Wednesday, February 26, 2025

ख़ुमार बाराबंकवी (ग़ज़ल, शेर, शायरी)

न हारा है इश्क़ और न दुनिया थकी है

दिया जल रहा है हवा चल रही है


सुकूँ ही सुकूँ है ख़ुशी ही ख़ुशी है

तिरा ग़म सलामत मुझे क्या कमी है


खटक गुदगुदी का मज़ा दे रही है

जिसे इश्क़ कहते हैं शायद यही है


वो मौजूद हैं और उन की कमी है

मोहब्बत भी तन्हाई-ए-दाइमी है


चराग़ों के बदले मकाँ जल रहे हैं

नया है ज़माना नई रौशनी है


अरे ओ जफ़ाओं पे चुप रहने वालो

ख़मोशी जफ़ाओं की ताईद भी है


मिरे राहबर मुझ को गुमराह कर दे

सुना है कि मंज़िल क़रीब आ गई है


'ख़ुमार'-ए-बला-नोश तू और तौबा

तुझे ज़ाहिदों की नज़र लग गई है

हुस्न जब मेहरबाँ हो तो क्या कीजिए

इश्क़ के मग़्फ़िरत की दुआ कीजिए


इस सलीक़े से उन से गिला कीजिए

जब गिला कीजिए हँस दिया कीजिए


दूसरों पर अगर तब्सिरा कीजिए

सामने आइना रख लिया कीजिए


आप सुख से हैं तर्क-ए-तअ'ल्लुक़ के बा'द

इतनी जल्दी न ये फ़ैसला कीजिए


ज़िंदगी कट रही है बड़े चैन से

और ग़म हों तो वो भी अता कीजिए


कोई धोका न खा जाए मेरी तरह

ऐसे खुल के न सब से मिला कीजिए


अक़्ल ओ दिल अपनी अपनी कहें जब 'ख़ुमार'

अक़्ल की सुनिए दिल का कहा कीजिए

हँसने वाले अब एक काम करें
जश्न-ए-गिर्या का एहतिमाम करें

हम भी कर लें जो रौशनी घर में
फिर अँधेरे कहाँ क़याम करें

मुझ को महरूमी-ए-नज़ारा क़ुबूल
आप जल्वे न अपने आम करें

इक गुज़ारिश है हज़रत-ए-नासेह
आप अब और कोई काम करें

आ चलें उस के दर पे अब ऐ दिल
ज़िंदगी का सफ़र तमाम करें

हाथ उठता नहीं है दिल से 'ख़ुमार'
हम उन्हें किस तरह सलाम करें
आँखों के चराग़ों में उजाले न रहेंगे
आ जाओ कि फिर देखने वाले न रहेंगे

जा शौक़ से लेकिन पलट आने के लिए जा
हम देर तलक ख़ुद को सँभाले न रहेंगे

ऐ ज़ौक़-ए-सफ़र ख़ैर हो नज़दीक है मंज़िल
सब कहते हैं अब पाँव में छाले न रहेंगे

जिन नालों की हो जाएगी ता-दोस्त रसाई
वो सानेहे बन जाएँगे नाले न रहेंगे

मैं तौबा तो कर लूँ मगर इक बात है वाइ'ज़
क्या आज से गर्दिश में पियाले न रहेंगे

क्यों ज़ुल्मत-ए-ग़म से हो 'ख़ुमार' इतने परेशान
बादल ये हमेशा ही तो काले न रहेंगे
ऐ मौत उन्हें भुलाए ज़माने गुज़र गए
आ जा कि ज़हर खाए ज़माने गुज़र गए

ओ जाने वाले आ कि तिरे इंतिज़ार में
रस्ते को घर बनाए ज़माने गुज़र गए

ग़म है न अब ख़ुशी है न उम्मीद है न यास
सब से नजात पाए ज़माने गुज़र गए

क्या लाइक़-ए-सितम भी नहीं अब मैं दोस्तो
पत्थर भी घर में आए ज़माने गुज़र गए

जान-ए-बहार फूल नहीं आदमी हूँ मैं
आ जा कि मुस्कुराए ज़माने गुज़र गए

क्या क्या तवक़्क़ुआत थीं आहों से ऐ 'ख़ुमार'
ये तीर भी चलाए ज़माने गुज़र गए
अकेले हैं वो और झुँझला रहे हैं
मिरी याद से जंग फ़रमा रहे हैं

ये कैसी हवा-ए-तरक़्क़ी चली है
दिए तो दिए दिल बुझे जा रहे हैं

इलाही मिरे दोस्त हों ख़ैरियत से
ये क्यूँ घर में पत्थर नहीं आ रहे हैं

बहिश्त-ए-तसव्वुर के जल्वे हैं मैं हूँ
जुदाई सलामत मज़े आ रहे हैं

क़यामत के आने में रिंदों को शक था
जो देखा तो वाइ'ज़ चले आ रहे हैं

बहारों में भी मय से परहेज़ तौबा
'ख़ुमार' आप काफ़िर हुए जा रहे हैं

हम उन्हें वो हमें भुला बैठे
दो गुनहगार ज़हर खा बैठे

हाल-ए-ग़म कह के ग़म बढ़ा बैठे
तीर मारे थे तीर खा बैठे

आँधियो जाओ अब करो आराम
हम ख़ुद अपना दिया बुझा बैठे

जी तो हल्का हुआ मगर यारो
रो के हम लुत्फ़-ए-ग़म गँवा बैठे

बे-सहारों का हौसला ही क्या
घर में घबराए दर पे आ बैठे

जब से बिछड़े वो मुस्कुराए न हम
सब ने छेड़ा तो लब हिला बैठे

हम रहे मुब्तला-ए-दैर-ओ-हरम
वो दबे पाँव दिल में आ बैठे

उठ के इक बेवफ़ा ने दे दी जान
रह गए सारे बा-वफ़ा बैठे

हश्र का दिन अभी है दूर 'ख़ुमार'
आप क्यूँ ज़ाहिदों में जा बैठे
ऐसा नहीं कि उन से मोहब्बत नहीं रही
जज़्बात में वो पहली सी शिद्दत नहीं रही

ज़ोफ़-ए-क़ुवा ने आमद-ए-पीरी की दी नवेद
वो दिल नहीं रहा वो तबीअ'त नहीं रही

सर में वो इंतिज़ार का सौदा नहीं रहा
दिल पर वो धड़कनों की हुकूमत नहीं रही

कमज़ोरी-ए-निगाह ने संजीदा कर दिया
जल्वों से छेड़-छाड़ की आदत नहीं रही

हाथों से इंतिक़ाम लिया इर्तिआश ने
दामान-ए-यार से कोई निस्बत नहीं रही

पैहम तवाफ़-ए-कूचा-ए-जानाँ के दिन गए
पैरों में चलने फिरने की ताक़त नहीं रही

चेहरे को झुर्रियों ने भयानक बना दिया
आईना देखने की भी हिम्मत नहीं रही

अल्लाह जाने मौत कहाँ मर गई 'ख़ुमार'
अब मुझ को ज़िंदगी की ज़रूरत नहीं रही

ख़ुमार बाराबंकवी

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