Sunday, August 30, 2020

काश फिर से वही ज़माना आए।

आया नया ज़माना
काश फिर से वही तराना आए
जो बीत गया, जिसे भूल गए
काश फिर से वही ज़माना आए।
वो नुक्कड़ की चाय
वो समोसों की दुकान
काश फिर से वही खाना आए
जो बीत गया, जिसे भूल गए
काश फिर से वही ज़माना आए।
वो स्कूल की पढ़ाई
वो दोस्तों से लड़ाई
काश फिर से वही दोस्ताना आए
जो बीत गया, जिसे भूल गए
काश फिर से वही ज़माना आए।
वो पेन छीनना
वो परेशान करना
काश फिर से वही बचपना आए
जो बीत गया, जिसे भूल गए
काश फिर से वही ज़माना आए
जो बिछड़ गए
जो दूर हुए
काश फिर से मिलने का बहाना आए
जो बीत गया, जिसे भूल गए
काश फिर से वही ज़माना आए।

मत पालना इश्क़ का शौक

मत पालना इश्क़ का शौक
बड़ा दर्द पहुंचाएगा
जिसको जितना चाहोगे
वो और दूर हो जाएगा,

ये इश्क़ का बुखार
तुम्हें सर चढ़कर बुलवाएगा
ख़्वाहिशों को तेरी ये
चूर चूर करवाएगा,

मत सोच इसका परिणाम
बहुत दर्दभरा आएगा
घर के किसी कोने में छुपकर
जब तू रो रोकर चिल्लाएगा,

है यकीं मुझे तू
एक रोज़ पछताएगा
लौटना चाहेगा पर तू
लौट नहीं आ पाएगा,

शुरूआत तो इसका बड़ा
शानदार दिखलाएगा
रातों को नींदों में बस
उसका ही ख़्वाब आएगा,

फिर तेरी आशाओं का बीड़ा
टूट बिखर जाएगा,
हर ग़म के महफ़िल का
तब तू हिस्सा बन जाएगा,

मत देख उसे तू
डूब वहीं पर जाएगा
जो नहीं रहा विश्वास तेरा
तू और कहां जाएगा,

उसके जाने के बाद तो बस
उसकी यादों का पिटारा ही रह जाएगा
बहुत भूलना चाहेगा पर तू
भूल नहीं पाएगा,

वो फ़िरदौस की तलाश में
कहीं और निकल जाएगा
तू और तेरा वजूद उसे बस
देखता रह जाएगा,

हां उस दिन तू इश्क़ पे
तौबा कर जाएगा
अब दूर नहीं वो दिन
बहुत जल्द ही आएगा,

उस दिन मुझको जीवन से
एक सीख मिल जाएगा
दोबारा इश्क़ की राह पर चलना
तेरे लिए मुश्किल हो जाएगा,

तब तेरा साथ बस तकिया
ही दे पाएगा
जिस पर सर रखकर तू अपने
आंसुओं को छुपाएगा

उसकी यादों में खोकर जब तू
ज़िंदा लाश बन जाएगा
बहुत पुकारेगा तू सबको पर
साथ कोई न आएगा,

जिसको जितना चाहोगे वो
और दूर हो जाएगा।

आज कल हैं वो याद आए हुए

हो गए दिन जिन्हें भुलाए हुए
आज कल हैं वो याद आए हुए
मैं ने रातें बहुत गुज़ारी हैं
सिर्फ़ दिल का दिया जलाए हुए

एक उसी शख़्स का नहीं मज़कूर
हम ज़माने के हैं सताए हुए
सोने आते हैं लोग बस्ती में
सारे दिन के थके थकाए हुए

मुस्कुराए बग़ैर भी वो होंट
नज़र आते हैं मुस्कुराए हुए
गो फ़लक पे नहीं पलक पे सही
दो सितारे हैं जगमगाए हुए

ऐ 'शुऊर' और कोई बात करो
हैं ये क़िस्से सुने सुनाए हुए.

2. ज़हर की चुटकी ही मिल जाए बराए दर्द-ए-दिल
कुछ न कुछ तो चाहिए बाबा दवा-ए-दर्द-ए-दिल
रात को आराम से हूँ मैं न दिन को चैन से
हाए है वहशत-ए-दिल हाए हाए दर्द-ए-दिल

दर्द-ए-दिल ने तो हमें बे-हाल कर के रख दिया
काश कोई और ग़म होता बजाए दर्द-ए-दिल
उस ने हम से ख़ैरियत पूछी तो हम चुप हो गए
कोई लफ़्ज़ों में भला कैसे बताए दर्द-ए-दिल

दो बालाएँ आज कल अपनी शरीक-ए-हाल हैं
इक बलाए दर्द-ए-दुनिया इक बलाए दर्द-ए-दिल
ज़िंदगी में हर तरह के लोग मिलते हैं 'शुऊर'
आश्ना-ए-दर्द-ए-दिल ना-आश्ना-ए-दर्द-ए-दिल.

3. उन से तन्हाई में बात होती रही
ग़ाएबाना मुलाक़ात होती रही
हम बुलाते वो तशरीफ़ लाते रहे
ख़्वाब में ये करामात होती रही

कासा-ए-चश्म लबरेज़ होती रही
उस दरीचे से ख़ैरात होती रही
दिल भी ज़ोर-आज़माई से हारा नहीं
गरचे हर मर्तबा मात होती रही

सर बचाए रहा सब्र का साएबाँ
आसमाँ से तो बरसात होती रही
गो मोहब्बत से हम जी चुराते रहे
ज़िंदगी भर ये बद-ज़ात होती रही

शहर भर में फिराया गया क़ैस को
कूचे कूचे मुदारात होती रही
जागते और सोते रहे हम 'शुऊर'
दिन निकलता रहा रात होती रही .

अदीम हाशमी शायरी...

अदीम हाशमी की चुनिंदा शायरी...

1.बस कोई ऐसी कमी सारे सफ़र में रह गई
जैसे कोई चीज़ चलते वक़्त घर में रह गई
कौन ये चलता है मेरे साथ बे-जिस्म-ओ-सदा
चाप ये किस की मेरी हर रह-गुज़र में रह गई

गूँजते रहते हैं तनहाई में भी दीवार ओ दर
क्या सदा उस ने मुझे दी थी के घर में रह गई
और तो मौसम गुज़र कर जा चुका वादी के पार
बस ज़रा सी बर्फ़ हर सूखे शजर में रह गई

रात दरिया में फिर इक शोला सा चकराता रहा
फिर कोई जलती हुई कश्ती भँवर में रह गई
रात भर होता रहा है किन ख़ज़ानों का नुज़ूल
मोतियों की सी झलक हर बर्ग-ए-तर में रह गई

लौट कर आए न क्यूँ जाते हुए लम्हे 'अदीम'
क्या कमी मेरी सदा-ए-बे-असर में रह गई.


2. तेरे लिए चलते थे हम तेरे लिए ठहर गए
तू ने कहा तो जी उठे तू ने कहा तो मर गए
वक़्त ही जुदाई का इतना तवील हो गया
दिल में तेरे विसाल के जितने थे ज़ख़्म भर गए

होता रहा मुक़ाबला पानी का और प्यास का
सहरा उमड़ उमड़ पड़े दरिया बिफर बिफर गए
वो भी ग़ुबार-ए-ख़्वाब था हम ग़ुबार-ए-ख़्वाब थे
वो भी कहीं बिखर गया हम भी कहीं बिखर गए

कोई किनार-ए-आब-जू बैठा हुआ है सर-निगूँ
कश्ती किधर चली गई जाने किधर भँवर गए
आज भी इंतिज़ार का वक़्त हुनूत हो गया
ऐसा लगा के हश्र तक सारे ही पल ठहर गए

बारिश-ए-वस्ल वो हुई सारा ग़ुबार धुल गया
वो भी निखर निखर गया हम भी निखर निखर गए
आब मुहीत-ए-इश्क़ का बहर अजीब बहर है
तेरे तो ग़र्क़ हो गए डूबे तो पार कर गए

इतने क़रीब हो गए अपने रक़ीब हो गए
वो भी ‘अदीम’ डर गया हम भी ‘अदीम’ डर गए
उस के सुलूक पर 'अदीम' अपनी हयात ओ मौत है
वो जो मिला तो जी उठे वो न मिला तो मर गए.


3. इक खिलौना टूट जाएगा नया मिल जाएगा
मैं नहीं तो कोई तुझ को दूसरा मिल जाएगा
भागता हूँ हर तरफ़ ऐसे हवा के साथ साथ
जिस तरह सच मुच मुझे उस का पता मिल जाएगा

किस तरह रोकोगे अश्कों को पस-ए-दीवार-ए-चश्म
ये तो पानी है इसे तो रास्ता मिल जाएगा
एक दिन तो ख़त्म होगी लफ़्ज़ ओ मानी की तलाश
एक दिन तो मुझ को मेरा मुद्दआ मिल जाएगा

छोड़ ख़ाली घर को आ बाहर चलें घर से 'अदीम'
कुछ नहीं तो कोई चेहरा चाँद सा मिल जाएगा.

4.फ़ासले ऐसे भी होंगे ये कभी सोचा भी न था
सामने बैठा था मेरे और वो मेरा न था
वो के ख़ुश-बू की तरह फैला था चार सू
मैं उसे महसूस कर सकता था छू सकता न था

रात भर पिछली ही आहट कान में आती रही
झाँक कर देखा गली में कोई भी आया न था
मैं तेरी सूरत लिए सारे ज़माने में फिरा
सारी दुनिया में मगर कोई तेरे जैसा न था

ये भी सब वीरानियाँ उस के जुदा होने से थीं
आँख धुँधलाई हुई थी शहर धुंदलाया न था
सैंकड़ों तूफ़ान लफ़्ज़ों में दबे थे ज़ेर-ए-लब
एक पत्थर था ख़ेमोशी का के जो हटता न था

याद कर के और भी तकलीफ़ होती थी 'अदीम'
भूल जाने के सिवा अब कोई भे चारा न था
मस्लेहत ने अजनबी हम को बनाया था 'अदीम'
वरना कब इक दूसरे को हम ने पहचाना न था

तो तेरा फ़र्ज़ ये बनता है मुझको टाल नहीं!

अगर निसाब के बाहर का मैं सवाल नहीं!
तो तेरा फ़र्ज़ ये बनता है मुझको टाल नहीं!

मुझे मलाल है इसका तुझे मलाल हुआ,
मुझे तबाह किया इसका कुछ मलाल नहीं?

सुनाऊँ हाल-ए-शिकस्ता किसे गले लगकर,
तमाम शहर में कोई भी हम-ख़याल नहीं!

अलग हुए थे समय के भँवर में फँसकर हम,
सो वक़्त याद रहा दिन महीने साल नहीं!


तुम्हारा साथ नहीं जन्मदिन के मौके पर,
हमारे गाल पे होली के दिन गुलाल नहीं!

Aks Samastipuri

हां तब तुमने मुझे अपनाया था ...

जब सबने मुझे मेरे गलतियों पर ठुकराया था....
हां तब तुमने मुझे अपनाया था ....
मेरे पास आकर मुझे चुपके से गले लगाया था .....
मेरी सारी गलतियों को भुला कर सब ठीक हो जाएगा
मुझे यह कहकर समझाया था ...
हां तुमने मुझे अपनाया था ....
दिल का हर कोना टूटा था इस लम्बी ठोकर खाने से
पर फिर उसने सब ठीक हो जाएगा
यह की कर समझाया था ......
हां तुमने मुझे अपनाया था....
मेरे पास आकर मुझे चुपके से गले लगाया था

ज़िंदगी ज़िंदा-दिली का है नाम

जान हम तुझ पे दिया करते हैं
नाम तेरा ही लिया करते हैं

चाक करने के लिए ऐ नासेह
हम गरेबान सिया करते हैं

साग़र-ए-चश्म से हम बादा-परस्त
मय-ए-दीदार पिया करते हैं

ज़िंदगी ज़िंदा-दिली का है नाम
मुर्दा-दिल ख़ाक जिया करते हैं

संग-ए-असवद भी है भारी पत्थर
लोग जो चूम लिया करते हैं

कल न देगा कोई मिट्टी भी उन्हें
आज ज़र जो कि दिया करते हैं

दफ़्न महबूब जहां हैं 
क़ब्रें हम चूम लिया करते हैं

Saturday, August 29, 2020

आरज़ू लखनवी रूमानी शेर

पूछा जो उन से चांद निकलता है किस तरह
ज़ुल्फ़ों को रुख़ पे डाल के झटका दिया कि यूं


निगाहें इस क़दर क़ातिल कि उफ़ उफ़
अदाएं इस क़दर प्यारी कि तौबा


वफ़ा तुम से करेंगे दुख सहेंगे नाज़ उठाएंगे
जिसे आता है दिल देना उसे हर काम आता है


तेरे तो ढंग हैं यही अपना बना के छोड़ दे
वो भी बुरा है बावला तुझ को जो पा के छोड़ दे


