Thursday, April 30, 2020
अंजान साथी
जिनकी उम्मीद में सजोता हूँ जिंदगी...
बस फिर वही बिखेर जाते हैं जिंदगी...
पूरी करनी है ये यात्रा साथ मिल के साथी!!
बीच सफ़र में कही हाथ छोड़ ना देना साथी!!
अनजान कही दूर चाहता हूँ एक ठहराव साथी!!
बाते मेरी सुन कही मौत ही ना आ जाये साथी!!
दिन फीका-फीका लगता है
दिन फीका-फीका लगता है
फीकी सँझबाती
जाने क्या हो गया इन दिनों
नींद नहीं आती।
ऐसा मौन मुखर जीवन में
कभी नहीं दीखा
बहते हुए दर्द का लावा
भीतर ही चीखा
छूटे कामकाज जब से
बिछड़े सुख के साथी।
घर-दुआर है दूर
कि जाना बेहद कठिन हुआ
एक वक्त का भोजन भी
मिल पाना कठिन हुआ
झेल सकेगा वही कि
जिसकी बज्जर-सी छाती।
कुछ बीमारी खा जाएगी
बाकी को सरकार
कुछ को खड़े निगल जाएगी
यह मंदी की मार
कौन जलाएगा तब आखिर
दिया और बाती।
चेती नहीं अभी दुनिया गर
वह दिन नहीं है दूर
खाकर के सल्फास मरेगा
अब किसान-मजदूर
रह जाएगी दुनिया
दुख की चौपाई गाती।
नारी तुम मौन न बैठो तुम शक्ति और काली हो।
नारी तुम मौन न बैठो तुम शक्ति और काली हो।
ममता की मूरत हो तुम तुम्ही पालन हारी हो।
तुम ही सती सन्यासी हो तुम्ही धरा धारी हो।
तुम शक्ति संसार की हो सब तुमसे ही प्रारंभ है।
बरस रहा अन्याय तुम पर ये धरा की लाचारी है।
फिर भी तुम शांत हो बैठी ये पहचान तुम्हारी है।
माता बनकर दूध से इस संसार को तुमने सींचा है।
फिर बनी बहन किया तिलक संसार को तुमने जीता है।
आइ बारी त्याग की जब पत्नी बनकर दिखलाया है।
हर मार्ग और पथ पथ पर तुमने साथ निभाया है।
मानवता शर्मसार हो रही ऐसे कुकृत दृश्यों से।
धितकार है ऐसे सपूतो पे जो निर्लज से बैठे है।
भूल गए सम्मान तुम्हारा भूल गए मानवता है।
उठो अब तुम आत्मरक्षा को भूल नियम कानून को।
एक बार फिर दिखलाओ अपने चंडी रूप को।
नारी तुम मौन न बैठो तुम शक्ति और काली हो।
तुम्ही मनु तुम्ही दुर्गावती और तुम्ही क्षत्राणी हो।
उधर हमें भी है धुन आशियाँ बनाने की
अगरचे ज़ोर हवाओं ने डाल रक्खा है
मगर चराग़ ने लौ को संभाल रक्खा है
- अहमद फ़राज़
यहाँ लिबास की क़ीमत है आदमी की नहीं
मुझे गिलास बड़े दे शराब कम कर दे
- बशीर बद्र
इधर फ़लक को है ज़िद बिजलियाँ गिराने की
उधर हमें भी है धुन आशियाँ बनाने की
- अज्ञात
किसी को घर से निकलते ही मिल गई मंज़िल
कोई हमारी तरह उम्र भर सफ़र में रहा
- अहमद फ़राज़
Wednesday, April 29, 2020
ना जाने इस दुनिया में ये कैसी खामौशी सी छाई है
ना जाने इस दुनिया में ये कैसी खामोशी सी छाई है
अपने ही दरवाज़े पे खड़े लगता है मानो "मैयत" सी छाई है
जिन गलियों में दिन भर बच्चों की खिल-खिलाने की आहटे थी
आज ना जाने वहां कैसी खामौशी सी छाई है
पता नहीं क्या हो रहा है दुनिया में
ना जाने कैसी ये तबाही है
ढूंढ रहा हूं खड़े अपने दरवाज़े पे वो खिल-खिलाहटे
मगर ना जाने ये कैसी खामौशी सी छाई है
कुछ यूं आसमान को देख कर खुदा से ये पुंछ रहा हूं मैं
कि गुनाह हुआ होगा किसी एक से तो सज़ा सबने क्यों पाई है
ना जाने इस दुनिया में ये कैसी खामौशी सी छाई है
रात शायरी
ये सर्द रात ये आवारगी ये नींद का बोझ
हम अपने शहर में होते तो घर चले जाते
- उम्मीद फ़ाज़ली
बहुत दिनों में मोहब्बत को ये हुआ मा'लूम
जो तेरे हिज्र में गुज़री वो रात रात हुई
- फ़िराक़ गोरखपुरी
रात को जीत तो पाता नहीं लेकिन ये चराग़
कम से कम रात का नुक़सान बहुत करता है
- इरफ़ान सिद्दीक़ी
उम्र भर की तल्ख़ बेदारी का सामाँ हो गईं
हाए वो रातें कि जो ख़्वाब-ए-परेशाँ हो गईं
- अख़्तर शीरानी
इक उम्र कट गई है तिरे इंतिज़ार में
ऐसे भी हैं कि कट न सकी जिन से एक रात
- फ़िराक़ गोरखपुरी
रात को रात हो के जाना था
ख़्वाब को ख़्वाब हो के देखते हैं
- अभिषेक शुक्ला
रेत पर रात ज़िंदगी लिक्खी
सुब्ह आ कर मिटा गईं लहरें
- मोहम्मद असदुल्लाह
ऐ रात मुझे माँ की तरह गोद में ले ले
दिन भर की मशक़्क़त से बदन टूट रहा है
- तनवीर सिप्रा
ये तन्हा रात ये गहरी फ़ज़ाएँ
उसे ढूँडें कि उस को भूल जाएँ
- अहमद मुश्ताक़
मिरी नज़र में वही मोहनी सी मूरत है
ये रात हिज्र की है फिर भी ख़ूब-सूरत है
- ख़लील-उर-रहमान आज़मी
हिचकियाँ रात दर्द तन्हाई
आ भी जाओ तसल्लियाँ दे दो
- नासिर जौनपुरी
इब्तिदा-ए-इश्क़ है रोता है क्या व अन्य गजल
इब्तिदा-ए-इश्क़ है रोता है क्या
आगे-आगे देखिये होता है क्या
क़ाफ़िले में सुबह के इक शोर है
यानी ग़ाफ़िल हम चले सोता है क्या
सब्ज़ होती ही नहीं ये सरज़मीं
तुख़्मे-ख़्वाहिशदिल में तू बोता है क्या
ये निशान-ऐ-इश्क़ हैं जाते नहीं
दाग़ छाती के अबसधोता है क्या
ग़ैरते-युसूफ़ है ये वक़्त ऐ अजीज़
'मीर' इस को रायेग़ाँ खोता है क्या
इब्तिदा-ऐ-इश्क: इश्क की शुरुआत
ग़ाफ़िल- अनभिज्ञ
तुख़्मे-ख़्वाहिश: इच्छाओं के बीज
अबस- बिन प्रयोजन
रायेग़ाँ- व्यर्थ
हमारे आगे तेरा जब किसी ने नाम लिया...
हमारे आगे तेरा जब किसी ने नाम लिया
दिल-ए-सितम-ज़दा को हमने थाम-थाम लिया
ख़राब रहते थे मस्जिद के आगे मयख़ाने
निगाह-ए-मस्त ने साक़ी की इंतक़ाम लिया
वो कज-रविश न मिला मुझसे रास्ते में कभू
न सीधी तरहा से उसने मेरा सलाम लिया
मेरे सलीक़े से मेरी निभी मोहब्बत में
तमाम उम्र मैं नाकामियों से काम लिया
अगरचे गोशा-गुज़ीं हूँ मैं शाइरों में 'मीर'
प' मेरे शोर ने रू-ए-ज़मीं तमाम किया.
जो तू ही सनम हम से बेज़ार होगा...
जो तू ही सनम हम से बेज़ार होगा
तो जीना हमें अपना दुशवार होगा
ग़म-ए-हिज्र रखेगा बेताब दिल को
हमें कुढ़ते-कुढ़ते कुछ आज़ार होगा
जो अफ़्रात-ए-उल्फ़त है ऐसा तो आशिक़
कोई दिन में बरसों का बिमार होगा
उचटती मुलाक़ात कब तक रहेगी
कभू तो तह-ए-दिल से भी यार होगा
तुझे देख कर लग गया दिल न जाना
के इस संगदिल से हमें प्यार होगा.
पत्ता पत्ता बूटा बूटा हाल हमारा जाने है
जाने न जाने गुल ही न जाने बाग़ तो सारा जाने है.
-नाज़ुकी उस के लब की क्या कहिए
पंखुड़ी इक गुलाब की सी है.
-दिल की वीरानी का क्या मज़कूर है
ये नगर सौ मर्तबा लूटा गया.
-कोई तुम सा भी काश तुम को मिले
मुद्दआ हम को इंतिक़ाम से है.
-बेवफ़ाई पे तेरी जी है फ़िदा
क़हर होता जो बा-वफ़ा होता.
आने वाला पल कुछ ऐसे जायेगा
आने वाला पल कुछ ऐसे जायेगा
लाख बुलाओगे तुम, पर वो पल न आयेगा।
जो छोटी-छोटी खुशियाँ हैं
उन्हें आपस में बांट लो तुम,
रोते को हँसा दो तुम
गिरते को संभालों तुम
ग़र कल न रहोगे तुम
उन्हें कौन हँसायेगा?
आने वाला पल कुछ ऐसे जायेगा।
जो रूठे हैं तुमसे
उनको मना लो तुम,
जो बिछड़ गये हैं तुमसे
उनको तलाशों तुम,
ग़र कल न रहोगे तुम
उन्हें कौन मनायेगा?
आने वाला पल कुछ ऐसे जायेगा।
जो दूर हैं तुमसे
उन्हें आवाज़ लगा लो तुम,
देकर तुम आवाज़
उन्हें पास बुला लो तुम,
ग़र कल न रहोगे तुम
उन्हें कौन बुलायेगा?
आने वाला पल कुछ ऐसे जायेगा।
जो बेटा कहकर तुम्हें पुकारें
उनका दिल न दुखाना तुम
जीवन में कभी मात-पिता को
ना ठुकराना तुम,
ग़र कल न रहेंगे वो
तब बेटा कहकर,
तुम्हें कौन पुकारेगा?
आने वाला पल कुछ ऐसे जायेगा,
लाख बुलाओगे तुम, पर वो पल न आएगा।
क्या दुख है समुंदर को बता भी नहीं सकता
क्या दुख है समुंदर को बता भी नहीं सकता
आँसू की तरह आँख तक आ भी नहीं सकता
तू छोड़ रहा है तो ख़ता इस में तिरी क्या
हर शख़्स मिरा साथ निभा भी नहीं सकता
प्यासे रहे जाते हैं ज़माने के सवालात
किस के लिए ज़िंदा हूँ बता भी नहीं सकता
घर ढूँड रहे हैं मिरा रातों के पुजारी
मैं हूँ कि चराग़ों को बुझा भी नहीं सकता
वैसे तो इक आँसू ही बहा कर मुझे ले जाए
ऐसे कोई तूफ़ान हिला भी नहीं सकता
Tuesday, April 28, 2020
अहमद फ़राज़ की शायरी
दिल भी पागल है कि उस शख़्स से वाबस्ता है,
जो किसी और का होने दे न अपना रक्खे...
तड़प उठूं भी तो ज़ालिम तेरी दुहाई न दूं
मैं ज़ख़्म ज़ख़्म हूं फिर भी तुझे दिखाई न दूं
तेरे बदन में धड़कने लगा हूं दिल की तरह
ये और बात के अब भी तुझे सुनाई न दूं
ख़ुद अपने आपको परखा तो ये नदामत है
के अब कभी उसे इल्ज़ाम-ए-बेवफ़ाई न दूं
मुझे भी ढूँढ कभी मह्व-ए-आईनादारी
मैं तेरा अक़्स हूँ लेकिन तुझे दिखाई न दूं
दोस्त बन कर भी नहीं साथ निभाने वाला...
दोस्त बन कर भी नहीं साथ निभानेवाला
वही अन्दाज़ है ज़ालिम का ज़मानेवाला
अब उसे लोग समझते हैं गिरफ़्तार मेरा
सख़्त नादिम है मुझे दाम में लानेवाला
सुबह-दम छोड़ गया निक़हते-गुल की सूरत
रात को ग़ुंचा-ए-दिल में सिमट आने वाला
क्या कहें कितने मरासिम थे हमारे उससे
वो जो इक शख़्स है मुंह फेर के जानेवाला
तेरे होते हुए आ जाती थी सारी दुनिया
आज तन्हा हूं तो कोई नहीं आनेवाला
मुंतज़िर किसका हूं टूटी हुई दहलीज़ पे मैं
कौन आयेगा यहाँ कौन है आनेवाला
मैंने देखा है बहारों में चमन को जलते
है कोई ख़्वाब की ताबीरबतानेवाला
क्या ख़बर थी जो मेरी जान में घुला है इतना
है वही मुझ को सर-ए-दार भी लाने वाला
तुम तक़ल्लुफ़ को भी इख़लास समझते हो "फ़राज़"
दोस्त होता नहीं हर हाथ मिलानेवाला.
सुना है लोग उसे आंख भर के देखते हैं...
सुना है लोग उसे आंख भर के देखते हैं
सो उसके शहर में कुछ दिन ठहर के देखते हैं
सुना है रब्त है उसको ख़राब हालों से
सो अपने आप को बरबाद कर के देखते हैं
सुना है दर्द की गाहक है चश्म-ए-नाज़ उसकी
सो हम भी उसकी गली से गुज़र के देखते हैं
सुना है उसको भी है शेर-ओ-शायरी से शगफ़
सो हम भी मोजज़े अपने हुनर के देखते हैं
सुना है बोले तो बातों से फूल झड़ते हैं
ये बात है तो चलो बात कर के देखते हैं
सुना है रात उसे चांद तकता रहता है
सितारे बाम-ए-फ़लक से उतर के देखते हैं
सुना है हश्र हैं उसकी ग़ज़ाल सी आंखें
सुना है उस को हिरन दश्त भर के देखते हैं
सुना है दिन को उसे तितलियांसताती हैं
सुना है रात को जुगनू ठहर के देखते हैं
सुना है रात से बढ़ कर हैं काकुलें उसकी
सुना है शाम को साये गुज़र के देखते हैं
सुना है उसकी सियाह चश्मगी क़यामत है
सो उसको सुरमाफ़रोश आह भर के देखते हैं
सुना है उसके लबों से गुलाब जलते हैं
सो हम बहार पर इल्ज़ाम धर के देखते हैं
सुना है आईना तमसाल है जबीं उसकी
जो सादा दिल हैं उसे बन संवर के देखते हैं
सुना है जब से हमाइल हैं उसकी गर्दन में
मिज़ाज और ही लाल-ओ-गौहर के देखते हैं
सुना है चश्म-ए-तसव्वुर से दश्त-ए-इम्काँ में
पलंग ज़ाविए उसकी कमर के देखते हैं
सुना है उसके बदन के तराश ऐसे हैं
के फूल अपनी क़बायें कतर के देखते हैं
वो सर-ओ-कद है मगर बे-गुल-ए-मुराद नहीं
के उस शजर पे शगूफ़े समर के देखते हैं
बस एक निगाह से लुटता है क़ाफ़िला दिल का
सो रहर्वान-ए-तमन्ना भी डर के देखते हैं
सुना है उसके शबिस्तान से मुत्तसिल है बहिश्त
मकीन उधर के भी जलवे इधर के देखते हैं
रुके तो गर्दिशें उसका तवाफ़ करती हैं
चले तो उसको ज़माने ठहर के देखते हैं
किसे नसीब के बे-पैरहन उसे देखे
कभी-कभी दर-ओ-दीवार घर के देखते हैं
कहानियां हीं सही सब मुबालग़े ही सही
अगर वो ख़्वाब है ताबीर कर के देखते हैं
अब उसके शहर में ठहरें कि कूच कर जाएं
फ़राज़ आओ सितारे सफ़र के देखते हैं
अभी कुछ और करिश्मे ग़ज़ल के देखते हैं
फ़राज़ अब ज़रा लहजा बदल के देखते हैं
जुदाइयां तो मुक़द्दर हैं फिर भी जाने सफ़र
कुछ और दूर ज़रा साथ चलके देखते हैं
रह-ए-वफ़ा में हरीफ़-ए-खुराम कोई तो हो
सो अपने आप से आगे निकल के देखते हैं
तू सामने है तो फिर क्यों यकीं नहीं आता
यह बार बार जो आँखों को मल के देखते हैं
ये कौन लोग हैं मौजूद तेरी महफिल में
जो लालचों से तुझे, मुझे जल के देखते हैं
यह कुर्ब क्या है कि यकजाँ हुए न दूर रहे
हज़ार इक ही कालिब में ढल के देखते हैं
न तुझको मात हुई न मुझको मात हुई
सो अबके दोनों ही चालें बदल के देखते हैं
यह कौन है सर-ए-साहिल कि डूबने वाले
समन्दरों की तहों से उछल के देखते हैं
अभी तलक तो न कुंदन हुए न राख हुए
हम अपनी आग में हर रोज़ जल के देखते हैं
बहुत दिनों से नहीं है कुछ उसकी ख़ैर ख़बर
चलो फ़राज़ को ऐ यार चल के देखते हैं.
