देर से इंतज़ार है अपना
रोते फिरते हैं सारी -सारी रात
अब यही रोज़गार है अपना
दे के दिल हम जो हो गए मजबूर
इसमें क्या इख्तियार है अपना
जिसको तुम आसमान कहते हो “मीर“
वो दिलों का गुबार है अपना
आशु तो कुछ भी नहीं आसूँ के सिवा, जाने क्यों लोग इसे पलकों पे बैठा लेते हैं।
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