Friday, February 21, 2025

साहिर लुधियानवी - ग़ज़ल, शायरी

ये ज़ुल्फ़ अगर खुल के बिखर जाए तो अच्छा

इस रात की तक़दीर संवर जाए तो अच्छा

जिस तरह से थोड़ी सी तिरे साथ कटी है
बाक़ी भी उसी तरह गुज़र जाए तो अच्छा

दुनिया की निगाहों में भला क्या है बुरा क्या
ये बोझ अगर दिल से उतर जाए तो अच्छा

वैसे तो तुम्हीं ने मुझे बरबाद किया है
इल्ज़ाम किसी और के सर जाए तो अच्छा

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मैं ज़िंदगी का साथ निभाता चला गया
हर फ़िक्र को धुएं में उड़ाता चला गया

बर्बादियों का सोग मनाना फ़ुज़ूल था
बर्बादियों का जश्न मनाता चला गया

जो मिल गया उसी को मुक़द्दर समझ लिया
जो खो गया मैं उस को भुलाता चला गया

ग़म और ख़ुशी में फ़र्क़ न महसूस हो जहां
मैं दिल को उस मक़ाम पे लाता चला गया

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दूर रह कर न करो बात क़रीब आ जाओ
याद रह जाएगी ये रात क़रीब आ जाओ

एक मुद्दत से तमन्ना थी तुम्हें छूने की
आज बस में नहीं जज़्बात क़रीब आ जाओ

सर्द झोंकों से भड़कते हैं बदन में शो'ले
जान ले लेगी ये बरसात क़रीब आ जाओ

इस क़दर हम से झिजकने की ज़रूरत क्या है
ज़िंदगी भर का है अब साथ क़रीब आ जाओ


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न तू ज़मीं के लिए है न आसमाँ के लिए
तिरा वजूद है अब सिर्फ़ दास्ताँ के लिए

पलट के सू-ए-चमन देखने से क्या होगा
वो शाख़ ही न रही जो थी आशियाँ के लिए

ग़रज़-परस्त जहाँ में वफ़ा तलाश न कर
ये शय बनी थी किसी दूसरे जहाँ के लिए


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निगाह-ए-नाज़ के मारों का हाल क्या होगा
न बच सके तो बेचारों का हाल क्या होगा

हमीं ने इश्क़ के क़ाबिल बना दिया है तुम्हें
हमीं न हों तो नज़ारों का हाल क्या होगा

हमारे हुस्न की बिजली चमकने वाली है
न जाने आज हज़ारों का हाल क्या होगा

बहार-ए-हुस्न सलामत ख़िज़ाँ से पूछ ज़रा
कि चार दिन में बहारों का हाल क्या होगा

हम अपने चेहरे से पर्दा उठा तो दें लेकिन
ग़रीब चाँद-सितारों का हाल क्या होगा


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इश्क़ की गर्मी-ए-जज़्बात किसे पेश करूँ
ये सुलगते हुए दिन-रात किसे पेश करूँ

हुस्न और हुस्न का हर नाज़ है पर्दे में अभी
अपनी नज़रों की शिकायात किसे पेश करूँ

तेरी आवाज़ के जादू ने जगाया है जिन्हें
वो तसव्वुर वो ख़यालात किसे पेश करूँ

ऐ मिरी जान-ए-ग़ज़ल ऐ मिरी ईमान-ए-ग़ज़ल
अब सिवा तेरे ये नग़्मात किसे पेश करूँ

कोई हमराज़ तो पाऊँ कोई हमदम तो मिले
दिल की धड़कन के इशारात किसे पेश करूँ

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तुम हुस्न की ख़ुद इक दुनिया हो 
शायद ये तुम्हें मालूम नहीं
महफ़िल में तुम्हारे आने से 
हर चीज़ पे नूर आ जाता है

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मिलती है ज़िंदगी में मोहब्बत कभी कभी
होती है दिलबरों की इनायत कभी कभी

शर्मा के मुँह न फेर नज़र के सवाल पर
लाती है ऐसे मोड़ पे क़िस्मत कभी कभी

खुलते नहीं हैं रोज़ दरीचे बहार के
आती है जान-ए-मन ये क़यामत कभी कभी

तन्हा न कट सकेंगे जवानी के रास्ते
पेश आएगी किसी की ज़रूरत कभी कभी

फिर खो न जाएँ हम कहीं दुनिया की भीड़ में
मिलती है पास आने की मोहलत कभी कभी

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