खिलना कहीं छुपा भी है चाहत के फूल का
ली घर में सांस और गली तक महक गई


जो कान लगा कर सुनते हैं क्या जानें रुमूज़ मोहब्बत के
अब होंट नहीं हिलने पाते और पहरों बातें होती हैं

वो सर-ए-बाम कब नहीं आता
जब मैं होता हूं तब नहीं आता


हम 'आरज़ू' आए बैठे हैं और वो शरमाए बैठे हैं
मुश्ताक़-नज़र गुस्ताख़ नहीं पर्दा सरकाना क्या जाने

किस गुल की बू है दामन-ए-दिल में बसी हुई
चलती है छेड़ती हुई बाद-ए-सबा मुझे

जेहन (दिमाग, Mind) शायरी

बंद कमरे में ज़ेहन क्या बदले
घर से निकलो तो कुछ फ़ज़ा बदले
- महताब आलम


अक़्ल से सिर्फ़ ज़ेहन रौशन था
इश्क़ ने दिल में रौशनी की है
- नरेश कुमार शाद

महशर में इत्तिफ़ाक़ से आया न ज़ेहन में
वर्ना तमाम उम्र तिरा नाम याद था
- अज्ञात


यूं तो कई किताबें पढ़ीं ज़ेहन में मगर
महफ़ूज़ एक सादा वरक़ देर तक रहा
- बेकल उत्साही


पांव रुकते ही नहीं ज़ेहन ठहरता ही नहीं
कोई नशा है थकन का कि उतरता ही नहीं
- अब्दुल हमीद


दफ़्तर में ज़ेहन घर निगह रास्ते में पांव
जीने की काविशों में बदन हाथ से गया
- ग़ज़नफ़र

ज़ेहन पर बोझ रहा, दिल भी परेशान हुआ
इन बड़े लोगों से मिल कर बड़ा नुक़सान हुआ
- तारिक़ क़मर


मसअले हल करते करते आदमी का ज़ेहन भी
बे-तरह उलझा हुआ इक मसअला हो जाएगा
- राणा गन्नौरी

याद ये किस की आ गई ज़ेहन का बोझ उतर गया
सारे ही ग़म भुला गई ज़ेहन का बोझ उतर गया
- मुज़फ़्फ़र रज़्मी


यादों की गूंज ज़ेहन से बाहर निकालिए
गुम्बद न चीख़ उठ्ठे कोई दर निकालिए
- सैफ़ ज़ुल्फ

साथ शायरी

वक़्त के साथ साथ चलना तुम
इक जगह तो न बैठ के रहियो
- वक़ास बलूच


तेज़ी से बीतते हुए लम्हों के साथ साथ
जीने का इक अज़ाब लिए भागते रहे
- आशुफ़्ता चंगेज़ी



वो ख़ुश किसी के साथ हैं ना-ख़ुश किसी के साथ
हर आदमी की बात है हर आदमी के साथ
- रसा रामपुरी


शाख़ से गिर कर हवा के साथ साथ
किस तरफ़ ये ज़र्द पत्ता जाएगा
- महफूजुर्रहमान आदिल


ये आरज़ू थी कि हम उस के साथ साथ चलें
मगर वो शख़्स तो रस्ता बदलता जाता है
- नोशी गिलानी


जो हर क़दम पे मिरे साथ साथ रहता था
ज़रूर कोई न कोई तो वास्ता होगा
- आशुफ़्ता चंगेज़ी

साथ होने के यक़ीं में भी मिरे साथ हो तुम
और न होने के भी इम्कान में रक्खा है तुम्हें
- तारिक़ क़मर


रहती है साथ साथ कोई ख़ुश-गवार याद
तुझ से बिछड़ के तेरी रिफ़ाक़त गई नहीं
- ख़ालिद इक़बाल यासिर

रिश्ता रहा अजीब मिरा ज़िंदगी के साथ
चलता हो जैसे कोई किसी अजनबी के साथ
- सय्यद शकील दस्नवी


दुनिया बदल रही है ज़माने के साथ साथ
अब रोज़ रोज़ देखने वाला कहां से लाएं
- इफ़्तिख़ार आरिफ़

Friday, August 28, 2020

दिल को कई कहानियाँ याद सी आ के रह गईं

कम से कम मौत से ऐसी मुझे उम्मीद नहीं
ज़िंदगी तू ने तो धोके पे दिया है धोका.

न कोई वा'दा न कोई यक़ीं न कोई उमीद
मगर हमें तो तिरा इंतिज़ार करना था

आने वाली नस्लें तुम पर फ़ख़्र करेंगी हम-असरो
जब भी उन को ध्यान आएगा तुम ने 'फ़िराक़' को देखा है

शाम भी थी धुआँ धुआँ हुस्न भी था उदास उदास
दिल को कई कहानियाँ याद सी आ के रह गईं

रघुपति सहाय फ़िराक़ (फ़िराक़ गोरखपुरी) 

क्यों खामोश बैठी है, ऐ जिन्दगी ।

क्यों खामोश बैठी है, ऐ जिन्दगी ।
खामोशी पल दो पल अच्छी, लम्बी हो तो खाक जिन्दगी ।
मुस्करा की ये तन्हाइयों का पतझड़ जाने को है ।
नजदीकियों के फूल सूनी डालियों पर उतर आने को है ।
ये आंसू तो पहचान है तेरे दिल के मर्म का ।
बह जाने दे ये तो बह जाने को है ।।

मुस्करा ले जिन्दगी की फिर ये शाम न हो ।
ऐसी हसीन इश्क़ का अंजाम न हो ।
हुस्न के मयखाने में प्यासे रह गये हम,
ऐ हसीन शायर, क्या तुझपे ये इल्ज़ाम न हो ।।

अपने बिखरे हसरतों को अंजाम दे जिन्दगी ।
आखों में बसते चेहरे को नाम दे जिन्दगी ।
तेरे रोने की उम्र सदियों पहले बीत गयी ।
अपने होठों पे शास्वत मुस्कान दे जिन्दगी ।।

अधरों पर मेरे ख़्वाहिशों के मुस्कान दे जिन्दगी ।
गिर के उठ जाने वाले हौसलों की उड़ान दे जिन्दगी ।
तेरे इश्क़ के चादर में लिपटा रहूं उम्र भर ।
मुझे मेरी आशिकी का ईनाम दे जिन्दगी ।।

उस को मेरी प्यास की शिद्दत का अंदाज़ा नहीं

खुल के मिलने का सलीक़ा आप को आता नहीं
और मेरे पास कोई चोर दरवाज़ा नहीं

वो समझता था उसे पा कर ही मैं रह जाऊंगा
उस को मेरी प्यास की शिद्दत का अंदाज़ा नहीं