सिलसिले तोड़ गया वो सभी जाते-जाते...
सिलसिले तोड़ गया वो सभी जाते-जाते
वरना इतने तो मरासिम थे कि आते-जाते
शिकवा-ए-जुल्मते-शब से तो कहीं बेहतर था
अपने हिस्से की कोई शमअ जलाते जाते
कितना आसां था तेरे हिज्र में मरना जाना
फिर भी इक उम्र लगी जान से जाते-जाते
जश्न-ए-मक़्तल ही न बरपा हुआ वरना हम भी
पा बजोलां ही सहीं नाचते-गाते जाते
उसकी वो जाने, उसे पास-ए-वफ़ा था कि न था
तुम 'फ़राज़' अपनी तरफ से तो निभाते जाते.
साथ रोती थी मेरे साथ हंसा करती थी...
साथ रोती थी मेरे साथ हंसा करती थी
वो लड़की जो मेरे दिल में बसा करती थी
मेरी चाहत की तलबगार थी इस दर्जे की
वो मुसल्ले पे नमाज़ों में दुआ करती थी
एक लम्हे का बिछड़ना भी गिरां था उसको
रोते हुए मुझको ख़ुद से जुदा करती थी
मेरे दिल में रहा करती थी धड़कन बनकर
और साये की तरह साथ रहा करती थी
रोग दिल को लगा बैठी अंजाने में
मेरी आगोश में मरने की दुआ करती थी
बात क़िस्मत की है ‘फ़राज़’ जुदा हो गए हम
वरना वो तो मुझे तक़दीर कहा करती थी.
रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ
आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ
अहमद फ़राज के चंद फुटकर शेर:
-अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें.
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें
-दिल को तिरी चाहत पे भरोसा भी बहुत है
और तुझ से बिछड़ जाने का डर भी नहीं जाता.
-किस किस को बताएंगे जुदाई का सबब हम
तू मुझ से ख़फ़ा है तो ज़माने के लिए आ.
-तुम तकल्लुफ़ को भी इख़्लास समझते हो 'फ़राज़'
दोस्त होता नहीं हर हाथ मिलाने वाला
-ज़िंदगी से यही गिला है मुझे
तू बहुत देर से मिला है मुझे.
-आंख से दूर न हो दिल से उतर जाएगा
वक़्त का क्या है गुज़रता है गुज़र जाएगा
-अगर तुम्हारी अना ही का है सवाल तो फिर
चलो मैं हाथ बढ़ाता हूँ दोस्ती के लिए.
-इस से पहले कि बे-वफ़ा हो जाएं
क्यों न ऐ दोस्त हम जुदा हो जाएं.
-और 'फ़राज़' चाहिएं कितनी मोहब्बतें तुझे
माओं ने तेरे नाम पर बच्चों का नाम रख दिया.
-अब और क्या किसी से मरासिम बढ़ाएं हम
ये भी बहुत है तुझ को अगर भूल जाएं हम.
-बंदगी हम ने छोड़ दी है 'फ़राज़'
क्या करें लोग जब ख़ुदा हो जाएं.
-इस क़दर मुसलसल थीं शिद्दतें जुदाई की
आज पहली बार उस से मैं ने बेवफ़ाई की.
-उम्र भर कौन निभाता है तअल्लुक़ इतना
ऐ मिरी जान के दुश्मन तुझे अल्लाह रक्खे.
आवाज शायरी
मौत ख़ामोशी है चुप रहने से चुप लग जाएगी
ज़िंदगी आवाज़ है बातें करो बातें करो
- अहमद मुश्ताक़
ख़ुदा की उस के गले में अजीब क़ुदरत है
वो बोलता है तो इक रौशनी सी होती है
- बशीर बद्र
अल्फ़ाज़ परखता रहता है
आवाज़ हमारी तोल कभी
- गुलज़ार
लहजा कि जैसे सुब्ह की ख़ुश्बू अज़ान दे
जी चाहता है मैं तिरी आवाज़ चूम लूँ
- बशीर बद्र
बोलते रहना क्यूँकि तुम्हारी बातों से
लफ़्ज़ों का ये बहता दरिया अच्छा लगता है
- अज्ञात
धीमे सुरों में कोई मधुर गीत छेड़िए
ठहरी हुई हवाओं में जादू बिखेरिए
- परवीन शाकिर
छुप गए वो साज़-ए-हस्ती छेड़ कर
अब तो बस आवाज़ ही आवाज़ है
- असरार-उल-हक़ मजाज़
तू ने तो हर हाल में सुनना है अब तुझ को 'ज़फ़र'
रौशनी आवाज़ दे या तीरगी आवाज़ दे
- ज़फ़र इक़बाल
देती रही आवाज़ पे आवाज़ ये दुनिया
सर हम ने न फिर ख़ाक की चादर से निकाला
- असलम महमूद
कोई आया तिरी झलक देखी
कोई बोला सुनी तिरी आवाज़
- जोश मलीहाबादी
लय में डूबी हुई मस्ती भरी आवाज़ के साथ
छेड़ दे कोई ग़ज़ल इक नए अंदाज़ के साथ
- अज्ञात
हमने जब भी गुनगुनाई नेह की आसावरी
हमने जब भी गुनगुनाई नेह की आसावरी,
खुद ब खुद बहने लगी तब शब्द की गोदावरी,
एक सुखद स्पर्श पाकर गीत अनगिन हो गये,
देह तो जगती रही मन प्रान दोनों सो गये,
मुँह छिपाते ना उजाले, ना अंधेरे रीझते,
प्यार के बदले अगर तुम प्यार देना सीखते.❤️
~ डॉ विष्णु सक्सेना 😍
ये कुछ बदलाव सा अच्छा लगा है
ये कुछ बदलाव सा अच्छा लगा है
ये कुछ बदलाव सा अच्छा लगा है
हमें इक दूसरा अच्छा लगा है
समझना है उसे नज़दीक जा कर
जिसे मुझ सा बुरा अच्छा लगा है
ये क्या हर वक़्त जीने की दुआएँ
यहाँ ऐसा भी क्या अच्छा लगा है
सफ़र तो ज़िंदगी भर का है लेकिन
ये वक़्फ़ा सा ज़रा अच्छा लगा है
मिरी नज़रें भी हैं अब आसमाँ पर
कोई महव-ए-दुआ अच्छा लगा है
हुए बरबाद जिस के इश्क़ में हम
वो अब जा कर ज़रा अच्छा लगा है
वो सूरज जो मिरा दुश्मन था दिन भर
मुझे ढलता हुआ अच्छा लगा है
कोई पूछे तो क्या बतलाएँगे हम
कि इस मंज़र में क्या अच्छा लगा है
हैं अब इस फ़िक्र में डूबे हुए हम
हैं अब इस फ़िक्र में डूबे हुए हम
उसे कैसे लगे रोते हुए हम
कोई देखे न देखे सालहा-साल
हिफ़ाज़त से मगर रक्खे हुए हम
न जाने कौन सी दुनिया में गुम हैं
किसी बीमार की सुनते हुए हम
रहे जिस की मसीहाई में अब तक
उसी के चारागर होते हुए हम
गिराँ थी साए की मौजूदगी भी
अब अपने आप से सहमे हुए हम
कहाँ हैं ख़्वाब में देखे जज़ीरे
निकल आए किधर बहते हुए हम
बढ़ीं नज़दीकियाँ इस दर्जा ख़ुद से
कि अब उस का बदल होते हुए हम
रखें क्यूँकर हिसाब एक एक पल का
बला से रोज़ कम होते हुए हम
बहुत हिम्मत का है ये काम 'शारिक़'
कि शरमाते नहीं डरते हुए हम
ऐ ख़ुदा दुश्मन भी मुझ को ख़ानदानी चाहिए
सिर्फ़ ख़ंजर ही नहीं आँखों में पानी चाहिए
ऐ ख़ुदा दुश्मन भी मुझ को ख़ानदानी चाहिए
शहर की सारी अलिफ़-लैलाएँ बूढ़ी हो चुकीं
शाहज़ादे को कोई ताज़ा कहानी चाहिए
मैं ने ऐ सूरज तुझे पूजा नहीं समझा तो है
मेरे हिस्से में भी थोड़ी धूप आनी चाहिए
मेरी क़ीमत कौन दे सकता है इस बाज़ार में
तुम ज़ुलेख़ा हो तुम्हें क़ीमत लगानी चाहिए
ज़िंदगी है इक सफ़र और ज़िंदगी की राह में
ज़िंदगी भी आए तो ठोकर लगानी चाहिए
मैं ने अपनी ख़ुश्क आँखों से लहू छलका दिया
इक समुंदर कह रहा था मुझ को पानी चाहिए
फ़राग़त, फ़ुरसत शायरी
फ़राग़त से दुनिया में हर दम न बैठो
अगर चाहते हो फ़राग़त ज़ियादा
- अल्ताफ़ हुसैन हाली
इस ज़िंदगी में इतनी फ़राग़त किसे नसीब
इतना न याद आ कि तुझे भूल जाएँ हम
- अहमद फ़राज़
क्या क्या फ़राग़तें थीं मयस्सर हयात को
वो दिन भी थे कि तेरे सिवा कोई ग़म न था
- अज़ीम मुर्तज़ा
दीन ओ दुनिया का जो नहीं पाबंद
वो फ़राग़त तमाम रखता है
- ग़ुलाम यहया हुज़ूर अज़ीमाबादी
ये क्यूं कहते हो राह-ए-इश्क़ पर चलना है हम को
कहो कि ज़िंदगी से अब फ़राग़त चाहिए है
- फ़रहत नदीम हुमायूं
खुल के रो भी सकूँ और हँस भी सकूँ जी भर के
अभी इतनी भी फ़राग़त में नहीं रह सकता
- ज़फ़र इक़बाल
इक अदावत से फ़राग़त नहीं मिलती वर्ना
कौन कहता है मोहब्बत नहीं कर सकते हम
- सरफ़राज़ ज़ाहिद
ये जितने मसअले हैं मश्ग़ले हैं सब फ़राग़त के
न तुम बे-कार बैठे हो न हम बे-कार बैठे हैं
- अंजुम रूमानी
कहीं सर फोड़ के मर रहिए 'बयाँ'
इक जहाँ से तो फ़राग़त होगी
- बयान मेरठी
इन दिनों ख़ुद से फ़राग़त ही फ़राग़त है मुझे
इश्क़ भी जैसे कोई ज़ेहनी सुहुलत है मुझे
- अंजुम सलीमी
'सख़ी' रोते ही रोते दम निकल जाए
फ़राग़त हो कहीं गंगा नहाएँ
- सख़ी लख़नवी
क्या क्या फ़राग़तें थीं मयस्सर हयात को
वो दिन भी थे कि तेरे सिवा कोई ग़म न था
- अज़ीम मुर्तज़ा
Monday, April 27, 2020
चन्द सिक्के भी जरुरी हैं मदारी के लिए
सिर्फ तालियाँ उसका पेट भर नहीं सकती...
चन्द सिक्के भी जरुरी हैं मदारी के लिए ...!!
मिट्टी की ये भीनी भीनी खुश्बू
मिट्टी की ये भीनी भीनी खुश्बू
लगता है तेरे पास से होकर आई हैं।
मेरा आँचल उड़ाती ये तेज़ हवाएँ
जैसे तेरी सांसो से गुजरकर आई है।
कभी देखा है अप्रैल में भी बारिश हो रही है
ज्यों अक्षुण्ण प्रेम का सन्देश बरसा रही है।
ये बादल तेरे पास से ही होकर आये होंगे
तेरे ही जैसे ये चाँद भी बदलो में छिपा है।
माह पवन है रमजान का अक्षय तृतीय दिन
अक्षय हो प्रेम हमारा ऎसे ही मांगू यही इस दिन।
मिर्ज़ा ग़ालिब के चंद मशहूर शेर और शायरियां...
मिर्ज़ा ग़ालिब के चंद मशहूर शेर और शायरियां...
तेरे वादे पर जिये हम...
तेरे वादे पर जिये हम, तो यह जान, झूठ जाना,
कि ख़ुशी से मर न जाते, अगर एतबार होता .
वह हर एक बात पर कहना कि यों होता तो क्या होता...
न था कुछ तो ख़ुदा था, कुछ न होता तो ख़ुदा होता,
डुबोया मुझको होने ने न मैं होता तो क्या होता !
हुआ जब गम से यूँ बेहिश तो गम क्या सर के कटने का,
ना होता गर जुदा तन से तो जहानु पर धरा होता!
हुई मुद्दत कि 'ग़ालिब' मर गया पर याद आता है,
वो हर इक बात पर कहना कि यूं होता तो क्या होता !
ये हम जो हिज्र में दीवार-ओ-दर को देखते हैं...
ये हम जो हिज्र में दीवार-ओ-दर को देखते हैं
कभी सबा को, कभी नामाबर को देखते हैं
वो आए घर में हमारे, खुदा की क़ुदरत हैं!
कभी हम उमको, कभी अपने घर को देखते हैं
नज़र लगे न कहीं उसके दस्त-ओ-बाज़ू को
ये लोग क्यूँ मेरे ज़ख़्मे जिगर को देखते हैं
तेरे ज़वाहिरे तर्फ़े कुल को क्या देखें
हम औजे तअले लाल-ओ-गुहर को देखते हैं.
तुम न आए तो क्या सहर न हुई...
तुम न आए तो क्या सहर न हुई
हां मगर चैन से बसर न हुई
मेरा नाला सुना ज़माने ने
एक तुम हो जिसे ख़बर न हुई.
सहर- प्रात:
बसर- गुज़रना
नाला- रोना-धोना, शिकवा
हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले...
हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मिरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले
डरे क्यों मेरा क़ातिल क्या रहेगा उस की गर्दन पर
वो ख़ूँ जो चश्म-ए-तर से उम्र भर यूं दम-ब-दम निकले
निकलना ख़ुल्द से आदम का सुनते आए हैं लेकिन
बहुत बे-आबरू हो कर तिरे कूचे से हम निकले
भरम खुल जाए ज़ालिम तेरे क़ामत की दराज़ी का
अगर इस तुर्रा-ए-पुर-पेच-ओ-ख़म का पेच-ओ-ख़म निकले
मगर लिखवाए कोई उस को ख़त तो हम से लिखवाए
हुई सुब्ह और घर से कान पर रख कर क़लम निकले
हुई इस दौर में मंसूब मुझ से बादा-आशामी
फिर आया वो ज़माना जो जहां में जाम-ए-जम निकले
हुई जिन से तवक़्क़ो' ख़स्तगी की दाद पाने की
वो हम से भी ज़ियादा ख़स्ता-ए-तेग़-ए-सितम निकले
मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का
उसी को देख कर जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले
कहां मय-ख़ाने का दरवाज़ा 'ग़ालिब' और कहां वाइ'ज़
पर इतना जानते हैं कल वो जाता था कि हम निकले
दिल-ए-नादां तुझे हुआ क्या है ...
