Sunday, April 26, 2020

अमीर मीनाई के शेर - शायरी...

उल्फ़त में बराबर है वफ़ा हो कि जफ़ा हो,
हर बात में लज़्ज़त है अगर दिल में मज़ा हो.

इक फूल है गुलाब का आज उनके हाथ में,
धड़का मुझे है ये कि किसी का जिगर न हो.

अल्लाह रे सादगी, नहीं इतनी उन्हें ख़बर,
मय्यत पे आ के पूछते हैं इन को क्या हुआ.

किसी रईस की महफ़िल का ज़िक्र क्या है, 
ख़ुदा के घर भी न जाएंगे बिन बुलाये हुए।

ऐ ज़ब्त देख इश्क़ की उनको ख़बर न हो,
दिल में हज़ार दर्द उठे आंख ततर न हो.

मुद्दत में शाम-ए-वस्ल हुई है मुझे नसीब,
दो चार साल तक तो इलाही सहर न हो.


क़ैदी जो था वो दिल से ख़रीदार हो गया...

क़ैदी जो था वो दिल से ख़रीदार हो गया
यूसुफ़ को क़ैदख़ाना भी बाज़ार हो गया

उल्टा वो मेरी रुह से बेज़ार हो गया
मैं नामे-हूर ले के गुनहगार हो गया

ख़्वाहिश जो रोशनी की हुई मुझको हिज्र में
जुगनु चमक के शम्ए शबे-तार हो गया

एहसां किसी का इस तने-लागिर से क्या उठे
सो मन का बोझ साया -ए-दीवार हो गया

बे-हीला इस मसीह तलक था गुज़र महाल,
क़ासिद समझ कि राह में बीमार हो गया.

जिस राहरव ने राह में देखा तेरा जमाल
आईनादार पुश्ते-ब-दिवार हो गया.

क्योंकर मैं तर्क़े-उल्फ़ते-मिज़्गां करूंअमीर
मंसूर चढ़ के दार पे सरदार हो गया.

उस की हसरत है जिसे दिल से मिटा भी न सकूं...

उस की हसरत है जिसे दिल से मिटा भी न सकूं
ढूंढने उस को चला हूं जिसे पा भी न सकूं

डाल कर ख़ाक मेरे ख़ून पे क़ातिल ने कहा
कुछ ये मेहंदी नहीं मेरी के मिटा भी न सकूं

ज़ब्त कमबख़्त ने और आ के गला घोंटा है
के उसे हाल सुनाऊं तो सुना भी न सकूं

उस के पहलू में जो ले जा के सुला दूं दिल को
नींद ऐसी उसे आए के जगा भी न सकूं

नक्श-ऐ-पा देख तो तूं लाख करूंगा सजदे
सर मेरा अर्श नहीं है कि झुका भी न सकूं

बेवफ़ा लिखते हैं वो अपनी कलम से मुझ को
ये वो किस्मत का लिखा है जो मिटा भी न सकूं

इस तरह सोये हैं सर रख के मेरे जानों पर
अपनी सोई हुई किस्मत को जगा भी न सकूं.

सरकती जाये है रुख़ से नक़ाब आहिस्ता-आहिस्ता...

सरकती जाये है रुख़ से नक़ाब आहिस्ता-आहिस्ता
निकलता आ रहा है आफ़ताब आहिस्ता-आहिस्ता

जवां होने लगे जब वो तो हम से कर लिया पर्दा
हया यकलख़त आई और शबाब आहिस्ता-आहिस्ता

शब-ए-फ़ुर्कत का जागा हूं फ़रिश्तों अब तो सोने दो
कभी फ़ुर्सत में कर लेना हिसाब आहिस्ता-आहिस्ता

सवाल-ए-वस्ल पर उन को अदू का ख़ौफ़ है इतना
दबे होंठों से देते हैं जवाब आहिस्ता आहिस्ता

हमारे और तुम्हारे प्यार में बस फ़र्क़ है इतना
इधर तो जल्दी जल्दी है उधर आहिस्ता आहिस्ता

वो बेदर्दी से सर काटे 'अमीर' और मैं कहूं उन से
हुज़ूर आहिस्ता-आहिस्ता जनाब आहिस्ता-आहिस्ता

हंस के फ़रमाते हैं वो देख कर हालत मेरी...

हंस के फ़रमाते हैं वो देख कर हालत मेरी
क्यों तुम आसान समझते थे मुहब्बत मेरी

बाद मरने के भी छोड़ी न रफ़ाक़त मेरी
मेरी तुर्बत से लगी बैठी है हसरत मेरी

मैंने आग़ोश-ए-तसव्वुर में भी खेंचा तो कहा
पिस गई पिस गई बेदर्द नज़ाकत मेरी

आईना सुबह-ए-शब-ए-वस्ल जो देखा तो कहा
देख ज़ालिम ये थी शाम को सूरत मेरी

यार पहलू में है तन्हाई है कह दो निकले
आज क्यों दिल में छुपी बैठी है हसरत मेरी

हुस्न और इश्क़ हमआग़ोश नज़र आ जाते
तेरी तस्वीर में खिंच जाती जो हैरत मेरी

किस ढिटाई से वो दिल छीन के कहते हैं
वो मेरा घर है रहे जिस में मुहब्बत मेरी.

इश्क़ में जां से गुज़रते हैं गुज़रने वाले...

इश्क़ में जां से गुज़रते हैं गुज़रने वाले
मौत की राह नहीं देखते मरने वाले

आख़िरी वक़्त भी पूरा न किया वादा-ए-वस्ल
आप आते ही रहे मर गये मरने वाले

उठ्ठे और कूच-ए-महबूब में पहुंचे आशिक़
ये मुसाफ़िर नहीं रस्ते में ठहरने वाले

जान देने का कहा मैंने तो हंसकर बोले
तुम सलामत रहो हर रोज़ के मरने वाले

आसमां पे जो सितारे नज़र आये
याद आये मुझे दाग़ अपने उभरने वाले.

आफ़त तो है वो नाज़ भी अंदाज़ भी लेकिन...

आफ़त तो है वो नाज़ भी अंदाज़ भी लेकिन
मरता हूं मैं जिस पर वो अदा और ही कुछ है

आहों से सोज़-ए-इश्क़ मिटाया न जाएगा
फूंकों से ये चराग़ बुझाया न जाएगा.

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