Thursday, March 9, 2023

ग़ज़ल में कैसे ढालूं तुझको क़ातिल सोचता हूं मैं

ग़ज़ल में कैसे ढालूं तुझको क़ातिल, सोचता हूं मैं,

तुझे महसूसना आसां है, मुश्किल सोचता हूं मैं ।

अगर मैं चाहूं भी, तो भी नहीं मिल पाएंगे हम-तुम,
भंवर मंझधार का तू है कि साहिल सोचता हूं मैं ।

क़ब्रगाहों का सफ़र ही कौंधता है मेरे ज़ेहन में,
वास्ते अपने, सुकूं की जब भी मंज़िल सोचता हूं मैं ।

मेरे मां - बाप, बीवी, बेटा - बेटी, सब परेशां हैं,
मोहल्ला भर मुझे कहता है जाहिल- सोचता हूं मैं ।
 

लिख नहीं सकता फ़साने अब शहर की तंग गलियों के,
बड़ा घर और कमाई वाली फाइल सोचता हूं मैं ।

खु़दा को ख़ैरात दिल से और रिश्वत खुले हाथों से,
कमाए और ज्यादा, है तू आक़िल, सोचता हूं मैं ।
 

दूसरों की छोड़िए, हम अपनी बातें भी नहीं सुनते,
कैसे हो जाते हैं नौकर सबके क़ाबिल, सोचता हूं मैं ।

रवि पाराशर

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