Monday, July 3, 2023

तुम कहते हो कि तुम कुछ भी नहीं

तुम कहते हो कि तुम कुछ भी नहीं

क्यूँ तुमसे नजर मिलते ही जुगनू से चमक जाते हैं मेरी बुझी बुझी सी आँखों में 
क्यूँ तुम्हें अपने पास महसूस कर तितलियाँ सी उड़ने लगती हैं सारे बदन में 
क्यूँ तुम्हारे साथ जिये हुये वो अंतहीन लम्हे भर जाते हैं एक समंदर सा ज्वार 
तुम्हारे तन की खुश्बू क्यूँ चिपट कर रह जाती है मुझसे मेरे आँचल की तरह 
मेरे मलिन मुखड़े पर टाँक जाती है गुलाब की रंगत एक लजीली दुल्हन सी 
संदली हवा बनकर आना और फिर मेरे इर्द गिर्द ही ठहर कर रह जाना तेरा। 
गिरा कर लाज का घूंघट मेरा चुपके से, मुझ पर सोलहवाँ बसन्त बिखरा जाना 
करा जाता है एहसास तेरे होने का मुझमें या फिर मैं ही तिल तिल कर घुल रही तुझमें 
मैं जड़ हो गयी जिन्दगी को फिर से घसीट कर चल पड़ती हूँ तेरी परछाँई को थाम हौले से। 
कुछ तो है तुम में सबसे अलग 
और तुम कहते हो कि तुम कुछ भी नहीं। 

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