जाने कौन से कल की तलाश में
आज जाग जाग कर पढ़ रहा हूं
प्रेम की कविताएं।
दूसरों की व्यथाएं जानकर
उसे अपना ही साथी मानकर
जीना चाहता हूं अतीत
मन है बहुत व्यथित
फीकी हो चुकी है
प्रेम की धानी चुनरिया
ना जाने किस स्वरूप में
है वो पतली कमरिया।
फिर भी पढ़ रहा हूं
कुछ वादे
हरश्रृंगार से महकते
और कुछ इरादे
अंगार से दहकते।
पढ़ रहा हूं मिलन के गीत
चुभन के साथ
पढ़ रहा हूं जिस्म का पिघलना
पहली छूअन के साथ।
पढ़ रहा हूं कुछ प्रेमपत्र
फिर सिसलेवार
पढ़ रहा हूं कब हुई प्रीत
कब उठा ऐतबार।
पढ़ रहा हूं कि फिर उठी है
प्रेम पढ़ने की भूख
पढ़ रहा हूं कि फिर उठी है
तुझे पाने की हूक।
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