दफ्तर से मिल नहीं रही छुट्टी वरना मैं,
बारिश की एक बूँद न बेकार जाने दूँ.
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याद आई वो पहली बारिश,
जब तुझे एक नज़र देखा था.
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मैं चुप कराता हूँ हर शब उमड़ती बारिश को,
मगर ये रोज गई बात छेड़ देती है.
-गुलज़ार
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तमाम रात नहाया था शहर बारिश में,
वो रंग उतर ही गए जो उतरने वाले थे.
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मैं कि कागज़ की एक कश्ती हूँ,
पहली बारिश ही आखिरी है मुझे.
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