जा दिखा दुनिया को मुझ को क्या दिखाता है ग़ुरूर
तू समुंदर है तो है मैं तो मगर प्यासा नहीं

कोई भी दस्तक करे आहट हो या आवाज़ दे
मेरे हाथों में मिरा घर तो है दरवाज़ा नहीं

अपनों को अपना कहा चाहे किसी दर्जे के हों
और जब ऐसा किया मैं ने तो शरमाया नहीं

उस की महफ़िल में उन्हीं की रौशनी जिन के चराग़
मैं भी कुछ होता तो मेरा भी दिया होता नहीं

तुझ से क्या बिछड़ा मिरी सारी हक़ीक़त खुल गई
अब कोई मौसम मिले तो मुझ से शरमाता नहीं

Thursday, August 27, 2020

तिरी दुनिया में जीने से तो बेहतर है कि मर जाएँ

तिरी दुनिया में जीने से तो बेहतर है कि मर जाएँ 
वही आँसू वही आहें वही ग़म है जिधर जाएँ 

कोई तो ऐसा घर होता जहाँ से प्यार मिल जाता 
वही बेगाने चेहरे हैं जहाँ जाएँ जिधर जाएँ 

अरे ओ आसमाँ वाले बता इस में बुरा क्या है 
ख़ुशी के चार झोंके गर इधर से भी गुज़र जाएँ
साहिर लुधियानवी 

तकरार' और 'नाराज़गी' शेर

फूल कर ले निबाह काँटों से 
आदमी ही न आदमी से मिले 
- ख़ुमार बाराबंकवी

जब मुलाक़ात हुई तुम से तो तकरार हुई
ऐसे मिलने से तो बेहतर है जुदा हो जाना
- अहसन मारहरवी

सिर्फ़ नुक़सान होता है यारो
लाभ तकरार से नहीं होता
- महावीर उत्तरांचली

भूले से कहा मान भी लेते हैं किसी का
हर बात में तकरार की आदत नहीं अच्छी
- बेख़ुद देहलवी

दोनों जहान दे के वो समझे ये ख़ुश रहा
याँ आ पड़ी ये शर्म कि तकरार क्या करें
- मिर्ज़ा ग़ालिब

या वो थे ख़फ़ा हम से या हम हैं ख़फ़ा उन से 
कल उन का ज़माना था आज अपना ज़माना है 
- जिगर मुरादाबादी


कपड़े सफ़ेद धो के जो पहने तो क्या हुआ 
धोना वही जो दिल की सियाही को धोइए 
- शैख़ ज़हूरूद्दीन हातिम

इतना तो बता जाओ ख़फ़ा होने से पहले 
वो क्या करें जो तुम से ख़फ़ा हो नहीं सकते 
- असद भोपाली

ज़रा सी बात पे नाराज़गी अगर है यही 
तो फिर निभेगी कहाँ दोस्ती अगर है यही 
-मुर्तज़ा बरलास

ग़ैरों से कहा तुम ने ग़ैरों से सुना तुम ने 
कुछ हम से कहा होता कुछ हम से सुना होता 
- चराग़ हसन हसरत

चुप रहो तो पूछता है ख़ैर है 
लो ख़मोशी भी शिकायत हो गई 
- अख़्तर अंसारी अकबराबादी

कोई चराग़ जलाता नहीं सलीक़े से 
मगर सभी को शिकायत हवा से होती है 
- ख़ुर्शीद तलब

सर-ए-महशर यही पूछूँगा ख़ुदा से पहले 
तू ने रोका भी था बंदे को ख़ता से पहले 
- आनंद नारायण मुल्ला

इक तेरी बे-रुख़ी से ज़माना ख़फ़ा हुआ 
ऐ संग-दिल तुझे भी ख़बर है कि क्या हुआ 
- अर्श सिद्दीक़ी

या ख़फ़ा होते थे हम तो मिन्नतें करते थे आप 
या ख़फ़ा हैं हम से वो और हम मना सकते नहीं 
- मिर्ज़ा मोहम्मद तक़ी हवस

Monday, August 24, 2020

यही तो वक़्त है सूरज तिरे निकलने का

मुसीबत का पहाड़ आख़िर किसी दिन कट ही जाएगा 
मुझे सर मार कर तेशे से मर जाना नहीं आता 
- यगाना चंगेज़ी


न थी हाल की जब हमें अपने ख़बर रहे देखते औरों के ऐब ओ हुनर 
पड़ी अपनी बुराइयों पर जो नज़र तो निगाह में कोई बुरा न रहा 
- बहादुर शाह ज़फ़र

सियाह रात नहीं लेती नाम ढलने का 
यही तो वक़्त है सूरज तिरे निकलने का 
- शहरयार

किनारे ही से तूफ़ाँ का तमाशा देखने वाले 
किनारे से कभी अंदाज़ा-ए-तूफ़ाँ नहीं होता 
- जगन्नाथ आज़ाद

Sunday, August 23, 2020

सच्चाइयां मालूम हुई

सच्चाइयां मालूम हुई

दर्पण धरा जब सामने,
सच्चाइयां मालूम हुईं।
ढल गईं खुशफ़हमियां,
परछाइयां मालूम हुईं।

अब तलक ढूंढ़ा किए,
दूसरों में ख़ामियां।
जब कथा अपनी गुनी,
सच्चाइयां मालूम हुईं।

हम ही हम हैं इस जहां में,
है औरों की औकात क्या।
पहाड़ के बाजू से गुजरे,
ऊंचाइयां मालूम हुईं।

ज़िंदगी के दरिया से,
बीन लूंगा मोती सब।
चार डुबकी खाईं तो,
गहराइयां मालूम हुईं।

मेला दुनिया का सजा है
रौनक है इसकी हमीं से,
उखड़ गए जब तंबू सारे,
तनहाइयां मालूम हुईं।

बिन मेरे न रह सकेगा,
तड़पेगा,आहें भरेगा।
फेर मुंह जब चल दिया वो,
रूसवाइयां मालूम हुईं।

दर्पण धरा जब सामने,
सच्चाइयां मालूम हुईं।
ढल गईं खुशफ़हमियां,
परछाइयां मालूम हुईं।

क्या किया आज तक क्या पाया

मैं सोच रहा, सिर पर अपार
दिन, मास, वर्ष का धरे भार
पल, प्रतिपल का अंबार लगा
आख़िर पाया तो क्या पाया?

