वो एक सफ़र ईज़ाद का था,या हिजरत थी,
जो रस्ता शहर से निकला,इक मैदान हुआ।
मैं राख़ हुआ तो सोग की कोई बात नहीं,
उस ख़ाक़ पे मेरे वस्ल का दिन आसान हुआ।
वो शख़्स कि मेरे नाम से जिसको नफ़रत थी,
मैं छोड़ आया तो रो-रो कर हलकान हुआ।
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment