिसकी आरजू लेकर/
चले थे यार कि मिल जायेगी कहीं न कहीं/
फलक के दश्त में आखिरी मंजिल…’
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‘आपकी याद आती रही रात भर/
चांदनी दिल दुखाती रही रात भर/
कोई खुशबू बदलती रही पैरहन/
कोई तस्वीर गाती रही रात भर.’
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‘तुम्हारी याद के जब जख्म भरने लगते हैं/
किसी बहाने तुम्हें याद करने लगते हैं.’
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दिल ना-उमीद तो नहीं नाकाम ही तो है
लम्बी है ग़म की शाम मगर शाम ही तो है
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वो आ रहे हैं वो आते हैं आ रहे होंगे
शब-ए-फ़िराक़ ये कह कर गुज़ार दी हम ने
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जानता है कि वो न आएँगे
फिर भी मसरूफ़-ए-इंतिज़ार है दिल
-फैज अहमद फैज
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