दिल-ए-नादां तुझे हुआ क्या है
आख़िर इस दर्द की दवा क्या है
हम हैं मुश्ताक़ और वो बे-ज़ार
या इलाही ये माजरा क्या है
मैं भी मुंह में ज़बान रखता हूं.
काश पूछो कि मुद्दआ' क्या है
जब कि तुझ बिन नहीं कोई मौजूद
फिर ये हंगामा ऐ ख़ुदा क्या है
ये परी-चेहरा लोग कैसे हैं
ग़म्ज़ा ओ इश्वा ओ अदा क्या है
शिकन-ए-ज़ुल्फ़-ए-अंबरीं क्यूँ है
निगह-ए-चश्म-ए-सुरमा सा क्या है
सब्ज़ा ओ गुल कहाँ से आए हैं
अब्र क्या चीज़ है हवा क्या है
हम को उन से वफ़ा की है उम्मीद
जो नहीं जानते वफ़ा क्या है
हां भला कर तिरा भला होगा
और दरवेश की सदा क्या है
जान तुम पर निसार करता हूं
मैं नहीं जानता दुआ क्या है
मैं ने माना कि कुछ नहीं 'ग़ालिब'
मुफ़्त हाथ आए तो बुरा क्या है.
हम को मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन...
हम को मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन
दिल को ख़ुश रखने को 'ग़ालिब' ये ख़याल अच्छा है
रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ाइल
जब आंख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है.
यह भी अच्छा था कि नाराज़गी रही अकसर
हमें परहेज़ नही है दीये जलाने से
मगर है खौफ हवाओं के बदल जाने से।
यह भी अच्छा था कि नाराज़गी रही अकसर
वरना तकलीफ़ बहुत होती दूर जाने से।
तेरे अंदर भी अब कहाँ बचा वो अपनापन
मैं भी कतरा रहा हूँ अब क़रीब आने से।
तुमको आग़ाज़-ए- बेरुखी बहुत मुबारक हो
मैं ये अंजाम जानता था इक ज़माने से।
हर एक बात किसी बात से वाबस्ता है
बहूत कुछ याद आ गया तुम्हें भूलाने से।
अब इबादत कहो या तेरी अकीदत हमको
अजी खुदा मिलेगा अब किसी बहाने से।
थमेगी साँस तो कुछ राहतें मिलेंगी
खैर आज़ाद तो होना है क़ैदखाने से।
ख़्वाब में रात हम ने क्या देखा
ख़्वाब में रात हम ने क्या देखा
आँख खुलते ही चाँद सा देखा
कियारियाँ धूल से अटी पाईं
आशियाना जला हुआ देखा
फ़ाख़्ता सर-निगूँ बबूलों में
फूल को फूल से जुदा देखा
उस ने मंज़िल पे ला के छोड़ दिया
उम्र भर जिस का रास्ता देखा
हम ने मोती समझ के चूम लिया
संग-रेज़ा जहाँ पड़ा देखा
कम-नुमा हम भी हैं मगर प्यारे
कोई तुझ सा न ख़ुद-नुमा देखा
न जाने कैसे ख़बर हो गई ज़माने को
कभी कहा न किसी से तिरे फ़साने को
न जाने कैसे ख़बर हो गई ज़माने को
दुआ बहार की मांगी तो इतने फूल खिले
कहीं जगह न रही मेरे आशियाने को
मिरी लहद पे पतंगों का ख़ून होता है
हुज़ूर शमा न लाया करें जलाने को
सुना है ग़ैर की महफ़िल में तुम न जाओगे
कहो तो आज सजा लूं ग़रीब-ख़ाने को
दबा के क़ब्र में सब चल दिए दुआ न सलाम
ज़रा सी देर में क्या हो गया ज़माने को
अब आगे इस में तुम्हारा भी नाम आएगा
जो हुक्म हो तो यहीं छोड़ दूं फ़साने को
'क़मर' ज़रा भी नहीं तुम को ख़ौफ़-ए-रुस्वाई
चले हो चांदनी शब में उन्हें बुलाने को
बिछड़ के तुझ से मुझे है उमीद मिलने की
बिछड़ के तुझ से मुझे है उमीद मिलने की
सुना है रूह को आना है फिर बदन की तरफ़
- नज़्म तबातबाई
रोज़ वो ख़्वाब में आते हैं गले मिलने को
मैं जो सोता हूँ तो जाग उठती है क़िस्मत मेरी
- जलील मानिकपूरी
ऐसी तारीकियाँ आँखों में बसी हैं कि 'फ़राज़'
रात तो रात है हम दिन को जलाते हैं चराग़
- अहमद फ़राज़
मुद्दत के ब'अद आज मैं ऑफ़िस नहीं गया
ख़ुद अपने साथ बैठ के दिन भर शराब पी
- फ़ाज़िल जमीली
अब ज़िन्दगी फिर जीने का मन है
यूँ तो ज़िन्दगी खूब बिता ली
अब ज़िदंगी जीने का मन है
फिर किसी कागज की कश्ती में बैठकर
उस पार जाने को मन है
यूँ तो हकीकत की दुनिया में खूब खो लिए
अब परियों के देश में जाने का मन है
फिर दादी नानी की गोद में सिर रख कर
किस्सों में खो जाने को मन है
यूँ तो शामें कई गुज़ार ली
अब शामें हसीन बनाने को मन है
फिर खिलखिलाते हुए चहचाहते हुए
नंगे पाँव दौड़ जाने को मन है
यूँ तो फल खूब खा लिए
अब फल के रसों में डूब जाने को मन है
फिर पड़ोस के रामू काका की बगीची से
फल चुरा कर भाग जाने को मन है
यूँ तो बागानों में नकली ठहाके खूब लगा लिए
अब खुल कर खिलखिलाने को मन है
फिर चिल्लरो की खनखनाहट पर
खुल कर मचल जाने को मन है
बचपने में कितनी बड़ी नादानी कर बैठे
बड़े होने की जल्दी में बचपन ही खो बैठे
आज फिर उस बचपन में लौट जाने को मन है
ज़िन्दगी की इस उलझी उधेड़ बुन में
फिर से सुलझ जाने को मन है
अब ज़िन्दगी फिर जीने का मन है
Sunday, April 26, 2020
अमीर मीनाई के शेर - शायरी...
उल्फ़त में बराबर है वफ़ा हो कि जफ़ा हो,
हर बात में लज़्ज़त है अगर दिल में मज़ा हो.
इक फूल है गुलाब का आज उनके हाथ में,
धड़का मुझे है ये कि किसी का जिगर न हो.
अल्लाह रे सादगी, नहीं इतनी उन्हें ख़बर,
मय्यत पे आ के पूछते हैं इन को क्या हुआ.
किसी रईस की महफ़िल का ज़िक्र क्या है,
ख़ुदा के घर भी न जाएंगे बिन बुलाये हुए।
ऐ ज़ब्त देख इश्क़ की उनको ख़बर न हो,
दिल में हज़ार दर्द उठे आंख ततर न हो.
मुद्दत में शाम-ए-वस्ल हुई है मुझे नसीब,
दो चार साल तक तो इलाही सहर न हो.
क़ैदी जो था वो दिल से ख़रीदार हो गया...
क़ैदी जो था वो दिल से ख़रीदार हो गया
यूसुफ़ को क़ैदख़ाना भी बाज़ार हो गया
उल्टा वो मेरी रुह से बेज़ार हो गया
मैं नामे-हूर ले के गुनहगार हो गया
ख़्वाहिश जो रोशनी की हुई मुझको हिज्र में
जुगनु चमक के शम्ए शबे-तार हो गया
एहसां किसी का इस तने-लागिर से क्या उठे
सो मन का बोझ साया -ए-दीवार हो गया
बे-हीला इस मसीह तलक था गुज़र महाल,
क़ासिद समझ कि राह में बीमार हो गया.
जिस राहरव ने राह में देखा तेरा जमाल
आईनादार पुश्ते-ब-दिवार हो गया.
क्योंकर मैं तर्क़े-उल्फ़ते-मिज़्गां करूंअमीर
मंसूर चढ़ के दार पे सरदार हो गया.
उस की हसरत है जिसे दिल से मिटा भी न सकूं...
उस की हसरत है जिसे दिल से मिटा भी न सकूं
ढूंढने उस को चला हूं जिसे पा भी न सकूं
डाल कर ख़ाक मेरे ख़ून पे क़ातिल ने कहा
कुछ ये मेहंदी नहीं मेरी के मिटा भी न सकूं
ज़ब्त कमबख़्त ने और आ के गला घोंटा है
के उसे हाल सुनाऊं तो सुना भी न सकूं
उस के पहलू में जो ले जा के सुला दूं दिल को
नींद ऐसी उसे आए के जगा भी न सकूं
नक्श-ऐ-पा देख तो तूं लाख करूंगा सजदे
सर मेरा अर्श नहीं है कि झुका भी न सकूं
बेवफ़ा लिखते हैं वो अपनी कलम से मुझ को
ये वो किस्मत का लिखा है जो मिटा भी न सकूं
इस तरह सोये हैं सर रख के मेरे जानों पर
अपनी सोई हुई किस्मत को जगा भी न सकूं.
सरकती जाये है रुख़ से नक़ाब आहिस्ता-आहिस्ता...
सरकती जाये है रुख़ से नक़ाब आहिस्ता-आहिस्ता
निकलता आ रहा है आफ़ताब आहिस्ता-आहिस्ता
जवां होने लगे जब वो तो हम से कर लिया पर्दा
हया यकलख़त आई और शबाब आहिस्ता-आहिस्ता
शब-ए-फ़ुर्कत का जागा हूं फ़रिश्तों अब तो सोने दो
कभी फ़ुर्सत में कर लेना हिसाब आहिस्ता-आहिस्ता
सवाल-ए-वस्ल पर उन को अदू का ख़ौफ़ है इतना
दबे होंठों से देते हैं जवाब आहिस्ता आहिस्ता
हमारे और तुम्हारे प्यार में बस फ़र्क़ है इतना
इधर तो जल्दी जल्दी है उधर आहिस्ता आहिस्ता
वो बेदर्दी से सर काटे 'अमीर' और मैं कहूं उन से
हुज़ूर आहिस्ता-आहिस्ता जनाब आहिस्ता-आहिस्ता
हंस के फ़रमाते हैं वो देख कर हालत मेरी...
हंस के फ़रमाते हैं वो देख कर हालत मेरी
क्यों तुम आसान समझते थे मुहब्बत मेरी
बाद मरने के भी छोड़ी न रफ़ाक़त मेरी
मेरी तुर्बत से लगी बैठी है हसरत मेरी
मैंने आग़ोश-ए-तसव्वुर में भी खेंचा तो कहा
पिस गई पिस गई बेदर्द नज़ाकत मेरी
आईना सुबह-ए-शब-ए-वस्ल जो देखा तो कहा
देख ज़ालिम ये थी शाम को सूरत मेरी
यार पहलू में है तन्हाई है कह दो निकले
आज क्यों दिल में छुपी बैठी है हसरत मेरी
हुस्न और इश्क़ हमआग़ोश नज़र आ जाते
तेरी तस्वीर में खिंच जाती जो हैरत मेरी
किस ढिटाई से वो दिल छीन के कहते हैं
वो मेरा घर है रहे जिस में मुहब्बत मेरी.
इश्क़ में जां से गुज़रते हैं गुज़रने वाले...
इश्क़ में जां से गुज़रते हैं गुज़रने वाले
मौत की राह नहीं देखते मरने वाले
आख़िरी वक़्त भी पूरा न किया वादा-ए-वस्ल
आप आते ही रहे मर गये मरने वाले
उठ्ठे और कूच-ए-महबूब में पहुंचे आशिक़
ये मुसाफ़िर नहीं रस्ते में ठहरने वाले
जान देने का कहा मैंने तो हंसकर बोले
तुम सलामत रहो हर रोज़ के मरने वाले
आसमां पे जो सितारे नज़र आये
याद आये मुझे दाग़ अपने उभरने वाले.
आफ़त तो है वो नाज़ भी अंदाज़ भी लेकिन...
आफ़त तो है वो नाज़ भी अंदाज़ भी लेकिन
मरता हूं मैं जिस पर वो अदा और ही कुछ है
आहों से सोज़-ए-इश्क़ मिटाया न जाएगा
फूंकों से ये चराग़ बुझाया न जाएगा.
मैं अपने आप से अब सुल्ह करना चाहता हूँ
हो न मायूस ख़ुदा से 'बिस्मिल'
ये बुरे दिन भी गुज़र जाएंगे
- बिस्मिल अज़ीमाबादी
कितने लोगों से मिलना-जुलना था
ख़ुद से मिलना भी अब मुहाल हुआ
- मनीश शुक्ला
ज़माने से घबरा के सिमटे थे ख़ुद में
मगर अब तो ख़ुद से भी उकता रहे हैं
- मनीश शुक्ला
ख़ुदा से लोग भी ख़ाइफ़ कभी थे
मगर लोगों से अब ख़ाइफ़ ख़ुदा है
- नरेश कुमार शाद
ये सब तो दुनिया में होता रहता है
हम ख़ुद से बे-कार उलझने लगते हैं
- भारत भूषण पन्त
'मीर' बंदों से काम कब निकला
माँगना है जो कुछ ख़ुदा से माँग
- मीर तक़ी मीर
ऐसा हुआ कि घर से न निकला तमाम दिन
जैसे कि ख़ुद से आज कोई काम था मुझे
- बिमल कृष्ण अश्क
अपने होने का कुछ एहसास न होने से हुआ
ख़ुद से मिलना मिरा इक शख़्स के खोने से हुआ
- मुसव्विर सब्ज़वारी
मैं आज ख़ुद से मुलाक़ात करने वाला हूँ
जहाँ में कोई भी मेरे सिवा न रह जाए
- अंजुम सलीमी
ज़माना हो गया ख़ुद से मुझे लड़ते-झगड़ते
मैं अपने आप से अब सुल्ह करना चाहता हूँ
- इफ़्तिख़ार आरिफ़
कि अब तु न आयेगा
यूँ रात के इस पहर में
बारिश की ये दो बूँदें ही
काफ़ी थी ये जताने के लिए
कि अब तु न आयेगा
यूँ बाढ़ में घिरा छटपटाता
तृण को बहते देखना ही
काफ़ी है ये मानने के लिए
कि अब तु न आयेगा
यूँ गुमनाम सोचना तुझें
इस रात की कालिका में
काफ़ी है ये मानने के लिए
कि वो चाँद फिर भी आयेगा
कुछ ना होगा तो तज़रूबा होगा
क्यों डरें ज़िन्दगी में क्या होगा
कुछ ना होगा तो तज़रूबा होगा
हंसती आंखों में झांक कर देखो
कोई आंसू कहीं छुपा होगा
इन दिनों ना-उम्मीद सा हूँ मैं
शायद उसने भी ये सुना होगा
देखकर तुमको सोचता हूँ मैं
क्या किसी ने तुम्हें छुआ होगा
Saturday, April 25, 2020
कि अब तु न आयेगा
यूँ रात के इस पहर में
बारिश की ये दो बूँदें ही
काफ़ी थी ये जताने के लिए
कि अब तु न आयेगा
यूँ बाढ़ में घिरा छटपटाता
तृण को बहते देखना ही
काफ़ी है ये मानने के लिए
कि अब तु न आयेगा
यूँ गुमनाम सोचना तुझें
इस रात की कालिका में
काफ़ी है ये मानने के लिए
कि वो चाँद फिर भी आयेगा
मैं अपने आप से अब सुल्ह करना चाहता हूँ
हो न मायूस ख़ुदा से 'बिस्मिल'
ये बुरे दिन भी गुज़र जाएंगे
- बिस्मिल अज़ीमाबादी
कितने लोगों से मिलना-जुलना था
ख़ुद से मिलना भी अब मुहाल हुआ
- मनीश शुक्ला
ज़माने से घबरा के सिमटे थे ख़ुद में
मगर अब तो ख़ुद से भी उकता रहे हैं
- मनीश शुक्ला
ख़ुदा से लोग भी ख़ाइफ़ कभी थे
मगर लोगों से अब ख़ाइफ़ ख़ुदा है
- नरेश कुमार शाद
ये सब तो दुनिया में होता रहता है
हम ख़ुद से बे-कार उलझने लगते हैं
- भारत भूषण पन्त
'मीर' बंदों से काम कब निकला
माँगना है जो कुछ ख़ुदा से माँग
- मीर तक़ी मीर
ऐसा हुआ कि घर से न निकला तमाम दिन
जैसे कि ख़ुद से आज कोई काम था मुझे
- बिमल कृष्ण अश्क
अपने होने का कुछ एहसास न होने से हुआ
ख़ुद से मिलना मिरा इक शख़्स के खोने से हुआ
- मुसव्विर सब्ज़वारी
मैं आज ख़ुद से मुलाक़ात करने वाला हूँ
जहाँ में कोई भी मेरे सिवा न रह जाए
- अंजुम सलीमी
ज़माना हो गया ख़ुद से मुझे लड़ते-झगड़ते
मैं अपने आप से अब सुल्ह करना चाहता हूँ
- इफ़्तिख़ार आरिफ़
यूं तो जाते भी मगर अब नहीं जाने वाले
कौन होते हैं वो महफ़िल से उठाने वाले
यूं तो जाते भी मगर अब नहीं जाने वाले
आह-ए-पुर-सोज़ की तासीर बुरी होती है
ख़ुश रहेंगे न ग़रीबों को सताने वाले
कूचा-ए-यार में हम को तो क़ज़ा लाई है
जान जाएगी मगर हम नहीं जाने वाले
हम को क्या काम किसी और परी से तौबा
आप भी ख़ूब हैं बे-पर की उड़ाने वाले
जिस क़दर चाहिए बिठलाइए पहरे दर पर
बंद रहने के नहीं ख़्वाब में आने वाले
क्या क़यामत है कि रुलवा के हमें ऐ 'जौहर'
क़हक़हे मार के हँसते हैं रुलाने वाले
मैं अपने आप से अब सुल्ह करना चाहता हूँ
हो न मायूस ख़ुदा से 'बिस्मिल'
ये बुरे दिन भी गुज़र जाएंगे
- बिस्मिल अज़ीमाबादी
कितने लोगों से मिलना-जुलना था
ख़ुद से मिलना भी अब मुहाल हुआ
- मनीश शुक्ला
ज़माने से घबरा के सिमटे थे ख़ुद में
मगर अब तो ख़ुद से भी उकता रहे हैं
- मनीश शुक्ला
ख़ुदा से लोग भी ख़ाइफ़ कभी थे
मगर लोगों से अब ख़ाइफ़ ख़ुदा है
- नरेश कुमार शाद
ये सब तो दुनिया में होता रहता है
हम ख़ुद से बे-कार उलझने लगते हैं
- भारत भूषण पन्त
'मीर' बंदों से काम कब निकला
माँगना है जो कुछ ख़ुदा से माँग
- मीर तक़ी मीर
ऐसा हुआ कि घर से न निकला तमाम दिन
जैसे कि ख़ुद से आज कोई काम था मुझे
- बिमल कृष्ण अश्क
अपने होने का कुछ एहसास न होने से हुआ
ख़ुद से मिलना मिरा इक शख़्स के खोने से हुआ
- मुसव्विर सब्ज़वारी
मैं आज ख़ुद से मुलाक़ात करने वाला हूँ
जहाँ में कोई भी मेरे सिवा न रह जाए
- अंजुम सलीमी
ज़माना हो गया ख़ुद से मुझे लड़ते-झगड़ते
मैं अपने आप से अब सुल्ह करना चाहता हूँ
- इफ़्तिख़ार आरिफ़
उम्र गुज़रेगी इंतहान में क्या
जिक्र था जिस्म की जरूरत का.- जॉन एलिया
सीना दहक रहा हो तो...
