तुम कहते हो कि तुम कुछ भी नहीं
क्यूँ तुमसे नजर मिलते ही जुगनू से चमक जाते हैं मेरी बुझी बुझी सी आँखों में
क्यूँ तुम्हें अपने पास महसूस कर तितलियाँ सी उड़ने लगती हैं सारे बदन में
क्यूँ तुम्हारे साथ जिये हुये वो अंतहीन लम्हे भर जाते हैं एक समंदर सा ज्वार
तुम्हारे तन की खुश्बू क्यूँ चिपट कर रह जाती है मुझसे मेरे आँचल की तरह
मेरे मलिन मुखड़े पर टाँक जाती है गुलाब की रंगत एक लजीली दुल्हन सी
संदली हवा बनकर आना और फिर मेरे इर्द गिर्द ही ठहर कर रह जाना तेरा।
गिरा कर लाज का घूंघट मेरा चुपके से, मुझ पर सोलहवाँ बसन्त बिखरा जाना
करा जाता है एहसास तेरे होने का मुझमें या फिर मैं ही तिल तिल कर घुल रही तुझमें
मैं जड़ हो गयी जिन्दगी को फिर से घसीट कर चल पड़ती हूँ तेरी परछाँई को थाम हौले से।
कुछ तो है तुम में सबसे अलग
और तुम कहते हो कि तुम कुछ भी नहीं।
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