हर तिथि है त्योहार प्यार का
इसे हुलसने दो।
जीवन के निर्झर प्रवाह में
तन-मन बहने दो।
जिसके होने से जीवन जीवन-सा लगता है
छंद धरा का महाकाव्य-सा मोहक लगता है
चाहों के बादल बोते हैं सीपों में मोती
मन का सागर शंख-सरीखा बजता रहता है
प्यार रहे जीवन में तो फिर चिर वसंत होता
प्यार न हो तो मोती-माणिक धूलसदृश होता
प्यार न हो तो यह सारा जग बैरागी हो जाए
प्यार रहे तो मरुथल भी जैसे बगिया बन जाए
प्यार दिलों की धड़कन में कुछ ऐसे पलता है
मंद मंद सांसों में मलयानिल - सा बहता है
प्रणयी जन की आकुलता का छोर नहीं होता
सांझ न होती, रात न होती, भोर नहीं होता
अभी धरा पर मारकाट की दुनिया कायम है
नाजी संहारों की यादें मन में कायम हैं
अभी नस्लवादी सत्ताएं दुनिया भर में हैं
अभी प्रेम की भव बाधाएं सचमुच कायम हैं
प्रेम सृष्टि का मूल प्रेम से निर्मित यह दुनिया
ताल छंद में गाता हो ज्यों कोई निरगुनिया
छंद जहां च्युत होता, यति-गति सभी उलट जाती
पल भर में तलवारें खिंचतीं, सृष्टि सिहर जाती
जीवन में स्फीति बहुत है , सार बहुत कम है
ऊँच नीच के रार बहुत हैं, प्यार बहुत कम है
रूठी रूठी सी लगती है कभी कभी दुनिया
मान बहुत उसमें है पर मनुहार बहुत कम है
इसको नित सींचो तुलसी को देते ज्यों पानी
इसकी गुलमेंहदी - सी आभा, रंग इसका धानी
इसका मन मारुत-सा चंचल इसका वेग प्रवाही
इसकी छाया में सजती है मौसम की तरुणाई
इसे पनपने दो धरती पर
इसे बिहँसने दो
कल्पवृक्ष है यह जीवन का
इसे सँवरने दो।
No comments:
Post a Comment