सीना दहक रहा हो तो क्या चुप रहे कोई
क्यूँ चीख़ चीख़ कर न गला छील ले कोई
साबित हुआ सुकून-ए-दिल-ओ-जां कहीं नहीं
रिश्तों में ढूँढता है तो ढूँढा करे कोई
तर्क-ए-तअल्लुक़ात कोई मसअला नहीं
ये तो वो रास्ता है कि बस चल पड़े कोई
दीवार जानता था जिसे मैं वो धूल थी
अब मुझ को एतिमाद की दावत न दे कोई
मैं ख़ुद ये चाहता हूं कि हालात हूं ख़राब
मेरे ख़िलाफ़ ज़हर उगलता फिरे कोई
ऐ शख़्स अब तो मुझ को सभी कुछ क़ुबूल है
ये भी क़ुबूल है कि तुझे छीन ले कोई
हां ठीक है मैं अपनी अना का मरीज़ हूँ
आख़िर मिरे मिज़ाज में क्यूँ दख़्ल दे कोई
इक शख़्स कर रहा है अभी तक वफ़ा का ज़िक्र
काश उस ज़बाँ-दराज़ का मुँह नोच ले कोई
उम्र गुज़रेगी इंतहान में क्या...
उम्र गुज़रेगी इम्तहान में क्या?
दाग ही देंगे मुझको दान में क्या?
मेरी हर बात बेअसर ही रही
नुक्स है कुछ मेरे बयान में क्या?
बोलते क्यो नहीं मेरे अपने
आबले पड़ गये ज़बान में क्या?
मुझको तो कोई टोकता भी नहीं
यही होता है खानदान मे क्या?
अपनी महरूमिया छुपाते है
हम गरीबो की आन-बान में क्या?
वो मिले तो ये पूछना है मुझे
अब भी हूँ मै तेरी अमान में क्या?
यूँ जो तकता है आसमान को तू
कोई रहता है आसमान में क्या?
है नसीम-ए-बहार गर्दालूद
खाक उड़ती है उस मकान में क्या
ये मुझे चैन क्यो नहीं पड़ता
एक ही शख्स था जहान में क्या?
रूह प्यासी कहां से आती है...
रूह प्यासी कहां से आती है
ये उदासी कहां से आती है
दिल है शब दो का तो ऐ उम्मीद
तू निदासी कहां से आती है
शौक में ऐशे वत्ल के हन्गाम
नाशिफासी कहां से आती है
एक ज़िन्दान-ए-बेदिली और शाम
ये सबासी कहां से आती है
तू है पहलू में फिर तेरी खुशबू
होके बासी कहां से आती है
मैं अपने आप से अब सुल्ह करना चाहता हूँ
हो न मायूस ख़ुदा से 'बिस्मिल'
ये बुरे दिन भी गुज़र जाएंगे
- बिस्मिल अज़ीमाबादी
कितने लोगों से मिलना-जुलना था
ख़ुद से मिलना भी अब मुहाल हुआ
- मनीश शुक्ला
ज़माने से घबरा के सिमटे थे ख़ुद में
मगर अब तो ख़ुद से भी उकता रहे हैं
- मनीश शुक्ला
ख़ुदा से लोग भी ख़ाइफ़ कभी थे
मगर लोगों से अब ख़ाइफ़ ख़ुदा है
- नरेश कुमार शाद
ये सब तो दुनिया में होता रहता है
हम ख़ुद से बे-कार उलझने लगते हैं
- भारत भूषण पन्त
'मीर' बंदों से काम कब निकला
माँगना है जो कुछ ख़ुदा से माँग
- मीर तक़ी मीर
ऐसा हुआ कि घर से न निकला तमाम दिन
जैसे कि ख़ुद से आज कोई काम था मुझे
- बिमल कृष्ण अश्क
अपने होने का कुछ एहसास न होने से हुआ
ख़ुद से मिलना मिरा इक शख़्स के खोने से हुआ
- मुसव्विर सब्ज़वारी
मैं आज ख़ुद से मुलाक़ात करने वाला हूँ
जहाँ में कोई भी मेरे सिवा न रह जाए
- अंजुम सलीमी
ज़माना हो गया ख़ुद से मुझे लड़ते-झगड़ते
मैं अपने आप से अब सुल्ह करना चाहता हूँ
- इफ़्तिख़ार आरिफ़
न सोचा था ये दिल लगाने से पहले
न सोचा था ये दिल लगाने से पहले
कि टूटेगा दिल मुस्कुराने से पहले
उमीदों का सूरज न चमका न डूबा
गहन पड़ गया जगमगाने से पहले
अगर ग़म उठाना था क़िस्मत में अपनी
ख़ुशी क्यूँ मिली ग़म उठाने से पहले
कहो बिजलियों से न दिल को जलाएँ
मुझे फूँक दें घर जलाने से पहले
तूने क्यों मुस्कुरा के देखा था!
रूह को गुदगुदा के देखा था
उसके नजदीक आके देखा था
मुझको इल्जाम देने वाले बता
तूने क्यों मुस्कुरा के देखा था!
मुझे ईश्क हैं किताबो से......
कल्पनाओ से परे था मैं ,
बस एक मील का पत्थर था मैं ,
उस ज्ञान के समुन्द्र में ,
डूबकर भी उस ज्ञान,
तक न पहुच पाया था मैं ,
बेहतर से मिलते मिलते ,
बेहतरी की तलाश हुई ,
पहुचा उस किनारे तक ,
जहां न पहुच पाया था कोई ,
किताबो की दुनिया कितनी हसीन हैं ,
फर्श से अर्श तक ले जाती हैं ,
अगर सिद्धत से चाहो किसी मुकाम को ,
सितारे भी खुद की जगह छोड जाते हैं ,
शब्दो को जोड़ कर हर इतिहास लिखा गया ,
जो आज हैं वो कल लिखा गया ,
तुम चाहो बेशक तो इतिहास लिख दोगे ,
अगर शब्द और कलम पकडने की कला सीख लोगे ,
ज्ञान एक समुन्दर हैं ,
और हम सब उसके केवल एक बूंद के पहलू हैं ,
क्यूँ अभिमान करू खुद के आत्म ज्ञान का ,
सीखा हैं मैने भी हर एक शब्द के ज्ञान का ,
यह समझ लिया मैने ,
ये जान लिया मैने ,
उम्र के साथ साथ उस तजुर्बे
को पहचान लिया मैने ,
किताबो से गुजरते गुजरते ,
उस हसीन रास्तो से मिला ,
मान-सम्मान थी किताबो से ,
मेरी खुद की पहचान थी किताबो से ,
किताबो को पढ़ते पढ़ते ,
खुद के ज्ञान को पहचान लोगे ,
जब तर्क और वितर्क करना सीख लोगे ,
तुम उसी दिन खुद को कामयाब पा लोगे ,
हाँ मुझे ईश्क हैं किताबो से.........
फिर राह में मौसम की झंकार वही होगी
फिर राह में मौसम की झंकार वही होगी,
निकलेंगे सफर पर फिर, रफ़्तार वही होगी..
तूने क्यों मुस्कुरा के देखा था!
रूह को गुदगुदा के देखा था
उसके नजदीक आके देखा था
मुझको इल्जाम देने वाले बता
तूने क्यों मुस्कुरा के देखा था!
फ़सल ए बहार आई भी तो आई इस तरह!
“हम भी चमन से दूर हैं,हमसे चमन है दूर,
फ़सल ए बहार आई भी तो आई इस तरह!
Friday, April 24, 2020
खुशियों के इतने फूल कभी खिले थे
क्या कभी हम अपने आप से मिले थे
क्या खुशियों के इतने फूल कभी खिले थे
इक दिन पूछा मैंने अपने आप से
मुक्त देखकर हृदय को सन्ताप से
न बाहर की आपा धापी है
न ही अंदर की उदासी
बस निशि दिन भोले नाथ हैं
और है उनकी न्यारी काशी
लोग अपने घरों में हैं
परिवार उनके साथ है
आह्लाद के दो स्वर्णिम पल
हृदय में नाथों के नाथ हैं
अर्थ संपन्न शक्ति संपन्न
अणु और परमाणु संपन्न
श्रीहीन नतमस्तक हैं
असहाय और हो रहे हैं विपन्न
काल सबसे प्रबल है
फिर से मिला प्रमाण
इक सूक्ष्म अदृश्य विषाणु ने
सुला दिया सबका अभिमान
अन्न दान महा दान
सबसे बड़ा किसान है
वैश्विक संकट के समय
सहचर बना विज्ञान है
ईश्वर ने विविध रूपों में
कदाचित् लिया अवतार है
कोरोना योद्धाओं के भग्वद्रूपों को
मेरा प्रणाम बारम्बार है
संकट के बादल छटेंगे
पनपेंगी फिर नई उर्मियाँ
आशा का सूरज चमकेगा
लेकर फिर से असंख्य रश्मियाँ।
क्या खुशियों के इतने फूल कभी खिले थे
इक दिन पूछा मैंने अपने आप से
मुक्त देखकर हृदय को सन्ताप से
न बाहर की आपा धापी है
न ही अंदर की उदासी
बस निशि दिन भोले नाथ हैं
और है उनकी न्यारी काशी
लोग अपने घरों में हैं
परिवार उनके साथ है
आह्लाद के दो स्वर्णिम पल
हृदय में नाथों के नाथ हैं
अर्थ संपन्न शक्ति संपन्न
अणु और परमाणु संपन्न
श्रीहीन नतमस्तक हैं
असहाय और हो रहे हैं विपन्न
काल सबसे प्रबल है
फिर से मिला प्रमाण
इक सूक्ष्म अदृश्य विषाणु ने
सुला दिया सबका अभिमान
अन्न दान महा दान
सबसे बड़ा किसान है
वैश्विक संकट के समय
सहचर बना विज्ञान है
ईश्वर ने विविध रूपों में
कदाचित् लिया अवतार है
कोरोना योद्धाओं के भग्वद्रूपों को
मेरा प्रणाम बारम्बार है
संकट के बादल छटेंगे
पनपेंगी फिर नई उर्मियाँ
आशा का सूरज चमकेगा
लेकर फिर से असंख्य रश्मियाँ।
कुछ दर्द कलेजे से लगाने के लिए हैं
अब ये भी नहीं ठीक कि हर दर्द मिटा दें
कुछ दर्द कलेजे से लगाने के लिए हैं
- जाँ निसार अख़्तर
कब ठहरेगा दर्द ऐ दिल कब रात बसर होगी
सुनते थे वो आएँगे सुनते थे सहर होगी
- फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
दर्द-ए-दिल कितना पसंद आया उसे
मैं ने जब की आह उस ने वाह की
- आसी ग़ाज़ीपुरी
ज़ख़्म कहते हैं दिल का गहना है
दर्द दिल का लिबास होता है
- गुलज़ार
ये दिल का दर्द तो उम्रों का रोग है प्यारे
सो जाए भी तो पहर दो पहर को जाता है
- अहमद फ़राज़
जुदाइयों के ज़ख़्म दर्द-ए-ज़िंदगी ने भर दिए
तुझे भी नींद आ गई मुझे भी सब्र आ गया
- नासिर काज़मी
हाल तुम सुन लो मिरा देख लो सूरत मेरी
दर्द वो चीज़ नहीं है कि दिखाए कोई
- जलील मानिकपूरी
भीगी मिट्टी की महक प्यास बढ़ा देती है
दर्द बरसात की बूँदों में बसा करता है
- मरग़ूब अली
वक़्त हर ज़ख़्म का मरहम तो नहीं बन सकता
दर्द कुछ होते हैं ता-उम्र रुलाने वाले
- सदा अम्बालवी
दर्द को रहने भी दे दिल में दवा हो जाएगी
मौत आएगी तो ऐ हमदम शिफ़ा हो जाएगी
- हकीम मोहम्मद अजमल ख़ाँ शैदा
कल्पनाओ के गलियो में
हत्प्रभ रहता हूँ मैं अक्सर
जीवन के हर एक कड़ियो में ,
अक्सर सपने टूटा करते
उन कल्पनाओ के गलियो में ,
चला था ये सोचकर
हासिल कर लूँगा हर सपना ,
जीवन बस अनन्त हैं
बस यही भ्रम था अपना ,
जीवन इतना समान्य नही
ज़ितना मैंने सोच लिया था ,
हर मुश्किल थी मेरे आगे
अब इसको मैं जान लिया था ,
मान लिया था खुद को "कश्ती"
उन तूफानो के अठखेलियो में ,
फिर भी अड़ा रहा पथ पर अपने
उन तूफानो के गलियो में ,
हर सम्भव वो कोशिश की
उन रास्तो उन गलियो में ,
फिर भी मन भयभीत होता
उन कल्पनाओ के गलियो में ,
कुछ मित मिले कुछ छूट गये
उन कठिन परिस्थितियो में ,
फिर भी मन उदास न होता
जीवन के उन पहलुओ में ,
अब बीत गया वो समय कहाँ
अब सपनो से दूर रहा ,
हर सम्भव वो कोशिश की
अब बस पथ पर अडा रहा ,
हत्प्रभ रहता हूँ मैं अक्सर
जीवन के हर एक कड़ियो में ,
अक्सर सपने टूटा करते
उन कल्पनाओ के गलियो में.......