जब तान छिड़ी, मैं बोल उठा
जब थाप पड़ी, पग डोल उठा
औरों के स्वर में स्वर भर कर
अब तक गाया तो क्या गाया?

सब लुटा विश्व को रंक हुआ
रीता तब मेरा अंक हुआ
दाता से फिर याचक बनकर
कण-कण पाया तो क्या पाया?

जिस ओर उठी अंगुली जग की
उस ओर मुड़ी गति भी पग की
जग के अंचल से बंधा हुआ
खिंचता आया तो क्या आया?

जो वर्तमान ने उगल दिया
उसको भविष्य ने निगल लिया
है ज्ञान, सत्य ही श्रेष्ठ किंतु
जूठन खाया तो क्या खाया?

हरिशंकर परसाई 

Saturday, August 22, 2020

कभी दिमाग़ कभी दिल कभी नज़र में रहो

कभी दिमाग़ कभी दिल कभी नज़र में रहो
ये सब तुम्हारे ही घर हैं किसी भी घर में रहो

जला न लो कहीं हमदर्दियों में अपना वजूद
गली में आग लगी हो तो अपने घर में रहो

तुम्हें पता ये चले घर की राहतें क्या हैं
हमारी तरह अगर चार दिन सफ़र में रहो

है अब ये हाल कि दर दर भटकते फिरते हैं
ग़मों से मैं ने कहा था कि मेरे घर में रहो

किसी को ज़ख़्म दिए हैं किसी को फूल दिए
बुरी हो चाहे भली हो मगर ख़बर में रहो

राहत इंदौर 


Friday, August 21, 2020

गुलजार शायरी

दिन कुछ ऐसे गुज़ारता है कोई
जैसे एहसाँ उतारता है कोई
दिल में कुछ यूँ सँभालता हूँ ग़म
जैसे ज़ेवर सँभालता है कोई
 

-आइना देख कर तसल्ली हुई

हम को इस घर में जानता है कोई
पेड़ पर पक गया है फल शायद
फिर से पत्थर उछालता है कोई
देर से गूँजते हैं सन्नाटे
जैसे हम को पुकारता है कोई .


-आदतन तुम ने कर दिए वादे 
आदतन हम ने एतबार किया 


-हाथ छूटें भी तो रिश्ते नहीं छोड़ा करते

वक़्त की शाख़ से लम्हे नहीं तोड़ा करते
जिस की आवाज़ में सिलवट हो निगाहों में शिकन
ऐसी तस्वीर के टुकड़े नहीं जोड़ा करते
लग के साहिल से जो बहता है उसे बहने दो
ऐसे दरिया का कभी रुख़ नहीं मोड़ा करते
जागने पर भी नहीं आँख से गिरतीं किर्चें
इस तरह ख़्वाबों से आँखें नहीं फोड़ा करते
शहद जीने का मिला करता है थोड़ा थोड़ा
जाने वालों के लिए दिल नहीं थोड़ा करते
जा के कोहसार से सर मारो कि आवाज़ तो हो
ख़स्ता दीवारों से माथा नहीं फोड़ा करते


-कोई अटका हुआ है पल शायद

वक़्त में पड़ गया है बल शायद
लब पे आई मिरी ग़ज़ल शायद
वो अकेले हैं आज-कल शायद
दिल अगर है तो दर्द भी होगा
इस का कोई नहीं है हल शायद
जानते हैं सवाब-ए-रहम-ओ-करम
उन से होता नहीं अमल शायद
आ रही है जो चाप क़दमों की
खिल रहे हैं कहीं कँवल शायद
राख को भी कुरेद कर देखो
अभी जलता हो कोई पल शायद
चाँद डूबे तो चाँद ही निकले
आप के पास होगा हल शायद .



-कितनी लम्बी ख़ामोशी से गुज़रा हूँ 
उन से कितना कुछ कहने की कोशिश की 


-ख़ामोशी का हासिल भी इक लम्बी सी ख़ामोशी थी
उन की बात सुनी भी हम ने अपनी बात सुनाई भी
कल साहिल पर लेटे लेटे कितनी सारी बातें कीं
आप का हुंकारा न आया चाँद ने बात कराई भी

Wednesday, August 19, 2020

किताबें झाँकती हैं बंद अलमारी के शीशों से

किताबें झाँकती हैं बंद अलमारी के शीशों से 
बड़ी हसरत से तकती हैं 
महीनों अब मुलाक़ातें नहीं होतीं 
जो शामें उन की सोहबत में कटा करती थीं, अब अक्सर 
गुज़र जाती हैं कम्पयूटर के पर्दों पर 

#Gulzar

Sunday, August 16, 2020

शामें किसी को मांगती हैं आज भी

नाक़ूस से ग़रज़ है न मतलब अज़ां से है
मुझ को अगर है इश्क़ तो हिन्दोस्तां से है
- ज़फ़र अली ख़ां


मिरी ज़बान के मौसम बदलते रहते हैं
मैं आदमी हूं मिरा एतिबार मत करना
- आसिम वास्ती


दोनों जहान तेरी मोहब्बत में हार के
वो जा रहा है कोई शब-ए-ग़म गुज़ार के
- फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

शामें किसी को मांगती हैं आज भी 'फ़िराक़'
गो ज़िंदगी में यूं मुझे कोई कमी नहीं
- फ़िराक़ गोरखपुरी


है ईरादा तुझे हाथ लगाकर देखूँ

आग और मोम को साथ लाकर देखूँ,
है ईरादा तुझे हाथ लगाकर देखूँ,
दिल का मंदिर बड़ा वीरान नजर आता है, 
सोचता हूँ इसमें तेरी तस्वीर लगा कर देखूँ. 

मेरी साँसों में समाया भी बहुत लगता है

मेरी साँसों में समाया भी बहुत लगता है, 
और वही शख्स पराया भी बहुत लगता है.
उससे मिलने की तमन्ना भी बहुत है,
लेकिन आने जाने में किराया भी बहुत लगता है! 

मिले कि बिछड़े मगर तुम्ही से वफा करेंगे, ये तय हुआ था!

हमेशा एक-दूसरे के हक में दुआ करेंगे, ये तय हुआ था,
मिले कि बिछड़े मगर तुम्ही से वफा करेंगे, ये तय हुआ था! 
कहीं रहो तुम, कहीं रहें हम, मगर मोहब्बत रहेगी कायम जो ये खता है तो उम्र भर ये खता करेंगे, ये तय हुआ था! 

मुझमे कितने राज़ हैं, बतलाऊं क्या

मुझमे कितने राज़ हैं, बतलाऊं क्या 
बन्द एक मुद्दत से हूं, खुल जाऊं क्या ?

