Friday, February 21, 2025

गुलज़ार (ग़ज़ल, शेर, शायरी)

दिन कुछ ऐसे गुज़ारता है कोई

जैसे एहसाँ उतारता है कोई


दिल में कुछ यूँ सँभालता हूँ ग़म

जैसे ज़ेवर सँभालता है कोई


आइना देख कर तसल्ली हुई

हम को इस घर में जानता है कोई


पेड़ पर पक गया है फल शायद

फिर से पत्थर उछालता है कोई


देर से गूँजते हैं सन्नाटे

जैसे हम को पुकारता है कोई

 

*

गुलों को सुनना ज़रा तुम सदाएँ भेजी हैं

 

गुलों के हाथ बहुत सी दुआएँ भेजी हैं

 

सियाह रंग चमकती हुई कनारी है

 

पहन लो अच्छी लगेंगी घटाएँ भेजी हैं

 

*

एक पर्वाज़ दिखाई दी है

 

तेरी आवाज़ सुनाई दी है

 

ज़िंदगी पर भी कोई ज़ोर नहीं

दिल ने हर चीज़ पराई दी है

*

बे-सबब मुस्कुरा रहा है चाँद

 

कोई साज़िश छुपा रहा है चाँद

 

जाने किस की गली से निकला है

झेंपा झेंपा सा रहा है चाँद

*

बीते रिश्ते तलाश करती है

 

ख़ुशबू ग़ुंचे तलाश करती है

 

जब गुज़रती है उस गली से सबा

ख़त के पुर्ज़े तलाश करती है

*

ख़ुशबू जैसे लोग मिले अफ़्साने में

एक पुराना ख़त खोला अनजाने में

 

शाम के साए बालिश्तों से नापे हैं

चाँद ने कितनी देर लगा दी आने में

*

ज़िंदगी यूँ हुई बसर तन्हा

 

क़ाफ़िला साथ और सफ़र तन्हा

 

अपने साए से चौंक जाते हैं

 

उम्र गुज़री है इस क़दर तन्हा

 

*

शाम से आँख में नमी सी है

आज फिर आप की कमी सी है

दफ़्न कर दो हमें कि साँस आए

नब्ज़ कुछ देर से थमी सी है

*

मैं चुप कराता हूँ हर शब उमडती बारिश को

मगर ये रोज़ गई बात छेड़ देती है

*

ख़ुशबू जैसे लोग मिले अफ़्साने में

एक पुराना ख़त खोला अनजाने में


शाम के साए बालिश्तों से नापे हैं

चाँद ने कितनी देर लगा दी आने में


रात गुज़रते शायद थोड़ा वक़्त लगे

धूप उन्डेलो थोड़ी सी पैमाने में


जाने किस का ज़िक्र है इस अफ़्साने में

दर्द मज़े लेता है जो दोहराने में


दिल पर दस्तक देने कौन आ निकला है

किस की आहट सुनता हूँ वीराने में


हम इस मोड़ से उठ कर अगले मोड़ चले

उन को शायद उम्र लगेगी आने में

*

एक ही ख़्वाब ने सारी रात जगाया है

मैं ने हर करवट सोने की कोशिश की

*

दिल पर दस्तक देने कौन आ निकला है

किस की आहट सुनता हूँ वीराने में

*

सो देख कर तिरे रुख़्सार ओ लब यक़ीं आया

कि फूल खिलते हैं गुलज़ार के अलावा भी

*

अपने साए से चौंक जाते हैं

उम्र गुज़री है इस क़दर तन्हा

*
हाथ छूटें भी तो रिश्ते नहीं छोड़ा करते
वक़्त की शाख़ से लम्हे नहीं तोड़ा करते

*

देर से गूँजते हैं सन्नाटे

जैसे हम को पुकारता है कोई

*

शाम से आँख में नमी सी है

आज फिर आप की कमी सी है


दफ़्न कर दो हमें कि साँस आए

नब्ज़ कुछ देर से थमी सी है


कौन पथरा गया है आँखों में

बर्फ़ पलकों पे क्यूँ जमी सी है


वक़्त रहता नहीं कहीं टिक कर

आदत इस की भी आदमी सी है


आइए रास्ते अलग कर लें

ये ज़रूरत भी बाहमी सी है


*


 

-गुलज़ार


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