दिल को ख़ुशी के साथ साथ होता रहा मलाल भी
कुछ तो हवा भी सर्द थी कुछ था तेरा ख़्याल भी
दिल को ख़ुशी के साथ साथ होता रहा मलाल भी
- परवीन शाकिर
तेरी खातिर, अपना सब जला दिया।
खुश नसीब इतना,नसीब मेरा
क्या हैं वफाएँ दर्द तेरी,सब कुछ था वो लुटा दिया।
मेरे महबूब, तेरी खातिर, अपना सब जला दिया।
मुझे
ऐ काश!कोई गम
मिला होता तो क्या होता?
मुझें मंजिल मिलीं होती, तो क्या होता?
खुदा होता,खुदा होता
मुझेंं ऐ काश!तेरी पनाह
मिलींं होती,तो क्या होता ?
मुझें मेरे गुनाहों की
सजा मिलती,तो क्या होता ?
खुदा होता,खुदा होता
मुझें ऐ काश!दुनिया में
कोई मिलता तो क्या होता !
तेरी रंगीन दुनिया के,
नजारे मिल गये होते,तो क्या होता ?
मेरी नजरो में कोई दर्द
छिपा होता, तो क्या होता ?
खुदा होता, खुदा होता
मुझें ऐ काश!दिदार तेरा
मिला होता,तो क्या होता ?
मुझें ऐ दर्द!उम्मीद तेरी
मिली होती,तो क्या होता!
खुदा होता,खुदा होता
मुझें ऐ काश!शोक-बहार
ना मिलींं होती,तो क्या होता?
मेरे जीवन में तेरा दर्द
मिला होता,तो क्या होता ?
मेरे जीवन की बगियाँ में,खिला होता फूल कोई ?
तो क्या होता ?
खुदा होता,खुदा होता...।
चलो दिल लगा लो ना
वो बोले तुमसे प्यार है, चलो दिल लगा लो ना,
भूल कर पुराने ग़म, खुशी पास बुला लो ना,
कब से तरसते आ रहे हैं, प्यार पाने को,
लो थाम के हाथ मेरा, मुझे अपना बना लो ना।
बोले हम-"नादान हो, कैसे रिश्ता संभालोगे",
वो बोले हमसे-"छोड़ो मुझपे, तुम बस मेरा दिल संभालो ना"।
हम बोले उनसे, ठहरो पहले आज़माएंगे,
खंज़र दे के बोले वो, लो आज़मा लो ना।
जिंदगी बहुत कुछ सिखाती है।
जिंदगी बहुत कुछ सिखाती है।
अंधेरे के बाद ही सुबह आती है।
माना मिले बहुत गम है,
माना बहुत कुछ कम है,
हार के बाद ही जीत समझ आती है।
जिंदगी बहुत कुछ सिखाती है।।
माना दिल टूटा है,
माना किसी का साथ छूटा है,
टूटे अल्फ़ाज ही तो संगीत बनाती है,
अंधेरे के बाद ही सुबह आती है।
माना कुछ अपने पराये हुए,
माना कुछ पराये अपने हुए,
अब तो वक़्त रिश्ते बनाती है।
जिंदगी बहुत कुछ सिखाती है।।
माना अपनों से कुछ गीले हैं,
परायों से तो या भी न मिलें है,
जिंदगी ही जीना सिखाती है,
अंधेरे के बाद ही सुबह आती है।।
माना मुश्किल हालात हैं,
दर्द भरे जज़बात हैं,
वक़्त वक़्त की बात है
तनहाई ही महफ़िल सजाती है।
अंधेरे के बाद ही सुबह आती है।
जिंदगी बहुत कुछ सिखाती है।
अंधेरे के बाद ही सुबह आती है।।
सितमो की बातें छोड़ो तुम
सितमो की बातें छोड़ो तुम,
करम भी उसके सह नहीं पाए।
बेशक आंँख से आँसू मेरी,
दरिया बनकर बह नहीं पाए ।।
ऐसे ऊँचे ओहदे का,
मतलब भी क्या रह जाता है।
जब मन की बात कहने वाला,
ढंग की बात कह नहीं पाए ।।
रुके नहीं मनसूबे उनके,
पल पल मुझे मिटाने को ।
माँ की दुआएं बनीं थीं ढाल,
यूँ घर मेरा ढह नहीं पाए ।।
मत पूंँछो तुम मुझसे,
मेरे घर की दीवारों का रंग।
नज़र उठे जो देख सकूँ कुछ,
इतने पल घर रह नहीं पाए ।।
फूलों की खुशबू पर पहरा,
किसका होता है लेकिन ।
उसको तो बस ज़िद है "ज़फ़र",
सब पाएं पर वह नहीं पाए ।।
ऐ चाँद सितारों तुमको भी,
अफसोस है किस बात का ।
वो बुत घर ही तो पा गये,
पर ख़ुदा की तह नहीं पाए ।।
मैं उसकी बात बताती हूं,जिससे प्यार नहीं जताती हूं।
मैं उसकी बात बताती हूं,
जिससे प्यार नहीं जताती हूं।
हां चाहती हूं,
उसे चाहती हूं,
फिर क्यों कुछ नहीं कह पाती हूं?
उस रोज जिंदगी में कोई आया था,
जो मुझे देख मुस्काया था।
जब भी कभी मुझे चोट लगी,
दर्द में उनको पाया था।
वह आए तो लगा पूरी कोई अधूरी सी व्याख्यात हो गई।
मैं जब भी तकलीफ में थी तो मेरे लिए
बैठे उन्हें ना जाने कब दिन से रात हो गई।
वह मेरी सारी शैतानियों को हंस कर देखा करते थे,
और सारी नादानियों को बस अनदेखा करते थे।
छुपा कर अपने सारे गम वह हमसे मिला करते थे।
पूरी दुनिया में केवल मुझसे मोहब्बत करते थे।
ना पैसे का लोभ ना माया की चाह वह रखते थे।
आश्चर्य, सिर्फ मुझे खोने से डरते थे।
अब आप सोच रहे होंगे कि वह शख्सियत कौन है,
जो इस जमाने में भी ऐसे हैं,
इंसान जहां रिश्तो को नहीं समझ पाता,
वह मोहब्बत समझने बैठे हैं।
वह ना कोई हसीना है,
ना दिलबर,
ना कोई मोहब्बतगार,
ना ही दिलदार।
अरे ऐसा प्यार तो सिर्फ वही कर सकते हैं,
जिन्होंने जन्म दिया हो यार।
जी हां, वह मेरे मां और पापा हैं जिनकी मैं बात कर रही हूं,
बेशक, अपनी यह कविता उनको समर्पित कर रही हूं।
यह हक है उनका, यह फर्ज है मेरा,
इस मोहब्बत को पूरी शिद्दत से निभाऊ,
असली लव ऐट फर्स्ट साइट है,
ऐसे कैसे तोड़ कर आगे बढ़ जाऊं।
जुदा हमें कोई नहीं कर सकता,
कहते हैं पहला प्यार कभी नहीं मरता।
हां यह सच है,
समझ अब आया है।
मां-पापा, "आई लव यू"
यह इज़हार-ए-मोहब्बत,
आज 19 साल बाद ही सही,
मगर जुबान पर आया है,
पहली बार आया है,
आखिरकार आया है।
Thursday, April 23, 2020
जब वो बोले कि कोई प्यारा था
जब वो बोले कि कोई प्यारा था
उनका मेरी तरफ़ इशारा था
हम निकल आए जिस्म से बाहर
उसने कुछ इस तरह पुकारा था
फेर देता था वो नज़र अपनी
हर नज़र का यही उतारा था
डूब जाना ही ठीक था मेरा
मेरे दोनों तरफ़ किनारा था
आख़िरश बोझ हो गया देखो
मुझको जो जिस्म जां से प्यारा था
साफ़ दिखता है तेरे चेहरे पे
साफ़ दिखता है तेरे चेहरे पे
इश्क़ डाले है डेरे चेहरे पे
इतनी शिद्दत से देखिए मुझको
नील पड़ जाएं मेरे चेहरे पे
इतनी आंखें नहीं है दुनिया में
जितने चेहरे हैं तेरे चेहरे पे
सोलहवां साल लग गया जैसे
उसने जब हाथ फेरे चेहरे पे
हम तुझे देख ही नहीं पाए
इतनी नज़रें थी तेरे चेहरे पे
इन्तेज़ार शायरी
जान-लेवा थीं ख़्वाहिशें वर्ना
वस्ल से इंतिज़ार अच्छा था
- जौन एलिया
कौन आएगा यहाँ कोई न आया होगा
मेरा दरवाज़ा हवाओं ने हिलाया होगा
- कैफ़ भोपाली
इक रात वो गया था जहाँ बात रोक के
अब तक रुका हुआ हूँ वहीं रात रोक के
- फ़रहत एहसास
इंतिज़ारी तो जान ले लेती
सब्र मिलता रहा सितारों से
- शौक़ मुरादाबादी
मुफ़्लिसी हम ने ख़ुद-कुशी कर ली
मौत का इंतिज़ार क्या करते
- सिरज आलम ज़ख़मी
न कोई वा'दा न कोई यक़ीं न कोई उमीद
मगर हमें तो तिरा इंतिज़ार करना था
- फ़िराक़ गोरखपुरी
मुझ को ये आरज़ू वो उठाएँ नक़ाब ख़ुद
उन को ये इंतिज़ार तक़ाज़ा करे कोई
- असरार-उल-हक़ मजाज़
कब ठहरेगा दर्द ऐ दिल कब रात बसर होगी
सुनते थे वो आएँगे सुनते थे सहर होगी
- फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
मुझे ख़बर थी मिरा इंतिज़ार घर में रहा
ये हादसा था कि मैं उम्र भर सफ़र में रहा
- साक़ी फ़ारुक़ी
कहीं वो आ के मिटा दें न इंतिज़ार का लुत्फ़
कहीं क़ुबूल न हो जाए इल्तिजा मेरी
- हसरत जयपुरी
मुस्कुराती हुई नजरें
मुस्कान होठों की
दिल से गुजर जाये मुश्किल है।
बड़े लोग तो मंचों से
यूँ ही मुस्कुरा लिया करते हैं।।
मुस्कुराती हुई नजरें
दिल के हर हाल बयां करती है।
क्योंकि धरती में बोया हुआ बीज
कभी नुमाया नहीं होता।।
दिखते हैं जो अपने,
कभी - कभी दूरियाँ बना लिया करते हैं।
दिल में कुछ और छुपा ,पर
फिर भी मुस्कुरा लिया करते हैं।।
रिश्ते भी कम नजर आने लगे
लोग दौलत से रिश्ते बनाया करते हैं।
जुबां की हो गई बात अब पुरानी
मुस्कुरा कर भी लोग पलट जाया करते हैं।।
जिन्दगी मस्ती में जीने वाले
बात - बात में कसम खाया नहीं करते।
प्यार की थोड़ी भी समझ रखने वाले
कभी हारा या हराया नहीं करते।।
सच्ची मोहब्बत करने वाले
किसी को रूलाया नहीं करते।
टूटे दिल को देख
कभी मुस्कुराया नहीं करते।।
जिंदगी की मजबूरी शायरी
ज़िंदगी है अपने क़ब्ज़े में न अपने बस में मौत
आदमी मजबूर है और किस क़दर मजबूर है
- अहमद आमेठवी
आप की याद में रोऊं भी न मैं रातों को
हूं तो मजबूर मगर इतना भी मजबूर नहीं
- मंज़र लखनवी
तेरी मजबूरियां दुरुस्त मगर
तू ने वादा किया था याद तो कर
- नासिर काज़मी
इतना तो समझते थे हम भी उस की मजबूरी
इंतिज़ार था लेकिन दर खुला नहीं रक्खा
- भारत भूषण पन्त
कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी
यूं कोई बेवफ़ा नहीं होता
- बशीर बद्र
चलो हम भी वफ़ा से बाज़ आए
मोहब्बत कोई मजबूरी नहीं है
- मज़हर इमाम
कभी मजबूर कर देना कभी मजबूर हो जाना
यही तेरा वतीरा है यही तेरी सियासत है
- ग़ुलाम हुसैन साजिद
एक ही शख़्स को चाहो सदा
ये कैसी मजबूरी है
- बिल्क़ीस ख़ान
हम अपना ग़म भूल गए
आज किसे देखा मजबूर
- नासिर काज़मी
इलाज ये है कि मजबूर कर दिया जाऊं
वगरना यूं तो किसी की नहीं सुनी मैं ने
- जौन एलिया
मुस्कुराती हुई नजरें
मुस्कान होठों की
दिल से गुजर जाये मुश्किल है।
बड़े लोग तो मंचों से
यूँ ही मुस्कुरा लिया करते हैं।।
मुस्कुराती हुई नजरें
दिल के हर हाल बयां करती है।
क्योंकि धरती में बोया हुआ बीज
कभी नुमाया नहीं होता।।
दिखते हैं जो अपने,
कभी - कभी दूरियाँ बना लिया करते हैं।
दिल में कुछ और छुपा ,पर
फिर भी मुस्कुरा लिया करते हैं।।
रिश्ते भी कम नजर आने लगे
लोग दौलत से रिश्ते बनाया करते हैं।
जुबां की हो गई बात अब पुरानी
मुस्कुरा कर भी लोग पलट जाया करते हैं।।
जिन्दगी मस्ती में जीने वाले
बात - बात में कसम खाया नहीं करते।
प्यार की थोड़ी भी समझ रखने वाले
कभी हारा या हराया नहीं करते।।
सच्ची मोहब्बत करने वाले
किसी को रूलाया नहीं करते।
टूटे दिल को देख
कभी मुस्कुराया नहीं करते।।
अब भला छोड़ के घर क्या करते
अब भला छोड़ के घर क्या करते
शाम के वक़्त सफ़र क्या करते
तेरी मसरूफ़ियतें जानते हैं
अपने आने की ख़बर क्या करते
जब सितारे ही नहीं मिल पाए
ले के हम शम्स-ओ-क़मर क्या करते
वो मुसाफ़िर ही खुली धूप का था
साए फैला के शजर क्या करते
ख़ाक ही अव्वल ओ आख़िर ठहरी
कर के ज़र्रे को गुहर क्या करते
राय पहले से बना ली तू ने
दिल में अब हम तिरे घर क्या करते
इश्क़ ने सारे सलीक़े बख़्शे
हुस्न से कस्ब-ए-हुनर क्या करते
फूल खिला था तन्हा तन्हा चाँद उगा था तन्हा तन्हा
धरती और अम्बर पर दोनों क्या रानाई बाँट रहे थे
फूल खिला था तन्हा तन्हा चाँद उगा था तन्हा तन्हा
- ग्यान चन्द
जग में आ कर इधर उधर देखा
तू ही आया नज़र जिधर देखा
- ख़्वाजा मीर दर्द
कैसे मानें कि उन्हें भूल गया तू ऐ 'कैफ़'
उन के ख़त आज हमें तेरे सिरहाने से मिले
- कैफ़ भोपाली
माँ की दुआ न बाप की शफ़क़त का साया है
आज अपने साथ अपना जनम दिन मनाया है
- अंजुम सलीमी
अब भला छोड़ के घर क्या करते
अब भला छोड़ के घर क्या करते
शाम के वक़्त सफ़र क्या करते
तेरी मसरूफ़ियतें जानते हैं
अपने आने की ख़बर क्या करते
जब सितारे ही नहीं मिल पाए
ले के हम शम्स-ओ-क़मर क्या करते
वो मुसाफ़िर ही खुली धूप का था
साए फैला के शजर क्या करते
ख़ाक ही अव्वल ओ आख़िर ठहरी
कर के ज़र्रे को गुहर क्या करते
राय पहले से बना ली तू ने
दिल में अब हम तिरे घर क्या करते
इश्क़ ने सारे सलीक़े बख़्शे
हुस्न से कस्ब-ए-हुनर क्या करते
मुस्कुराती हुई नजरें
मुस्कान होठों की