आजिजी, मिन्नत, ख़ुशामद, इल्तिजा,
और मैं क्या क्या करूँ, मर जाऊं क्या ?

कल यहां मैं था जहां तुम आज हो 
मैं तुम्हारी ही तरह इतराऊं क्या? 

तेरे जलसे में तेरा परचम लिए 
सैकड़ों लाशें भी हैं गिनवाऊं क्या ?

एक पत्थर है वो मेरी राह का,
गर न ठुकराऊं, तो ठोकर खाऊं क्या?

फिर जगाया तूने सोये शेर को 
फिर वही लहजा दराज़ी ! आऊं क्या ?

सूरज नदी में डूब गया और हम गिलास में!

दिन ढल गया तो रात गुजरने की आस में,
सूरज नदी में डूब गया और हम गिलास में! 

जगा दिया तेरी पाजेब ने खनक के मुझे!

सुला चुकी थी ये दुनिया थपक थपक के मुझे,
जगा दिया तेरी पाजेब ने खनक के मुझे!
कोई बताए कि मैं इसका क्या ईलाज करूँ, 
परेशान करता है ये दिल धड़क धड़क के मुझे! 

Saturday, August 15, 2020

लेकिन हम न होंगे

'मोहब्बत करने वाले कम न होंगे
तिरी महफ़िल में लेकिन हम न होंगे
~ हफ़ीज़ होशियारपुरी'

Wednesday, August 12, 2020

मोहब्बतों के सफ़र पर निकल के देखूँगा

मोहब्बतों के सफ़र पर निकल के देखूँगा 
ये पुल-सिरात अगर है तो चल के देखूँगा 

सवाल ये है कि रफ़्तार किस की कितनी है 
मैं आफ़्ताब से आगे निकल के देखूँगा 

मज़ाक़ अच्छा रहेगा ये चाँद-तारों से 
मैं आज शाम से पहले ही ढल के देखूँगा 

वो मेरे हुक्म को फ़रियाद जान लेता है 
अगर ये सच है तो लहजा बदल के देखूँगा 

उजाले बाँटने वालों पे क्या गुज़रती है 
किसी चराग़ की मानिंद जल के देखूँगा 

अजब नहीं कि वही रौशनी मुझ मिल जाए 
मैं अपने घर से किसी दिन निकल के देखूँगा

राहत इंदौरी

Tuesday, August 11, 2020

राहत इंदौरी के चुनिंदा शेर

तूफ़ानों से आँख मिलाओ, सैलाबों पर वार करो
मल्लाहों का चक्कर छोड़ो, तैर के दरिया पार करो

ऐसी सर्दी है कि सूरज भी दुहाई मांगे
जो हो परदेस में वो किससे रज़ाई मांगे

अपने हाकिम की फकीरी पे तरस आता है
जो गरीबों से पसीने की कमाई मांगे

जुबां तो खोल, नजर तो मिला, जवाब तो दे
मैं कितनी बार लुटा हूँ, हिसाब तो दे

फूलों की दुकानें खोलो, खुशबू का व्यापार करो
इश्क़ खता है तो, ये खता एक बार नहीं, सौ बार करो

आँख में पानी रखो होंटों पे चिंगारी रखो
ज़िंदा रहना है तो तरकीबें बहुत सारी रखो

उस आदमी को बस इक धुन सवार रहती है
बहुत हसीन है दुनिया इसे ख़राब करूं

बहुत ग़ुरूर है दरिया को अपने होने पर
जो मेरी प्यास से उलझे तो धज्जियां उड़ जाएं

किसने दस्तक दी, दिल पे, ये कौन है
आप तो अन्दर हैं, बाहर कौन है

ये हादसा तो किसी दिन गुजरने वाला था
मैं बच भी जाता तो एक रोज मरने वाला था

मेरा नसीब, मेरे हाथ कट गए वरना
मैं तेरी माँग में सिन्दूर भरने वाला था

अंदर का ज़हर चूम लिया धुल के आ गए
कितने शरीफ़ लोग थे सब खुल के आ गए

कॉलेज के सब बच्चे चुप हैं काग़ज़ की इक नाव लिए
चारों तरफ़ दरिया की सूरत फैली हुई बेकारी है

कहीं अकेले में मिल कर झिंझोड़ दूँगा उसे
जहाँ जहाँ से वो टूटा है जोड़ दूँगा उसे

रोज़ तारों को नुमाइश में ख़लल पड़ता है
चाँद पागल है अँधेरे में निकल पड़ता है

हम से पहले भी मुसाफ़िर कई गुज़रे होंगे
कम से कम राह के पत्थर तो हटाते जाते

मोड़ होता है जवानी का सँभलने के लिए
और सब लोग यहीं आ के फिसलते क्यूं हैं

नींद से मेरा ताल्लुक़ ही नहीं बरसों से
ख़्वाब आ आ के मेरी छत पे टहलते क्यूं हैं

एक चिंगारी नज़र आई थी बस्ती में उसे
वो अलग हट गया आँधी को इशारा कर के

इन रातों से अपना रिश्ता जाने कैसा रिश्ता है
नींदें कमरों में जागी हैं ख़्वाब छतों पर बिखरे हैं

फिर भी मशहूर हैं शहरों में फ़साने मेरे..

अब ना मैं हूँ ना बाक़ी हैं ज़माने मेरे,
फिर भी मशहूर हैं शहरों में फ़साने मेरे..

दोस्ताना ज़िंदगी से मौत से यारी रखो!

आँख में पानी रखो होंटों पे चिंगारी रखो,
ज़िंदा रहना है तो तरकीबें बहुत सारी रखो,
एक ही नदी के हैं ये दो किनारे दोस्तो,
दोस्ताना ज़िंदगी से मौत से यारी रखो! 

राहत इंदौरी की गजलें


जो मेरा दोस्त भी है, मेरा हमनवा भी है...

जो मेरा दोस्त भी है, मेरा हमनवा भी है
वो शख्स, सिर्फ भला ही नहीं, बुरा भी है
मैं पूजता हूँ जिसे, उससे बेनियाज़ भी हूँ
मेरी नज़र में वो पत्थर भी है खुदा भी है
सवाल नींद का होता तो कोई बात ना थी
हमारे सामने ख्वाबों का मसअला भी है
जवाब दे ना सका, और बन गया दुश्मन
सवाल था, के तेरे घर में आईना भी है
ज़रूर वो मेरे बारे में राय दे लेकिन
ये पूछ लेना कभी मुझसे वो मिला भी है.

बुलाती है मगर जाने का नईं...

