आशु तो कुछ भी नहीं आसूँ के सिवा, जाने क्यों लोग इसे पलकों पे बैठा लेते हैं।
वो माथे का मतला हो कि होंठों के दो मिसरे बचपन की ग़ज़ल ही मेरी महबूब रही है
हम दिल्ली भी हो आये हैं लाहौर भी घूमे ऐ यार मगर तेरी गली तेरी गली है
~ बशीर बद्र
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