Saturday, April 29, 2023

उन बीते दिनों की बात है ये, जब दिल की बस्ती बस्ती थी

क्या हाल कहें उस मौसम का


जब जिंस-ए-जवानी सस्ती थी 
जिस फूल को चूमो खुलता था 
जिस शय को देखो हँसती थी 
जीना सच्चा जीना था 
हस्ती ऐन हस्ती थी 
अफ़्साना जादू अफ़्सूँ था 
ग़फ़लत नींदें मस्ती थी 
उन बीते दिनों की बात है ये 
जब दिल की बस्ती बस्ती थी 

ग़फ़लत नींदें हस्ती थी 
आँखें क्या पैमाने थे 
हर रोज़ जवानी बिकती थी 
हर शाम-ओ-सहर बैआ'ने थे 
हर ख़ार में इक बुत-ख़ाना था 
हर फूल में सौ मय-ख़ाने थे 
काली काली ज़ुल्फ़ें थीं 
गोरे गोरे शाने थे 
उन बीते दिनों की बात है ये 
जब दिल की बस्ती बस्ती थी 

गोरे गोरे शाने थे 
हल्की-फुल्की बाँहें थीं 
हर-गाम पे ख़ल्वत-ख़ाने थे 
हर मोड़ पे इशरत-गाहें थीं 
तुग़्यान ख़ुशी के आँसू थे 
तकमील-ए-तरब की आहें थीं 
इश्वे चुहलें ग़म्ज़े थे 
पल्तीं ख़ुशियाँ चाहीं थीं 
उन बीते दिनों की बात है ये 
जब दिल की बस्ती बस्ती थी 



जोश मलीहाबादी

कुछ देर और बैठो - अभी तो रोशनी की सिलवटें हैं हमारे बीच


कुछ देर और बैठो - अभी तो रोशनी की सिलवटें हैं हमारे बीच


शब्दों के जलते कोयलों की आँच 
अभी तो तेज़ होनी शुरु हुई है 
उसकी दमक 
आत्मा तक तराश देनेवाली 
अपनी मुस्कान पर 
मुझे देख लेने दो 

मैं जानता हूँ 
आँच और रोशनी से 
किसी को रोका नहीं जा सकता 
दीवारें खड़ी करनी होती हैं 
ऐसी दीवार जो किसी का घर हो जाए। 

कुछ देर और बैठो – 
देखो पेड़ों की परछाइयाँ तक 
अभी उनमें लय नहीं हुई हैं 
और एक-एक पत्ती 
अलग-अलग दीख रही है। 

कुछ देर और बैठो – 
अपनी मुस्कान की यह तेज़ धार 
रगों को चीरती हुई 
मेरी आत्मा तक पहुँच जाने दो 
और उसकी एक ऐसी फाँक कर आने दो 
जिसे मैं अपने एकांत में 
शब्दों के इन जलते कोयलों पर 
लाख की तरह पिघला-पिघलाकर 
नाना आकृतियाँ बनाता रहूँ 
और अपने सूनेपन को 
तुमसे सजाता रहूँ। 

कुछ देर और बैठो – 
और एकटक मेरी ओर देखो 
कितनी बर्फ मुझमें गिर रही है। 
इस निचाट मैदान में 
हवाएँ कितनी गुर्रा रही हैं 
और हर परिचित कदमों की आहट 
कितनी अपरिचित और हमलावर होती जा रही है। 

कुछ देर और बैठो – 
इतनी देर तो ज़रूर ही 
कि जब तुम घर पहुँचकर 
अपने कपड़े उतारो 
तो एक परछाईं दीवार से सटी देख सको 
और उसे पहचान भी सको। 

कुछ देर और बैठो 
अभी तो रोशनी की सिलवटें हैं 
हमारे बीच। 
उन्हें हट तो जाने दो - 
शब्दों के इन जलते कोयलों पर 
गिरने तो दो 
समिधा की तरह 
मेरी एकांत 
समर्पित 
खामोशी!

सर्वेश्वरदयाल सक्सेना


फिर सर किसी के दर पे झुकाए हुए हैं हम

फिर सर किसी के दर पे झुकाए हुए हैं हम

पर्दे फिर आसमाँ के उठाए हुए हैं हम 

छाई हुई है इश्क़ की फिर दिल पे बे-ख़ुदी 
फिर ज़िंदगी को होश में लाए हुए हैं हम 

जिस का हर एक जुज़्व है इक्सीर-ए-ज़िंदगी 
फिर ख़ाक में वो जिंस मिलाए हुए हैं हम 

हाँ कौन पूछता है ख़ुशी का नहुफ़्ता राज़ 
फिर ग़म का बार दिल पे उठाए हुए हैं हम 

हाँ कौन दर्स-ए-इश्क़-ए-जुनूँ का है ख़्वास्त-गार 
आए कि हर सबक़ को भुलाए हुए हैं हम 