दिल से गुजर जाये मुश्किल है।
बड़े लोग तो मंचों से
यूँ ही मुस्कुरा लिया करते हैं।।
मुस्कुराती हुई नजरें
दिल के हर हाल बयां करती है।
क्योंकि धरती में बोया हुआ बीज
कभी नुमाया नहीं होता।।
दिखते हैं जो अपने,
कभी - कभी दूरियाँ बना लिया करते हैं।
दिल में कुछ और छुपा ,पर
फिर भी मुस्कुरा लिया करते हैं।।
रिश्ते भी कम नजर आने लगे
लोग दौलत से रिश्ते बनाया करते हैं।
जुबां की हो गई बात अब पुरानी
मुस्कुरा कर भी लोग पलट जाया करते हैं।।
जिन्दगी मस्ती में जीने वाले
बात - बात में कसम खाया नहीं करते।
प्यार की थोड़ी भी समझ रखने वाले
कभी हारा या हराया नहीं करते।।
सच्ची मोहब्बत करने वाले
किसी को रूलाया नहीं करते।
टूटे दिल को देख
कभी मुस्कुराया नहीं करते।।
जिंदगी की मजबूरी शायरी
ज़िंदगी है अपने क़ब्ज़े में न अपने बस में मौत
आदमी मजबूर है और किस क़दर मजबूर है
- अहमद आमेठवी
आप की याद में रोऊं भी न मैं रातों को
हूं तो मजबूर मगर इतना भी मजबूर नहीं
- मंज़र लखनवी
तेरी मजबूरियां दुरुस्त मगर
तू ने वादा किया था याद तो कर
- नासिर काज़मी
इतना तो समझते थे हम भी उस की मजबूरी
इंतिज़ार था लेकिन दर खुला नहीं रक्खा
- भारत भूषण पन्त
कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी
यूं कोई बेवफ़ा नहीं होता
- बशीर बद्र
चलो हम भी वफ़ा से बाज़ आए
मोहब्बत कोई मजबूरी नहीं है
- मज़हर इमाम
कभी मजबूर कर देना कभी मजबूर हो जाना
यही तेरा वतीरा है यही तेरी सियासत है
- ग़ुलाम हुसैन साजिद
एक ही शख़्स को चाहो सदा
ये कैसी मजबूरी है
- बिल्क़ीस ख़ान
हम अपना ग़म भूल गए
आज किसे देखा मजबूर
- नासिर काज़मी
इलाज ये है कि मजबूर कर दिया जाऊं
वगरना यूं तो किसी की नहीं सुनी मैं ने
- जौन एलिया
Wednesday, April 22, 2020
जरा थम जा, जरा ठहर जा
जरा थम जा, जरा ठहर जा,
तेज भाग रहा है इतना,
जैसे कुदरत पर विजय पाएगा,
मेरे बिना तू कैसे, जिंदगी की ख़ुशियाँ पाएगा,
भीड़ में होकर भी, खुद को तन्हा पाएगा,
जरा थम जा, जरा ठहर जा,
नहीं तो गैर आबाद हो जाएगा ।
नसीब तेरा अपना है, मुझसे तेरा नाता है,
कुदरत हूं मैं, जब कहर मचाऊंगी,
यह नाता भी टूट जाएगा,
फिर हवा, पानी, मिट्टी के बिना,
कैसे जिंदा रह पाएगा,
जरा थम जा, जरा ठहर जा,
नहीं तो गैर आबाद हो जाएगा ।
जब कुदरत ने अपनी महिमा दिखाई,
रफ्तार इंसान की, एकदम ठहर गई,
निर्मल हुआ जल, हवा सफा हो गई,
निसर्ग से जो करेगा प्यार,
वह सिद्धि अवश्य पाएगा ।
जरा थम जा, जरा ठहर जा,
नहीं तो गैर आबाद हो जाएगा ।
कुदरत ने शुरू किया अपना निखार,
वायु, जल और ध्वनि प्रदूषण,
कम हुआ इनका रुसार,
वो पशु पक्षी, दर्शन जिनके दुर्लभ थे,
उनका भी अब आगाज हुआ,
इन बेजुबानों से प्यार कर,
इनका भी उद्धार हो जाएगा ।
जरा थम जा, जरा ठहर जा,
नहीं तो गैर आबाद हो जाएगा ।
संकल्प ले, थोड़ी मेरी भी परवाह कर,
भागदौड़ छोड़कर, अपने से प्यार कर,
धीरे चल और सब्र कर,
सफलता की हर मंज़िल को,
आसानी से छू पाएगा,
जरा थम जा, जरा ठहर जा,
नहीं तो गैर आबाद हो जाएगा ।।
आँख शायरी
आँखों में जो बात हो गई है
इक शरह-ए-हयात हो गई है
- फ़िराक़ गोरखपुरी
बहुत बेबाक आंखों में तआल्लुक टिक नहीं पाता
मोहब्बत में कशिश रखने को शर्माना जरूरी है
- वसीम बरेलवी
आँख रहज़न नहीं तो फिर क्या है
लूट लेती है क़ाफ़िला दिल का
- जलील मानिकपूरी
मैं जिसे ओढ़ता-बिछाता हूं वो ग़ज़ल आपको सुनाता हूं
एक जंगल है तेरी आंखों में मैं जहाँ राह भूल जाता हूं..
- दुष्यंत कुमार
अब तक मेरी यादों से मिटाए नहीं मिटता
भीगी हुई इक शाम का मंज़र तेरी आंखें
- मोहसिन नक़वी
उन आंखों में डाल कर जब आंखें उस रात
मैं डूबा तो मिल गए डूबे हुए जहाज़
- अमीक़ हनफ़ी
उन मद-भरी आंखों की तारीफ़ हो क्या ज़ाहिद
देखो तो हैं दो साग़र समझो तो हैं मय-ख़ाना
- दुआ डबाईवी
एक आंसू भी हुकूमत के लिए ख़तरा है
तुमने देखा नहीं आंखों का समुंदर होना
-मुनव्वर राणा
इक हसीं आँख के इशारे पर
क़ाफ़िले राह भूल जाते हैं
- अब्दुल हमीद अदम
लड़ने को दिल जो चाहे तो आँखें लड़ाइए
हो जंग भी अगर तो मज़ेदार जंग हो
- लाला माधव राम जौहर
जब तिरे नैन मुस्कुराते हैं
ज़ीस्त के रंज भूल जाते हैं
- अब्दुल हमीद अदम
आँखें न जीने देंगी तिरी बे-वफ़ा मुझे
क्यूँ खिड़कियों से झाँक रही है क़ज़ा मुझे
- इमदाद अली बहर
Tuesday, April 21, 2020
मुस्तफ़ा ज़ैदी की ग़ज़लें...
हर इक ने कहा क्यूँ तुझे आराम न आया
सुनते रहे हम लब पे तिरा नाम न आया
दीवाने को तकती हैं तिरे शहर की गलियाँ
निकला तो इधर लौट के बद-नाम न आया
मत पूछ कि हम ज़ब्त की किस राह से गुज़रे
ये देख कि तुझ पर कोई इल्ज़ाम न आया
क्या जानिए क्या बीत गई दिन के सफ़र में
वो मुंतज़िर-ए-शाम सर-ए-शाम न आया
ये तिश्नगियाँ कल भी थीं और आज भी 'ज़ैदी'
उस होंट का साया भी मिरे काम न आया
यूँ तो वो हर किसी से मिलती है
हम से अपनी ख़ुशी से मिलती है
सेज महकी बदन से शर्मा कर
ये अदा भी उसी से मिलती है
वो अभी फूल से नहीं मिलती
जूहिए की कली से मिलती है
दिन को ये रख-रखाव वाली शक्ल
शब को दीवानगी से मिलती है
आज-कल आप की ख़बर हम को!
ग़ैर की दोस्ती से मिलती है
शैख़-साहिब को रोज़ की रोटी
रात भर की बदी से मिलती है
आगे आगे जुनून भी होगा!
शेर में लौ अभी से मिलती है
दर्द-ए-दिल भी ग़म-ए-दौराँ के बराबर से उठा
आग सहरा में लगी और धुआँ घर से उठा
ताबिश-ए-हुस्न भी थी आतिश-ए-दुनिया भी मगर
शो'ला जिस ने मुझे फूँका मिरे अंदर से उठा
किसी मौसम की फ़क़ीरों को ज़रूरत न रही
आग भी अब्र भी तूफ़ान भी साग़र से उठा
बे-सदफ़ कितने ही दरियाओं से कुछ भी न हुआ
बोझ क़तरे का था ऐसा कि समुंदर से उठा
चाँद से शिकवा-ब-लब हूँ कि सुलाया क्यूँ था
मैं कि ख़ुर्शीद-ए-जहाँ-ताब की ठोकर से उठा
खाली सा लगे जब हम ना हों।
बात ऐसी हो की जज़्बात कम ना हो
खयालात ऐसे हों की कभी ग़म ना हो
दिल के कोने में इतनी सी जगह रखना
की खाली खाली सा लगे जब हम ना हों।
जलाने वाले जलाते ही हैं चराग़ आख़िर
एक चराग़ और एक किताब और एक उम्मीद असासा
उस के बाद तो जो कुछ है वो सब अफ़्साना है
- इफ़्तिख़ार आरिफ़
हम दुनिया से जब तंग आया करते हैं
अपने साथ इक शाम मनाया करते हैं
- तैमूर हसन
इश्क़ में भी सियासतें निकलीं
क़ुर्बतों में भी फ़ासला निकला
- रसा चुग़ताई
जलाने वाले जलाते ही हैं चराग़ आख़िर
ये क्या कहा कि हवा तेज़ है ज़माने की
- जमील मज़हरी
Monday, April 20, 2020
अपने शहर में ऐसे बेगाने हम न थे
अपने शहर में ऐसे बेगाने हम न थे
थे लोग बहुत जाने पहचाने कम न थे
थी रौनकें बाजार में गलियां भरी भरी
आपस में एक दूजे से अनजाने हम न थे
मिलते थे गर्मजोशी से बाहें उछाल कर
अपने भी दोस्तों में दीवाने कम न थे
होती थी चाय घरों में बेबाक गुफ्तगू
हम सबके अपने अपने अफसाने कम न थे
यूँ बोलती सी लगती थी ये ज़िन्दगी कभी
गो पहले भी ये जंगल औ' वीराने कम न थे
छुपते भी नहीं सामने आते भी नहीं वो
छुपने के लिए हालांकि तहखाने कम न थे
इंसानियत के रिश्तों में फिर से दरार है
पहले से ही दुनिया में ये खाने कम न थे
Sunday, April 19, 2020
मुस्कुरा कर तुम ने देखा दिल तुम्हारा हो गया
हम ने सीने से लगाया दिल न अपना बन सका
मुस्कुरा कर तुम ने देखा दिल तुम्हारा हो गया
किसी मोड़ पर फिर मुलाक़ात होगी
कहां आंसुओं की ये सौग़ात होगी
नए लोग होंगे नई बात होगी
मैं हर हाल में मुस्कुराता रहूंगा
तुम्हारी मोहब्बत अगर साथ होगी
चराग़ों को आंखों में महफ़ूज़ रखना
बड़ी दूर तक रात ही रात होगी
परेशां हो तुम भी परेशां हूं मैं भी
चलो मय-कदे में वहीं बात होगी
चराग़ों की लौ से सितारों की ज़ौ तक
तुम्हें मैं मिलूंगा जहां रात होगी
जहां वादियों में नए फूल आए
हमारी तुम्हारी मुलाक़ात होगी
सदाओं को अल्फ़ाज़ मिलने न पाएं
न बादल घिरेंगे न बरसात होगी
मुसाफ़िर हैं हम भी मुसाफ़िर हो तुम भी
किसी मोड़ पर फिर मुलाक़ात होगी
मुसाफिर शायरी
मुसाफ़िर हैं हम भी मुसाफ़िर हो तुम भी
किसी मोड़ पर फिर मुलाक़ात होगी
- बशीर बद्र
मुसाफ़िर ही मुसाफ़िर हर तरफ़ हैं
मगर हर शख़्स तन्हा जा रहा है
- अहमद नदीम क़ासमी
हर मुसाफ़िर के साथ आता है
इक नया रास्ता हमेशा से
- ताजदार आदिल
हुस्न उस का उसी मक़ाम पे है
ये मुसाफ़िर सफ़र नहीं करता
- ज़फ़र इक़बाल
नगरी नगरी फिरा मुसाफ़िर घर का रस्ता भूल गया
क्या है तेरा क्या है मेरा अपना पराया भूल गया
- मीराजी
ये आंसू ढूंढ़ता है तेरा दामन
मुसाफ़िर अपनी मंज़िल जानता है
- असद भोपाली
आख़िरी बस का एक मुसाफ़िर
शब-भर बैठा रह जाता है
- जानां मलिक
घर बसा कर भी मुसाफ़िर के मुसाफ़िर ठहरे
लोग दरवाज़ों से निकले कि मुहाजिर ठहरे
- क़ैसर-उल जाफ़री
दो क़दम चल आते उस के साथ साथ
जिस मुसाफ़िर को अकेला देखते
- जमाल एहसानी
मुसाफ़िर जा चुका लम्बे सफ़र पर
अभी तक धूप आंखें मल रही है
- मिर्ज़ा अतहर ज़िया
लोग नज़रों को भी पढ़ लेते हैं
लोग नज़रों को भी पढ़ लेते हैं
अपनी आंखों को झुकाए रखना
- अख़्तर होशियारपुरी
अभी न छेड़ मोहब्बत के गीत ऐ मुतरिब
अभी हयात का माहौल ख़ुश-गवार नहीं
- साहिर लुधियानवी
देखा तो सब के सर पे गुनाहों का बोझ था
ख़ुश थे तमाम नेकियाँ दरिया में डाल कर
- मोहम्मद अल्वी
मिरी शराब की तौबा पे जा न ऐ वाइज़
नशे की बात नहीं ए'तिबार के क़ाबिल
- हफ़ीज़ जौनपुरी
खुद महकना ही नहीं, गुलशन को महकाना भी है
दिलों में हुब्ब-ए-वतन है अगर तो एक रहो
निखारना ये चमन है अगर तो एक रहो
- जाफ़र मलीहाबादी
सीख ले फूलों से गाफिल मुद्दआ-ए-जिंदगी
खुद महकना ही नहीं, गुलशन को महकाना भी है
-असर लखनवी
आसमानों से बरसता है अंधेरा कैसा
अपनी पलकों पे लिए जश्ने-चिरागां चलिए
-अली सरदार जाफरी
ख़ारिज इंसानियत से उस को समझो
इंसाँ का अगर नहीं है हमदर्द इंसान
- तिलोकचंद महरूम
धूप में प्यासे को पानी, शब को रस्ते में चिराग
जाने वाले लोग कितने साहिबे-किरदार थे
-शेख परवेज आरिफ
ये दुनिया नफ़रतों के आख़री स्टेज पे है
इलाज इस का मोहब्बत के सिवा कुछ भी नहीं है
- चरण सिंह बशर
इक शजर ऐसा मोहब्बत का लगाया जाए
जिस का हम-साए के आँगन में भी साया जाए
- ज़फर ज़ैदी
अहल-ए-हुनर के दिल में धड़कते हैं सब के दिल
सारे जहाँ का दर्द हमारे जिगर में है
-फ़ज़्ल अहमद करीम फ़ज़ली
मिरे सेहन पर खुला आसमान रहे कि मैं
उसे धूप छाँव में बाँटना नहीं चाहता
- ख़ावर एजाज़
हमारे ग़म तुम्हारे ग़म बराबर हैं
सो इस निस्बत से तुम और हम बराबर हैं
- अज्ञात
लोग नज़रों को भी पढ़ लेते हैं
लोग नज़रों को भी पढ़ लेते हैं
अपनी आंखों को झुकाए रखना
- अख़्तर होशियारपुरी
अभी न छेड़ मोहब्बत के गीत ऐ मुतरिब
अभी हयात का माहौल ख़ुश-गवार नहीं
- साहिर लुधियानवी
देखा तो सब के सर पे गुनाहों का बोझ था
ख़ुश थे तमाम नेकियाँ दरिया में डाल कर
- मोहम्मद अल्वी
मिरी शराब की तौबा पे जा न ऐ वाइज़
नशे की बात नहीं ए'तिबार के क़ाबिल
- हफ़ीज़ जौनपुरी
