Thursday, April 30, 2020

दिन फीका-फीका लगता है

दिन फीका-फीका लगता है
फीकी सँझबाती
जाने क्या हो गया इन दिनों
नींद नहीं आती।

ऐसा मौन मुखर जीवन में
कभी नहीं दीखा
बहते हुए दर्द का लावा
भीतर ही चीखा

छूटे कामकाज जब से
बिछड़े सुख के साथी।
घर-दुआर है दूर
कि जाना बेहद कठिन हुआ
एक वक्त का भोजन भी
मिल पाना कठिन हुआ

झेल सकेगा वही कि
जिसकी बज्जर-सी छाती।
कुछ बीमारी खा जाएगी
बाकी को सरकार
कुछ को खड़े निगल जाएगी
यह मंदी की मार

कौन जलाएगा तब आखिर
दिया और बाती।
चेती नहीं अभी दुनिया गर
वह दिन नहीं है दूर
खाकर के सल्फास मरेगा
अब किसान-मजदूर

रह जाएगी दुनिया
दुख की चौपाई गाती।

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