ज़ुल्फ़ों को रुख़ पे डाल के झटका दिया कि यूं
निगाहें इस क़दर क़ातिल कि उफ़ उफ़
अदाएं इस क़दर प्यारी कि तौबा
वफ़ा तुम से करेंगे दुख सहेंगे नाज़ उठाएंगे
जिसे आता है दिल देना उसे हर काम आता है
तेरे तो ढंग हैं यही अपना बना के छोड़ दे
वो भी बुरा है बावला तुझ को जो पा के छोड़ दे
खिलना कहीं छुपा भी है चाहत के फूल का
ली घर में सांस और गली तक महक गई
जो कान लगा कर सुनते हैं क्या जानें रुमूज़ मोहब्बत के
अब होंट नहीं हिलने पाते और पहरों बातें होती हैं
वो सर-ए-बाम कब नहीं आता
जब मैं होता हूं तब नहीं आता
हम 'आरज़ू' आए बैठे हैं और वो शरमाए बैठे हैं
मुश्ताक़-नज़र गुस्ताख़ नहीं पर्दा सरकाना क्या जाने
किस गुल की बू है दामन-ए-दिल में बसी हुई
चलती है छेड़ती हुई बाद-ए-सबा मुझे
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