आँखों का था क़ुसूर न दिल का क़ुसूर था
आया जो मेरे सामने मेरा ग़ुरूर था
वो थे न मुझसे दूर न मैं उनसे दूर था
आता न था नज़र को नज़र का क़ुसूर था
कोई तो दर्दमंदे-दिले-नासुबूर* था (*दर्दमंदे-दिले-नासुबूर - अधीर हृदय का हितैषी)
माना कि तुम न थे, कोई तुम-सा ज़रूर था
लगते ही ठेस टूट गया साज़े-आरज़ू* (*साज़े-आरज़ू - अभिलाषा रूपी साज़)
मिलते ही आँख शीशा-ए-दिल चूर-चूर था
ऐसा कहाँ बहार में रंगीनियों का जोश
शामिल किसी का ख़ूने-तमन्ना* ज़रूर था (*ख़ूने-तमन्ना - आकांक्षा का ख़ून)
साक़ी की चश्मे-मस्त का क्या कीजिए बयान
इतना सुरूर था कि मुझे भी सुरूर था
जिस दिल को तुमने लुत्फ़ से अपना बना लिया
उस दिल में इक छुपा हुआ नश्तर ज़रूर था
देखा था कल ‘जिगर’ को सरे-राहे-मैकदा* (*सरे-राहे-मैकदा - मधुशाला के रास्ते में)
इस दर्ज़ा पी गया था कि नश्शे में चूर थाजिगर मुरादाबादी
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