Saturday, April 18, 2020

विष्णु सक्सेना की कविताएँ

छोड़ चली क्यों साथ सखी री?
इसीलिए हमसे रचवाए क्या मेंहदी से हाथ सखी री!

गुमसुम होगी कल ये देहरी,
सिसकेगा घर का अंगना।
रोएँगी गुलशन की कलियाँ,
हिलकी-भर रोयें कंगना।
सूरज खाने को दौड़ेगा, डसे चंदनिया रात सखी री।

जिनके संग पंचगोटी खेली,
जिनके संग गुड्डा-गुड़िया।
कोई कहे मेरे बाग की बुलबुल,
कोई मैना, कोई चिड़िया।
जिस गोदी में खेली-कूदी, छूटे वे पितु-मात सखी री!

भइया याद दिलाए राखी,
भाभी होली फागुन की।
जब पीहर से जाए तू, माँ-
याद दिलाए सावन की।
सबके दिल दरपन जैसे हैं, देना ना आघात सखी री!

जा री जा, तेरे दामन में-
खुशियाँ हों दुनिया-भर की,
जैसे लाज रखी इस घर की-
वैसे रखना उस घर की
शुभ हो तुझे नया घर, लो जा खुशियों की सौग़ात सखी री!
सफ़र में था अब भी सफ़र कर रहा हूँ।
कि जीने की कोशिश में मैं मर रहा हूँ।

चरागों को इक रोज़ बुझना पड़ेगा,
ये मैं जानता हूँ मगर डर रहा हूँ।

सिवा मेरे कुछ और उसको न भाया,
मैं उसका पसंदीदा ज़ेवर रहा हूँ।

वही तो हमारी कहानी का हीरो,
मैं जिसकी कहानी का जोकर रहा हूँ।

जुनूँ की हदें टूटती जा रही हैं,
न तुम डर रही हो न मैं डर रहा हू

-विष्णु सक्सेना 

इस तरह मुझको देखती हो क्या?
मेरी आँखों की रौशनी हो क्या?

मैं वही एक जलता सूरज हूँ
तुम वही धूप गुनगुनी हो क्या?

फूल की खुशबुओं में लिपटी, तुम
खूबसूरत-सी शायरी हो क्या?

मैंने हर पल जिसे तलाशा है,
शायरी की वह डायरी हो क्या?

जिस्म से जान रूठ कर पूछे,
तुम भी मेरी तरह दुखी हो क्या?

जब भी देखा है हंसते देखा है,
तुम भी बच्चों-सी रूठती हो क्या?

ज़िद तुम्हारी मुझे हंसाती है
मेरी बेटी-सी लाड़ली हो क्या?

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