उन मुश्किलों में मुस्कुराना धर्म है।
जिन मुश्किलों में मुस्कुराना हो मना,
उन मुश्किलों में मुस्कुराना धर्म है।
जिस वक़्त जीना गैर मुमकिन सा लगे,
उस वक़्त जीना फर्ज है इंसान का,
लाजिम लहर के साथ है तब खेलना,
जब हो समुन्द्र पे नशा तूफ़ान का
जिस वायु का दीपक बुझना ध्येय हो
उस वायु में दीपक जलाना धर्म है।
हो नहीं मंजिल कहीं जिस राह की
उस राह चलना चाहिए इंसान को
जिस दर्द से सारी उम्र रोते कटे
वह दर्द पाना है जरूरी प्यार को
जिस चाह का हस्ती मिटाना नाम है
उस चाह पर हस्ती मिटाना धर्म है।
आदत पड़ी हो भूल जाने की जिसे
हर दम उसी का नाम हो हर सांस पर
उसकी खबर में ही सफ़र सारा कटे
जो हर नजर से हर तरह हो बेखबर
जिस आँख का आखें चुराना काम हो
उस आँख से आखें मिलाना धर्म है।
जब हाथ से टूटे न अपनी हथकड़ी
तब मांग लो ताकत स्वयम जंजीर से
जिस दम न थमती हो नयन सावन झड़ी
उस दम हंसी ले लो किसी तस्वीर से
जब गीत गाना गुनगुनाना जुर्म हो
तब गीत गाना गुनगुनाना धर्म है।
-नीरज
दिल रखते हैं दिल में कोई अरमां नहीं रखते
आशिक़ हैं मगर इश्क़ नुमायां नहीं रखते
हम दिल की तरह गिरेबां नहीं रखते
सर रखते हैं सर में नहीं सौदा-ए-मोहब्बत
दिल रखते हैं दिल में कोई अरमां नहीं रखते
नफ़रत है कुछ ऐसी उन्हें आशुफ़्ता-सरों से
अपनी भी वो ज़ुल्फों को परेशां नहीं रखते
रखने को तो रखते हैं ख़बर सारे जहां की
इक मेरे ही दिल की वो ख़बर हां नहीं रखते
घर कर गईं दिल में वो मोहब्बत की निगाहें
उन तीरों का जख़्मी हूं जो पैकां नहीं रखते
दिल दे कोई तुम को तो किस उम्मीद पर अब दे
तुम दिल तो किसी का भी मेरी जां नहीं रखते
रहता है निगह-बान मेरा उन का तसव्वुर
वो मुझ को अकेला शब-ए-हिज्रां नहीं रखते
दुश्मन तो बहुत हज़रत-ए-नासेह हैं हमारे
हां दोस्त कोई आप सा नादां नहीं रखते
दिल हो जो परेशान तो दम भर भी ने ठहरे
कुछ बांध के तो गेसू-ए-पेचां नहीं रखते
गो और भी आशिक़ हैं ज़माने में बहुत से
‘बे-ख़ुद की तरह इश्क़ को पिन्हां नहीं रखते
Saturday, April 18, 2020
उन मुश्किलों में मुस्कुराना धर्म है।
जिन मुश्किलों में मुस्कुराना हो मना,
उन मुश्किलों में मुस्कुराना धर्म है।
जिस वक़्त जीना गैर मुमकिन सा लगे,
उस वक़्त जीना फर्ज है इंसान का,
लाजिम लहर के साथ है तब खेलना,
जब हो समुन्द्र पे नशा तूफ़ान का
जिस वायु का दीपक बुझना ध्येय हो
उस वायु में दीपक जलाना धर्म है।
हो नहीं मंजिल कहीं जिस राह की
उस राह चलना चाहिए इंसान को
जिस दर्द से सारी उम्र रोते कटे
वह दर्द पाना है जरूरी प्यार को
जिस चाह का हस्ती मिटाना नाम है
उस चाह पर हस्ती मिटाना धर्म है।
आदत पड़ी हो भूल जाने की जिसे
हर दम उसी का नाम हो हर सांस पर
उसकी खबर में ही सफ़र सारा कटे
जो हर नजर से हर तरह हो बेखबर
जिस आँख का आखें चुराना काम हो
उस आँख से आखें मिलाना धर्म है।
जब हाथ से टूटे न अपनी हथकड़ी
तब मांग लो ताकत स्वयम जंजीर से
जिस दम न थमती हो नयन सावन झड़ी
उस दम हंसी ले लो किसी तस्वीर से
जब गीत गाना गुनगुनाना जुर्म हो
तब गीत गाना गुनगुनाना धर्म है।
-नीरज
ख्वाब shayari
ख़्वाब ही ख़्वाब की ताबीर हुआ तो जाना
ज़िंदगी क्यूं किसी आंखों के असर में आई
- अता आबिदी
आईना आईना तैरता कोई अक्स
और हर ख़्वाब में दूसरा ख़्वाब है
- अतीक़ुल्लाह
मैं ने जो ख़्वाब अभी देखा नहीं है 'अख़्तर'
मेरा हर ख़्वाब उसी ख़्वाब की ताबीर भी है
- अख़्तर होशियारपुरी
ज़िंदगी ख़्वाब है और ख़्वाब भी ऐसा कि मियाँ
सोचते रहिए कि इस ख़्वाब की ताबीर है क्या
- अहमद अता
ख़्वाब तुम्हारे आते हैं
नींद उड़ा ले जाते हैं
- साबिर वसीम
ख़्वाब देखे थे टूट कर मैं ने
टूट कर ख़्वाब देखते हैं मुझे
- पिन्हां
जिस की कुछ ताबीर न हो
ख़्वाब उसी को कहते हैं
- ज़हीर रहमती
अंधे अदम वजूद के गिर्दाब से निकल
ये ज़िंदगी भी ख़्वाब है तू ख़्वाब से निकल
- आरिफ़ शफ़ीक़
ख़्वाब-हा-ख़्वाब जिस को चाहा था
रंग-हा-रंग उसी को भूल गया
- जौन एलिया
अब मुझे नींद ही नहीं आती
ख़्वाब है ख़्वाब का सहारा भी
- अजमल सिराज
विष्णु सक्सेना की कविताएँ
छोड़ चली क्यों साथ सखी री?
इसीलिए हमसे रचवाए क्या मेंहदी से हाथ सखी री!
गुमसुम होगी कल ये देहरी,
सिसकेगा घर का अंगना।
रोएँगी गुलशन की कलियाँ,
हिलकी-भर रोयें कंगना।
सूरज खाने को दौड़ेगा, डसे चंदनिया रात सखी री।
जिनके संग पंचगोटी खेली,
जिनके संग गुड्डा-गुड़िया।
कोई कहे मेरे बाग की बुलबुल,
कोई मैना, कोई चिड़िया।
जिस गोदी में खेली-कूदी, छूटे वे पितु-मात सखी री!
भइया याद दिलाए राखी,
भाभी होली फागुन की।
जब पीहर से जाए तू, माँ-
याद दिलाए सावन की।
सबके दिल दरपन जैसे हैं, देना ना आघात सखी री!
जा री जा, तेरे दामन में-
खुशियाँ हों दुनिया-भर की,
जैसे लाज रखी इस घर की-
वैसे रखना उस घर की
शुभ हो तुझे नया घर, लो जा खुशियों की सौग़ात सखी री!
सफ़र में था अब भी सफ़र कर रहा हूँ।
कि जीने की कोशिश में मैं मर रहा हूँ।
चरागों को इक रोज़ बुझना पड़ेगा,
ये मैं जानता हूँ मगर डर रहा हूँ।
सिवा मेरे कुछ और उसको न भाया,
मैं उसका पसंदीदा ज़ेवर रहा हूँ।
वही तो हमारी कहानी का हीरो,
मैं जिसकी कहानी का जोकर रहा हूँ।
जुनूँ की हदें टूटती जा रही हैं,
न तुम डर रही हो न मैं डर रहा हू
-विष्णु सक्सेना
इस तरह मुझको देखती हो क्या?
मेरी आँखों की रौशनी हो क्या?
मैं वही एक जलता सूरज हूँ
तुम वही धूप गुनगुनी हो क्या?
फूल की खुशबुओं में लिपटी, तुम
खूबसूरत-सी शायरी हो क्या?
मैंने हर पल जिसे तलाशा है,
शायरी की वह डायरी हो क्या?
जिस्म से जान रूठ कर पूछे,
तुम भी मेरी तरह दुखी हो क्या?
जब भी देखा है हंसते देखा है,
तुम भी बच्चों-सी रूठती हो क्या?
ज़िद तुम्हारी मुझे हंसाती है
मेरी बेटी-सी लाड़ली हो क्या?
आहटें सुन रहा हूं यादों की
आहटें सुन रहा हूं यादों की
आज भी अपने इंतिज़ार में गुम
- रसा चुग़ताई
मैं रोना चाहता हूं ख़ूब रोना चाहता हूं मैं
फिर उस के बाद गहरी नींद सोना चाहता हूं मैं
- फ़रहत एहसास
बहुत अज़ीज़ थी ये ज़िंदगी मगर हम लोग
कभी कभी तो किसी आरज़ू में मर भी गए
- अब्बास रिज़वी
इल्म की इब्तिदा है हंगामा
इल्म की इंतिहा है ख़ामोशी
- फ़िरदौस गयावी
Friday, April 17, 2020
"वो क्या गए कि बहारों में जी नहीं लगता
"वो क्या गए कि बहारों में जी नहीं लगता
नज़र, नवाज़ो, नज़ारों में जी नहीं लगता
आदमी हूं सो बहुत ख़्वाब हैं मेरे अंदर
सदा एक ही रुख़ नहीं नाव चलती
चलो तुम उधर को हवा हो जिधर की
- अल्ताफ़ हुसैन हाली
मेरी रुस्वाई के अस्बाब हैं मेरे अंदर
आदमी हूं सो बहुत ख़्वाब हैं मेरे अंदर
- असद बदायूंनी
हमें भी नींद आ जाएगी हम भी सो ही जाएंगे
अभी कुछ बे-क़रारी है सितारो तुम तो सो जाओ
- क़तील शिफ़ाई
अब घर भी नहीं घर की तमन्ना भी नहीं है
मुद्दत हुई सोचा था कि घर जाएंगे इक दिन
- साक़ी फ़ारुक़ी
तुम से मेरी मुलाक़ात
अँधेरे अकेले घर में
अँधेरी अकेली रात ।
तुम्हीं से लुक-छिप कर
आज न जाने कितने दिन बाद
तुम से मेरी मुलाक़ात ।
और इस अकेले सन्नाटे में
उठती है रह-रह कर
एक टीस-सी अकस्मात
कि कहने को तुम्हें इस
इतने घने अकेले में
मेरे पास कुछ भी नहीं है बात।
क्यों नहीं पहले कभी मैं इतना गूँगा हुआ?
क्यों नहीं प्यार के सुध-भूले क्षणों में
मुझे इस तीखे ज्ञान ने छुआ
कि खो देना तो देना नहीं होता-
भूल जाना और, उत्सर्ग है और बात:
कि जब तक वाणी हारी नहीं
और वह हार मैंने अपने में पूरी स्वीकारी नहीं,
अपनी भावना, संवेदना भी वारी नहीं-
तब तक वह प्यार भी
निरा संस्कार है,संस्कारी नहीं।
हाय, कितनी झीनी ओट में
झरते रहे आलोक के सोते अवदात-
और मुझे घेरे रही
अँधेरे अकेले घर में
अँधेरी अकेली रात।
-अज्ञेय
एक पुराने दुख ने पूछा
एक पुराने दुख ने पूछा- 'क्या तुम अभी वहीं रहते हो ?
उत्तर दिया - चले मत आना, मैंने वह घर बदल दिया है।'
जग ने मेरे सुख के पंछी के
पंखों में पत्थर बांधे हैं,
मेरी विपदाओं ने अपने
पैरों में पायल साधे हैं
एक वेदना मुझसे बोली- 'मैंने अपनी आँख न खोली'
उत्तर दिया- 'चली मत आना, मैंने वह उर बदल दिया है'
एक पुराने...
तूफानों से पहले मेरे
आंगन में तृण डोल गए हैं,
छुपी हुई बिजली बादल के
मन की घातें खोल गए हैं
बादल ने चपला चमकाई, मैंने यह आवाज लगाई-
'तुमने जिस पर आंख लगाई, मैंने तरुवर बदल दिया है'
अब वक़्त जो आने वाला है किस तरह गुज़रने वाला है.
अब वक़्त जो आने वाला है किस तरह गुज़रनेवाला है
वो शक्ल तो कब से ओझल है ये ज़ख़्म भी भरनेवाला है
दुनिया से बग़ावत करने की उस शख़्स से उम्मीदें कैसी
दुनिया के लिए जो ज़िन्दा है दुनिया से जो डरने वाला है
आदम की तरह आदम से मिले कुछ अच्छे-सच्चे काम करे
ये इल्म अगर हो इंसा को कब कैसे मरने वाला है
दरिया के किनारे पर इतनी ये भीड़ यही सुनकर आई
इक चांद बिना पैराहन के पानी में उतरने वाला है.
दोस्त अहबाब की नज़रों में बुरा हो गया मैं...
दोस्त अहबाब की नज़रों में बुरा हो गया मैं
वक़्त की बात है क्या होना था, क्या हो गया मैं.
दिल के दरवाज़े को वा रखने की आदत थी मुझे
याद आता नहीं कब किससे जुदा हो गया मैं.
कैसे तू सुनता बड़ा शोर था सन्नाटों का
दूर से आती हुई ऎसी सदा हो गया मैं.
क्या सबब इसका था, ख़ुद मुझ को भी मालूम नहीं
रात ख़ुश आ गई, और दिन से ख़फ़ा हो गया मैं.
भूले-बिसरे हुए लोगों में कशिश अब भी है
उनका ज़िक्र आया कि फिर नग़्मासरा हो गया मैं.
अर्थ :
वा=खुला
अहबाब= मित्र, दोस्त, प्रिय जन
बुझने के बाद जलना गवारा नहीं किया...
बुझने के बाद जलना गवारा नहीं किया,
हमने कोई भी काम दोबारा नहीं किया.
अच्छा है कोई पूछने वाला नहीं है यह
दुनिया ने क्यों ख़याल हमारा नहीं किया.
जीने की लत पड़ी नहीं शायद इसीलिए
झूठी तसल्लियों पे गुज़ारा नहीं किया.
यह सच अगर नहीं तो बहुत झूठ भी नहीं
तुझको भुला के कोई ख़सारा नहीं किया.
ख़सारा= नुक़सान
जो मंज़र देखने वाली हैं आंखें रोने वाला है...
जो मंज़र देखने वाली हैं आंखें रोने वाला है
कि फिर बंजर ज़मीं में बीज कोई बोने वाला है.
जो मंज़र देखने वाली हैं आंखें रोने वाला है
बहादुर लोग नादिम हो रहे हैं हैरती में हूं.
अजब दहशत-ख़बर है शहर खाली होने वाला है.
नादिम= शर्मिंदा, लज्जित ,पछताने वाला,पश्चाताप करने वाला, संकुचित.
दिल चीज़ क्या है आप मेरी जान लीजिये...
दिल चीज़ क्या है आप मेरी जान लीजिये
बस एक बार मेरा कहा मान लीजिये
इस अंजुमन में आपको आना है बार-बार
दीवार-ओ-दर को ग़ौर से पहचान लीजिये
माना के दोस्तों को नहीं दोस्ती का पास
लेकिन ये क्या के ग़ैर का एहसान लीजिये
कहिये तो आसमां को ज़मीं पर उतार लाएं
मुश्किल नहीं है कुछ भी अगर ठान लीजिये.
नोट: शहरयार जी ने ये ग़ज़ल उमराव जान मूवी के लिए लिखी थी.
तुझे खुद में महसूस करना जन्नत से कम नहीं
तेरा दीदार मेरे लिए मन्नत से कम नहीं.
तुझे खुद में महसूस करना जन्नत से कम नहीं!
