बन्द एक मुद्दत से हूं, खुल जाऊं क्या ?
आजिजी, मिन्नत, ख़ुशामद, इल्तिजा,
और मैं क्या क्या करूँ, मर जाऊं क्या ?
कल यहां मैं था जहां तुम आज हो
मैं तुम्हारी ही तरह इतराऊं क्या?
तेरे जलसे में तेरा परचम लिए
सैकड़ों लाशें भी हैं गिनवाऊं क्या ?
एक पत्थर है वो मेरी राह का,
गर न ठुकराऊं, तो ठोकर खाऊं क्या?
फिर जगाया तूने सोये शेर को
फिर वही लहजा दराज़ी ! आऊं क्या ?
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