बुलाती है मगर जाने का नईं
ये दुनिया है इधर जाने का नईं
मेरे बेटे किसी से इश्क़ कर
मगर हद से गुजर जाने का नईं
सितारें नोच कर ले जाऊँगा
मैं खाली हाथ घर जाने का नईं
वबा फैली हुई है हर तरफ
अभी माहौल मर जाने का नईं
वो गर्दन नापता है नाप ले
मगर जालिम से डर जाने का नईं.

ये हादसा तो किसी दिन गुज़रने वाला था...

ये हादसा तो किसी दिन गुज़रने वाला था
मैं बच भी जाता तो इक रोज़ मरने वाला था
तेरे सलूक तेरी आगही की उम्र दराज़
मेरे अज़ीज़ मेरा ज़ख़्म भरने वाला था
बुलंदियों का नशा टूट कर बिखरने लगा
मेरा जहाज़ ज़मीन पर उतरने वाला था
मेरा नसीब मेरे हाथ काट गए वर्ना
मैं तेरी माँग में सिंदूर भरने वाला था
मेरे चिराग मेरी शब मेरी मुंडेरें हैं
मैं कब शरीर हवाओं से डरने वाला था.

वफ़ा को आज़माना चाहिए था, हमारा दिल दुखाना चाहिए था...

वफ़ा को आज़माना चाहिए था, हमारा दिल दुखाना चाहिए था
आना न आना मेरी मर्ज़ी है, तुमको तो बुलाना चाहिए था
हमारी ख्वाहिश एक घर की थी, उसे सारा ज़माना चाहिए था
मेरी आँखें कहाँ नाम हुई थीं, समुन्दर को बहाना चाहिए था
जहाँ पर पंहुचना मैं चाहता हूँ, वहां पे पंहुच जाना चाहिए था
हमारा ज़ख्म पुराना बहुत है, चरागर भी पुराना चाहिए था
मुझसे पहले वो किसी और की थी, मगर कुछ शायराना चाहिए था
चलो माना ये छोटी बात है, पर तुम्हें सब कुछ बताना चाहिए था
तेरा भी शहर में कोई नहीं था, मुझे भी एक ठिकाना चाहिए था
कि किस को किस तरह से भूलते हैं, तुम्हें मुझको सिखाना चाहिए था
ऐसा लगता है लहू में हमको, कलम को भी डुबाना चाहिए था
अब मेरे साथ रह के तंज़ ना कर, तुझे जाना था जाना चाहिए था
क्या बस मैंने ही की है बेवफाई,जो भी सच है बताना चाहिए था
मेरी बर्बादी पे वो चाहता है, मुझे भी मुस्कुराना चाहिए था
बस एक तू ही मेरे साथ में है, तुझे भी रूठ जाना चाहिए था
हमारे पास जो ये फन है मियां, हमें इस से कमाना चाहिए था
अब ये ताज किस काम का है, हमें सर को बचाना चाहिए था
उसी को याद रखा उम्र भर कि, जिसको भूल जाना चाहिए था
मुझसे बात भी करनी थी, उसको गले से भी लगाना चाहिए था
उसने प्यार से बुलाया था, हमें मर के भी आना चाहिए था.


हवा खुद अब के हवा के खिलाफ है, जानी...

हवा खुद अब के हवा के खिलाफ है, जानी
दिए जलाओ के मैदान साफ़ है, जानी
हमे चमकती हुई सर्दियों का खौफ नहीं
हमारे पास पुराना लिहाफ है, जानी
वफ़ा का नाम यहाँ हो चूका बहुत बदनाम
मैं बेवफा हूँ मुझे ऐतराफ है, जानी
है अपने रिश्तों की बुनियाद जिन शरायत पर
वहीँ से तेरा मेरा इख्तिलाफ है, जानी
वो मेरी पीठ में खंज़र उतार सकता है
के जंग में तो सभी कुछ मुआफ है, जानी
मैं जाहिलों में भी लहजा बदल नहीं सकता
मेरी असास यही शीन-काफ है, जानी.

Saturday, August 8, 2020

मीना कुमारी गजल

1
चांद तन्हा है आसमां तन्हा,
दिल मिला है कहां-कहां तन्हा

बुझ गई आस, छुप गया तारा,
थरथराता रहा धुआं तन्हा

ज़िन्दगी क्या इसी को कहते हैं,
जिस्म तन्हा है और जां तन्हा

हमसफ़र कोई गर मिले भी कभी,
दोनों चलते रहें कहां तन्हा

जलती-बुझती-सी रौशनी के परे,
सिमटा-सिमटा-सा एक मकां तन्हा

राह देखा करेगा सदियों तक
छोड़ जाएंगे ये जहां तन्हा।


2
टुकड़े-टुकड़े दिन बीता, धज्जी-धज्जी रात मिली
जिसका जितना आंचल था, उतनी ही सौगात मिली

रिमझिम-रिमझिम बूंदों में, ज़हर भी है और अमृत भी
आंखें हंस दीं दिल रोया, यह अच्छी बरसात मिली

जब चाहा दिल को समझें, हंसने की आवाज़ सुनी
जैसे कोई कहता हो, ले फिर तुझको मात मिली

मातें कैसी घातें क्या, चलते रहना आठ पहर
दिल-सा साथी जब पाया, बेचैनी भी साथ मिली

होंठों तक आते आते, जाने कितने रूप भरे
जलती-बुझती आंखों में, सादा-सी जो बात मिली

3
आगाज़ तो होता है अंजाम नहीं होता
जब मेरी कहानी में वो नाम नहीं होता

जब ज़ुल्फ़ की कालिख़ में घुल जाए कोई राही
बदनाम सही लेकिन गुमनाम नहीं होता

हंस-हंस के जवां दिल के हम क्यों न चुनें टुकडे़
हर शख्स़ की किस्मत में ईनाम नहीं होता

बहते हुए आंसू ने आंखों से कहा थम कर
जो मय से पिघल जाए वो जाम नहीं होता

दिन डूबे हैं या डूबे बारात लिये कश्ती
साहिल पे मगर कोई कोहराम नहीं होता

Thursday, August 6, 2020

तन्हा कविता

आया तू था यहां तन्हा,
जाएगा तू यहां से तन्हा।
जोड़ी है जो तूने दौलत,
रह जाएगी ये यहां तन्हा।।

बनाए थे मनसूबे रहने के यहां
मकान बनाए पक्के तूने यहां।
मिली थी दो गज जमीन यहां
सो गया था उसमें तू तन्हा।।