धूप shayari
क्या जाने क्यूं जलती है
सदियों से बिचारी धूप
- ज़फ़र ताबिश
धूप ने गुज़ारिश की
एक बूंद बारिश की
- मोहम्मद अल्वी
आज वक़्त से पहले ही शाम कर देगी
- सदार आसिफ़
धूप छूती है बदन को जब 'शमीम'
बर्फ़ के सूरज पिघल जाते हैं क्यूं
- फ़ारूक़ शमीम
मयस्सर फिर न होगा चिलचिलाती धूप में चलना
यहीं के हो रहोगे साए में इक पल अगर बैठे
- शहज़ाद अहमद
बैठा ही रहा सुब्ह से में धूप ढले तक
साया ही समझती रही दीवार मुझे भी
- शहज़ाद अहमद
दोपहर की धूप में मेरे बुलाने के लिए
वो तिरा कोठे पे नंगे पाँव आना याद है
- हसरत मोहानी
धूप ही धूप थी इस के मुख पर
रूप ही रूप हवा में उतरा
- नासिर शहज़ाद
तमाम लोग इसी हसरत में धूप धूप जले
कभी तो साया घनेरे शजर से निकलेगा
- फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी
धूप या'नी कि ज़र्द ज़र्द इक धूप
लाल क़िले से ढल गई होगी
- जौन एलिया
Thursday, April 16, 2020
तुझे खुद में महसूस करना जन्नत से कम नहीं
तेरा दीदार मेरे लिए मन्नत से कम नहीं.
तुझे खुद में महसूस करना जन्नत से कम नहीं!
कुछ हम से कहा होता कुछ हम से सुना होता
ग़ैरों से कहा तुम ने ग़ैरों से सुना तुम ने
कुछ हम से कहा होता कुछ हम से सुना होता
- चराग़ हसन हसरत
जिनको कल की फ़िक्र नहींवो मुठ्ठी में आज रखते हैं ॥
जो फकीरी मिजाज रखते हैं
वो ठोकरों में ताज रखते हैं,
जिनको कल की फ़िक्र नहीं
वो मुठ्ठी में आज रखते हैं ॥
पतझड़ सी है जिंदगी और खयाल बहार का।
उलफत के मारों से न पूछो आलम इंतजार का,
पतझड़ सी है जिंदगी और खयाल बहार का।
क्या पत्थर के हो गये हम।
लाखों सदमें, ढेरों ग़म
फिर भी नहीं है ऑंखें नम।
एक मुद्दत से रोये नहीं,
क्या पत्थर के हो गये हम।
रवैये... "अजनबी" हो जाये तो 'बड़ी' "तकलीफ़" देते हैं
'चेहरे'..."अजनबी" हो जाये तो कोई बात नही
लेकिन
रवैये... "अजनबी" हो जाये तो 'बड़ी' "तकलीफ़" देते हैं
बेचैन इस क़दर था कि सोया न रात भर
इतना भी ना-उमीद दिल-ए-कम-नज़र न हो
मुमकिन नहीं कि शाम-ए-अलम की सहर न हो
- नरेश कुमार शाद
ख़्वाब होते हैं देखने के लिए
उन में जा कर मगर रहा न करो
- मुनीर नियाज़ी
पलकों से लिख रहा था तिरा नाम चाँद पर
- अज्ञात
नज़रों से नापता है समुंदर की वुसअतें
साहिल पे इक शख़्स अकेला खड़ा हुआ
- मोहम्मद अल्वी
शब्दों की मिट्टी से महफ़िल सजाता हूँ
कारीगर हूं साहब,
शब्दों की मिट्टी से महफ़िल सजाता हूँ....
किसी को बेकार,
किसी को लाजवाब नज़र आता हूं..
बेचैन इस क़दर था कि सोया न रात भर
इतना भी ना-उमीद दिल-ए-कम-नज़र न हो
मुमकिन नहीं कि शाम-ए-अलम की सहर न हो
- नरेश कुमार शाद
ख़्वाब होते हैं देखने के लिए
उन में जा कर मगर रहा न करो
- मुनीर नियाज़ी
पलकों से लिख रहा था तिरा नाम चाँद पर
- अज्ञात
नज़रों से नापता है समुंदर की वुसअतें
साहिल पे इक शख़्स अकेला खड़ा हुआ
- मोहम्मद अल्वी
क्या हुआ आज ये किस बात पे रोना आया
सब्र आ जाए इस की क्या उम्मीद
मैं वही, दिल वही है तू है वही
- जलील मानिकपूरी
तुम नहीं पास कोई पास नहीं
अब मुझे ज़िंदगी की आस नहीं
- जिगर बरेलवी
मौत का इंतिज़ार बाक़ी है
आप का इंतिज़ार था न रहा
- फ़ानी बदायूंनी
हम तो समझे थे कि हम भूल गए हैं उन को
क्या हुआ आज ये किस बात पे रोना आया
- साहिर लुधियानवी
Wednesday, April 15, 2020
कभी दिमाग़ कभी दिल कभी नज़र में रहो
कभी दिमाग़ कभी दिल कभी नज़र में रहो
ये सब तुम्हारे ही घर हैं किसी भी घर में रहो
जला न लो कहीं हमदर्दियों में अपना वजूद
गली में आग लगी हो तो अपने घर में रहो
तुम्हें पता ये चले घर की राहतें क्या हैं
हमारी तरह अगर चार दिन सफ़र में रहो
है अब ये हाल कि दर दर भटकते फिरते हैं
ग़मों से मैं ने कहा था कि मेरे घर में रहो
किसी को ज़ख़्म दिए हैं किसी को फूल दिए
बुरी हो चाहे भली हो मगर ख़बर में रहो
-राहत इंदौरी
कहानी शायरी
इक नज़र का फ़साना है दुनिया
सौ कहानी है इक कहानी से
- नुशूर वाहिदी
ज़िंदगी क्या है इक कहानी है
ये कहानी नहीं सुनानी है
- जौन एलिया
जिसे अंजाम तुम समझती हो
इब्तिदा है किसी कहानी की
- सरवत हुसैन
ख़ामोश सही मरकज़ी किरदार तो हम थे
फिर कैसे भला तेरी कहानी से निकलते
- सलीम कौसर
आप की मेरी कहानी एक है
कहिए अब मैं क्या सुनाऊँ क्या सुनूँ
- मैकश अकबराबादी
वो एक दिन एक अजनबी को
मिरी कहानी सुना रहा था
- गुलज़ार
सभी किरदार थक कर सो गए हैं
मगर अब तक कहानी चल रही है
- ख़ावर जीलानी
वो दिन गुज़रे कि जब ये ज़िंदगानी इक कहानी थी
मुझे अब हर कहानी ज़िंदगी मालूम होती है
- निसार इटावी
हर कहानी मिरी कहानी थी
जी न बहला किसी कहानी से
- साक़ी अमरोहवी
आप-बीती कहो कि जग-बीती
हर कहानी मिरी कहानी है
- फ़िराक़ गोरखपुरी
Monday, April 13, 2020
सियाह रात नहीं लेती नाम ढलने का
सियाह रात नहीं लेती नाम ढलने का
यही तो वक़्त है सूरज तिरे निकलने का
- शहरयार
काग़ज़ में दब के मर गए कीड़े किताब के
दीवाना बे-पढ़े-लिखे मशहूर हो गया
- बशीर बद्र
मैं अपने घर में हूँ घर से गए हुओं की तरह
मिरे ही सामने होता है तज़्किरा मेरा
- मुज़फ़्फ़र वारसी
नज़रों से नापता है समुंदर की वुसअतें
साहिल पे इक शख़्स अकेला खड़ा हुआ
- मोहम्मद अल्वी
एहतियात शायरी
कुछ एहतियात परिंदे भी रखना भूल गए
कुछ इंतिक़ाम भी आँधी ने बदतरीन लिए
- नुसरत ग्वालियारी
यानी कुछ इस तरह कि तुझे भी ख़बर न हो
इस एहतियात से तुझे देखा करूँगा मै
- अजमल सिराज
वो मेरे घर नहीं आता मैं उस के घर नहीं जाता
मगर इन एहतियातों से तअल्लुक़ मर नहीं जाता
- वसीम बरेलवी
मुझे संभालने में इतनी एहतियात न कर
बिखर न जाऊं कहीं मैं तिरी हिफ़ाज़त में
- सलीम कौसर
कुछ एहतियात परिंदे भी रखना भूल गए
कुछ इंतिक़ाम भी आंधी ने बदतरीन लिए
- नुसरत ग्वालियारी
लेते हैं लोग सांस भी अब एहतियात से
छोटा सा ही सही कोई फ़ित्ना उठाइए
- शहज़ाद अहमद
दिल की हालत अगर नहीं बदली
एहतियात-ए-नज़र से क्या होगा
- शम्सी मीनाई
वो मेरे घर नहीं आता मैं उस के घर नहीं जाता
मगर इन एहतियातों से तअल्लुक़ मर नहीं जाता
- वसीम बरेलवी
ज़मीं पे पांव ज़रा एहतियात से धरना
उखड़ गए तो क़दम फिर कहाँ संभलते हैं
- नजीब अहमद
तू बहुत एहतियात करता था
तेरे हाथों में आज क्यूं नहीं कुछ
- महमूद अज़हर
दिल की वारफ़्तगी है अपनी जगह
फिर भी कुछ एहतियात सी है अभी
- अहमद फ़राज़
संभल संभल के चलो एहतियात से पहनो
बड़े नसीब से मिलता है आदमी का लिबास
- असग़र मेहदी होश
अब एहतियात की दीवार क्या उठाते हो
जो चोर दिल में छुपा था वो काम कर भी गया
- अहमद फ़राज़
तेरे ख्याल से कभी फुर्सत नहीं मिली
सब कुछ मिला सुकून की दौलत नहीं मिली,
एक तुझको भूल जाने की मौहलत नहीं मिली,
करने को बहुत काम थे अपने लिए मगर,
हमको तेरे ख्याल से कभी फुर्सत नहीं मिली।।
रोशनी वाले मेरे नाम से जलते क्यूँ हैं
मैं ना जुगनू हूँ, दिया हूँ ना कोई तारा हूँ,
रोशनी वाले मेरे नाम से जलते क्यूँ हैं......
नींद से मेरा तअल्लुक़ ही नहीं बरसों से,
ख़्वाब आ आ के मेरी छत पे टहलते क्यूँ हैं....
तेरे ख्याल से कभी फुर्सत नहीं मिली
सब कुछ मिला सुकून की दौलत नहीं मिली,
एक तुझको भूल जाने की मौहलत नहीं मिली,
करने को बहुत काम थे अपने लिए मगर,
हमको तेरे ख्याल से कभी फुर्सत नहीं मिली।।
आपकी खुशी की ख़्वाहिश की.
ना दुआ माँगी ना कोई #गुज़ारिश की,
ना कोई फरियाद ना कोई नुमाइश की
जब भी झुका सर खुदा के आगे,
हमने बस आपकी खुशी की ख़्वाहिश की.
बीमार को मरज़ की दवा देनी चाहिए: राहत इंदौरी
बीमार को मरज़ की दवा देनी चाहिए
मैं पीना चाहता हूँ पिला देनी चाहिए
अल्लाह बरकतों से नवाज़ेगा इश्क़ में
है जितनी पूँजी पास लगा देनी चाहिए
दिल भी किसी फ़क़ीर के हुजरे से कम नहीं
दुनिया यहीं पे ला के छुपा देनी चाहिए
मैं ख़ुद भी करना चाहता हूँ अपना सामना
तुझ को भी अब नक़ाब उठा देनी चाहिए
मैं फूल हूँ तो फूल को गुल-दान हो नसीब
मैं आग हूँ तो आग बुझा देनी चाहिए
मैं ताज हूँ तो ताज को सर पर सजाएँ लोग
मैं ख़ाक हूँ तो ख़ाक उड़ा देनी चाहिए
मैं जब्र हूँ तो जब्र की ताईद बंद हो
मैं सब्र हूँ तो मुझ को दुआ देनी चाहिए
मैं ख़्वाब हूँ तो ख़्वाब से चौंकाइए मुझे
मैं नींद हूँ तो नींद उड़ा देनी चाहिए
सच बात कौन है जो सर-ए-आम कह सके
मैं कह रहा हूँ मुझ को सज़ा देनी चाहिए!
सुला कर तेज़ धारों को किनारो तुम न सो जाना
सुला कर तेज़ धारों को किनारो तुम न सो जाना
रवानी ज़िंदगानी है तो धारो तुम न सो जाना
मुझे तुम को सुनानी है मुकम्मल दास्ताँ अपनी
अधूरी दास्ताँ सुन कर सितारो तुम न सो जाना
तुम्हारे दायरे में ज़िंदगी महफ़ूज़ रहती है
निज़ाम-ए-बज़्म-ए-हस्ती के हिसारो तुम न सो जाना
तुम्हीं से जागता है दिल में एहसास-ए-रवा-दारी
क़याम-ए-रब्त-ए-बाहम के सहारो तुम न सो जाना
अगर नींद आ गई तुम को तो चश्मे सूख जाएँगे
कभी ग़फ़लत में पड़ कर कोहसारो तुम न सो जाना
तुम्हीं से बहर-ए-हस्ती में रवाँ है कश्ती-ए-हस्ती
अगर साहिल भी सो जाएँ तो धारो तुम न सो जाना
सदा-ए-दर्द की ख़ातिर तुम्हें 'कौसर' ने छेड़ा है
शिकस्ता-साज़ के बेदार तारो तुम न सो जाना
वो मेरे घर नहीं आता मैं उस के घर नहीं जाता
वो मेरे घर नहीं आता मैं उस के घर नहीं जाता
मगर इन एहतियातों से तअ'ल्लुक़ मर नहीं जाता
बुरे अच्छे हों जैसे भी हों सब रिश्ते यहीं के हैं
किसी को साथ दुनिया से कोई ले कर नहीं जाता
घरों की तर्बियत क्या आ गई टी-वी के हाथों में
कोई बच्चा अब अपने बाप के ऊपर नहीं जाता
खुले थे शहर में सौ दर मगर इक हद के अंदर ही
कहाँ जाता अगर मैं लौट के फिर घर नहीं जाता
मोहब्बत के ये आँसू हैं उन्हें आँखों में रहने दो
शरीफ़ों के घरों का मसअला बाहर नहीं जाता
'वसीम' उस से कहो दुनिया बहुत महदूद है मेरी
किसी दर का जो हो जाए वो फिर दर दर नहीं जाता!
वो कहें कैसे हो आप? और मैं रोने लग जाऊं।
ये भी मुमकिन है कि आँख भिगोने लग जाऊं,
वो कहें कैसे हो आप? और मैं रोने लग जाऊं।
-जौन एलिया
दो आरज़ू में कट गए दो इंतिज़ार में
ज़िंदगी जिस दयार में गुज़री
इक तेरे इख़्तियार में गुज़री
उम्र जो इश्क़ में गुज़रनी थी
वो तेरे इंतज़ार में गुज़री!
उम्र-ए-दराज़ माँग के लाई थी चार दिन
दो आरज़ू में कट गए दो इंतिज़ार में
~ सीमाब अकबराबादी
वजह तक पूछने का.... मौका ही ना मिला!
बस लम्हे गुजरते गए.... हम अजनबी होते गए!
रोज़ कहता हूँ कि अब उन को न देखूँगा कभी
रोज़ उस कूचे में इक काम निकल आता है
#सीमाब_अकबराबादी
ग़म मुझे हसरत मुझे वहशत मुझे सौदा मुझे
एक दिल दे कर ख़ुदा ने दे दिया क्या क्या मुझे
है हुसूल-ए-आरज़ू का राज़ तर्क-ए-आरज़ू
मैं ने दुनिया छोड़ दी तो मिल गई दुनिया मुझे
देखते ही देखते दुनिया से मैं उठ जाऊँगा
देखती की देखती रह जाएगी दुनिया मुझे
★★★
सीमाब अकबराबादी
दिल की बिसात क्या थी निगाह-ए-जमाल में
इक आईना था टूट गया देख-भाल में
आज़ुर्दा इस क़दर हूँ सराब-ए-ख़याल से
जी चाहता है तुम भी न आओ ख़याल में
दुनिया है ख़्वाब हासिल-ए-दुनिया ख़याल है
इंसान ख़्वाब देख रहा है ख़याल में
★★★
सीमाब अकबराबादी