जीने के लिए मरना
ये कैसी सआदत है
मरने के लिए जीना
ये कैसी हिमाक़त है
अकेले जीओ
एक शमशाद तन की तरह
और मिलकर जीओ
एक बन की तरह
हमने उम्मीद के सहारे
टूटकर यूं ही ज़िन्दगी जी है
जिस तरह तुमसे आशिक़ी की है।
रविवार
आज रविवार है
आज ही पहली बार
सूरज की रोशनी में बाहर मुझे लाया गया
और मैं ज़िन्दगी में पहली बार
स्तम्भित हूं कि आसमान मुझसे इतनी दूर है !
इतना वह नीला है !
इतना वह विशाल है !
मैं वहां जड़ बना खड़ा रहा
फिर डरकर ज़मीन पर बैठ गया
मैंने सफ़ेद दीवार से पीठ चिपका दी
इस समय सामने वायवी स्वप्न नहीं
कोई संघर्ष नहीं, मुक्ति नहीं, पत्नी नहीं
पृथ्वी है, सूरज है, और मैं हूं
सुखी हूँ।
ज़िन्दगी बीत रही है
"ज़िन्दगी बीत रही है,
लूट लो वक़्त का वैभव,
इसके पहले कि सो जाओ
नींद न टूटने वाली;
भर लो काँच के पैमाने को सुर्ख़ शराब से नौजवान,
भोर हुई जग जाओ"
अपने नंगे बर्फ़ीले ठण्डे कमरे में
नौजवान उठा सुनकर चीत्कार
फ़ैक्ट्री की सीटी की,
जो देरी के लिए माफ़ नहीं करती
सम्भव है
उस दिन तक हो सकता है ज़िन्दा नहीं रहूं मैं
हो सकता है कि लटका दें मुझे पुल के पास
लटका रहूं मैं यहां
और मेरी परछाईं कँक्रीट के पुल पर
और शायद हो सकता है
कि उस दिन के बाद भी ज़िन्दा रहूं मैं
और चला आऊं यहां
सूखे सफ़ेद बालों वाला सिर लिए
यदि ज़िन्दा रहा मैं उस दिन तक
उस दिन के बाद भी
तो शहर की दीवारों से सटकर
मैं गाऊंगा गीत और वायलिन बजाऊंगा
बूढ़ों के लिए - बूढ़ों से घिरा
वैसे ही बूढ़े - जैसाकि मैं
जैसाकि मैं - आख़िरी जंगों में बचा
तब जहां भी नज़र डालूंगा मैं
हर जगह होगी हंसी और ख़ुशी
हर शाम होगी और ज़्यादा हसीन
सुनता रहूंगा मैं पास आते
नए क़दमों की आवाज़ें
नए-नए स्वर गाने लगेंगे नए गीत
~नाज़िम हिक़मत
No comments:
Post a Comment