बुराई भलाई की थी तूने यहां,
अच्छे काम भी तूने किए यहां
बुरे काम भी तूने किए यहां
फिर भी रह गया तन्हा यहां।

आखरी सफ़र में जाएगा तन्हा
भले ही तेरे पीछे हो सारा जहां।
काफ़िला साथ चला तेरे साथ,
पर चलता रहा तब भी तन्हा।

चारों तरफ मुसाफ़िर ही मुसाफ़िर,
पर हर मुसाफ़िर जा रहा है तन्हा।
हर राह पर अब मुसाफ़िर है
पर राहे दिखती है अब तन्हा।

फैली कोरोना की महामारी यहां,
बन्द होकर रह गया तन्हा यहां।
निकल सका घर से बाहर कहीं,
तू मिल न सका किसी से यहां।।

मोहब्बत की थी जिससे यहां,
वो भी छोड़ गई है तुझे तन्हा।
इस तन्हाई में कैसे रहे जिंदा,
जो कभी न रही तुझसे तन्हा।

लिखा था जो कुछ मैंने यहां,
शायद रह रहा था मैं भी तन्हा
कलम ख़ुद पे ख़ुद चलती है,
जब बंदा होता है कभी तन्हा।

Tuesday, August 4, 2020

रक्षा बंधन शायरी

या रब मिरी दुआओं में इतना असर रहे
फूलों भरा सदा मिरी बहना का घर रहे
अज्ञात

याद आई जब मुझे 'फ़रहत' से छोटी थी बहन
मेरे दुश्मन की बहन ने मुझ को राखी बाँध दी
एहसान साक़िब



ज़िंदगी भर की हिफ़ाज़त की क़सम खाते हुए
भाई के हाथ पे इक बहन ने राखी बांधी
अज्ञात

किसी के ज़ख़्म पर चाहत से पट्टी कौन बांधेगा
अगर बहनें नहीं होंगी तो राखी कौन बाँधेगा
मुनव्वर राना


बहनों की मोहब्बत की है अज़्मत की अलामत
राखी का है त्यौहार मोहब्बत की अलामत
मुस्तफ़ा अकबर

बहन का प्यार जुदाई से कम नहीं होता
अगर वो दूर भी जाए तो ग़म नहीं होता
अज्ञात


Sunday, August 2, 2020

जब तक तुम्हारा हाथ मेरे हाथ में रहे

वो चाहता था कि कासा ख़रीद ले मेरा 
मैं उस के ताज की क़ीमत लगा के लौट आया.

कासा - भिक्षापात्र

ये कैंचीयाँ हमें उड़ने से खाक रोकेंगी,
कि हम परों से नहीं हौसलों से उड़ते हैं.

सूरज, सितारें, चाँद मेरे साथ में रहें, 
जब तक तुम्हारा हाथ मेरे हाथ में रहे, 
शाखों से टूट जाएँ वो पत्ते नहीं हम, 
आँधी से कोई कह दे कि औकात में रहे! 

रोज पत्थर कि हिमायत में गजल लिखते हैं, 
रोज शीशों से कोई काम निकल आता है! 

राज जो कुछ हो, इशारों में बता भी देना, 
हाथ जब उससे मिलाना, तो दबा भी देना! 

गुलाब, ख्वाब, दवा, जहर, जाम क्या क्या है? 
मैं आ गया हूँ, बता इन्तजाम क्या क्या है! 

किसने दस्तक दी दिल पे, कौन है? 
आप तो अंदर है बाहर कौन है! 

राहत इंदौरी




वो दोस्त मेरे लिए बहुत मायने रखते हैं

वो दोस्त मेरे लिए बहुत मायने रखते हैं,
जो सही वक्त पर मेरे सामने आईने रखते हैं..।।

रक्षाबंधन

थाल में सजाकर रोली, हल्दी, कुमकुम और चंदन
बहन भाई की कलाई में बांध देती रेशम की डोरी का बंधन
दिये जलाकर आरती उतारती और खिलाती मीठा अन्न
श्रावण पूर्णिमा के दिन जब जब आता रक्षाबंधन

भूल जाते सारे लड़ाई झगड़े, मनमुटाव और अनबन
हर्ष उल्लास के साथ यह पर्व मनाते मिलाकर मन से मन
भाई बहन को उपहार देता और रक्षा का देता वचन
श्रावण पूर्णिमा के दिन जब जब आता रक्षाबंधन

भाई बहन के प्यार का प्रतीक है यह रक्षाबंधन
खुशियों का त्यौहार है जिसमें दिखता अपनापन
श्रीकृष्ण के घायल उंगली पर द्रौपदी के साड़ी खंड लपेटकर हुआ था इसका सृजन
श्रावण पूर्णिमा के दिन जब जब आता रक्षाबंधन

Saturday, August 1, 2020

रस्म-ए-दुनिया भी है मौक़ा भी है दस्तूर भी है

ईद का दिन है गले आज तो मिल ले ज़ालिम 
रस्म-ए-दुनिया भी है मौक़ा भी है दस्तूर भी है 
~ क़मर बदायुनी 

ऐ मोहब्बत तुझे हम दूर से ही पहचान लेते हैं

तेरी सांसों कि आहट भी हम जान लेते हैं
ऐ मोहब्बत तुझे हम दूर से ही पहचान लेते हैं

दिल मेरा घबराता है, जब तन्हा रातों में
तेरी यादों की दीपमाला हम सजा लेते हैं

कहती है जिसे कामयाबी, ये दुनिया
उसकी कीमत का हर रोज हम इम्तिहान देते हैं

मेरी निगाहें हर रोज तुझसे वादा करती हैं
तेरी आंखो में हर रोज हम अपना नाम ढूंढते हैं

जब भी तेरी सूरत हमें याद आती है
तेरी सीरत को याद कर के दिल थाम लेते हैं

अश्क इन पलकों पे हर रोज छलक उठते हैं
बीते पलों का जब हम हिसाब करते है

इल्ज़ाम लगाते हो मनाया जी नहीं

जिसने फूलों को किताबों में छिपाया ही नहीं
उसने फिर लुत्फ़ मोहब्बत का उठाया ही नहीं
फोन पर फोन किया, तुमने उठाया ही नहीं
और इल्ज़ाम लगाते हो मनाया जी नहीं
वो तो बेताब रहे पास मिरे आने को
घर पे जब कोई नहीं था तो बुलाया ही नहीं
आशकी में तो मियां सर भी चले जाते हैं
और तुमने तो कभी कुछ भी गवाया ही नहीं
वस्ल (मिलन )का लुत्फ वो पा ही नही सकता, 
अपने दिलबर से कभी दूर जो आया ही नहीं।