आए जिसे हो जादा-ए-रिफ़अत की आरज़ू 
फिर सर किसी के दर पे झुकाए हुए हैं हम 

बैअत को आए जिस को हो तहक़ीक़ का ख़याल 
कौन-ओ-मकाँ के राज़ को पाए हुए हैं हम 

हस्ती के दाम-ए-सख़्त से उकता गया है कौन 
कह दो कि फिर गिरफ़्त में आए हुए हैं हम 

हाँ किस के पा-ए-दिल में है ज़ंजीर-ए-आब-ओ-गिल 
कह दो कि दाम-ए-ज़ुल्फ़ में आए हुए हैं हम 

हाँ किस को जुस्तुजू है नसीम-ए-फ़राग़ की 
आसूदगी को आग लगाए हुए हैं हम 

हाँ किस को सैर-ए-अर्ज़-ओ-समा का है इश्तियाक़ 
धूनी फिर उस गली में रमाए हुए हैं हम 

जिस पर निसार कौन-ओ-मकाँ की हक़ीक़तें 
फिर 'जोश' उस फ़रेब में आए हुए हैं हम

Josh Malihabadi

आज पहली बार उस से मैं ने बेवफ़ाई की

इस क़दर मुसलसल थीं शिद्दतें जुदाई की 

आज पहली बार उस से मैं ने बेवफ़ाई की 

वर्ना अब तलक यूँ था ख़्वाहिशों की बारिश में 
या तो टूट कर रोया या ग़ज़ल-सराई की 

तज दिया था कल जिन को हम ने तेरी चाहत में 
आज उन से मजबूरन ताज़ा आश्नाई की 

हो चला था जब मुझ को इख़्तिलाफ़ अपने से 
तू ने किस घड़ी ज़ालिम मेरी हम-नवाई की 

तर्क कर चुके क़ासिद कू-ए-ना-मुरादाँ को 
कौन अब ख़बर लावे शहर-ए-आश्नाई की 

तंज़ ओ ता'ना ओ तोहमत सब हुनर हैं नासेह के 
आप से कोई पूछे हम ने क्या बुराई की 

फिर क़फ़स में शोर उट्ठा क़ैदियों का और सय्याद 
देखना उड़ा देगा फिर ख़बर रिहाई की 

दुख हुआ जब उस दर पर कल 'फ़राज़' को देखा 
लाख ऐब थे उस में ख़ू न थी गदाई की 

Ahmad Faraz

अच्छे लोगों की मैं अच्छाई से डरती हूं।

फरेबी दौर है इतना कि परछाई से डरती हूँ।

बदलते वक्त के चेहरों की रानाई से डरती हूँ।

बुरे लोगों से बचकर तो संभलना मुझको आता है

मगर इन अच्छे लोगों की मैं अच्छाई से डरती हूं।

anamika amber

Monday, April 24, 2023

मैं इस उम्मीद पे डूबा के तू बचा लेगा

मैं इस उम्मीद पे डूबा के तू बचा लेगा

अब इसके बाद मेरा इम्तेहान क्या लेगा

ये एक मेला है वादा किसी से क्या लेगा
ढलेगा दिन तो हर एक अपना रास्ता लेगा
 
मैं बुझ गया तो हमेशा को बुझ ही जाऊँगा
कोई चराग़ नहीं हूँ जो फिर जला लेगा
 

कलेजा चाहिए दुश्मन से दुश्मनी के लिए
जो बे-अमल है वो बदला किसी से क्या लेगा
 

मैं उसका हो नहीं सकता बता न देना उसे
सुनेगा तो लकीरें हाथ की अपनी जला लेगा
 

हज़ार तोड़ के आ जाऊँ उस से रिश्ता
मैं जानता हूँ वो जब चाहेगा बुला लेगा

वसीम बरेलवी

कभी ना मुकम्मल होने वाली मोहब्बत है तुमसे

वैसे हम हाल-ए-दिल

बयां तो नहीं करते किसी से 
पर अगर तुम पूछते 
हमारें दर्द की वज़ह 
तों हम बता देते कि 
कभी ना मुकम्मल होने वाली 
मोहब्बत है तुमसे।

Saturday, April 22, 2023

हम तो वो हैं तिरे चेहरे से दिखाई देंगे

तू समझता है कि रिश्तों की दुहाई देंगे

हम तो वो हैं तिरे चेहरे से दिखाई देंगे 

हम को महसूस किया जाए है ख़ुश्बू की तरह 
हम कोई शोर नहीं हैं जो सुनाई देंगे 
फ़ैसला लिक्खा हुआ रक्खा है पहले से ख़िलाफ़ 
आप क्या ख़ाक अदालत में सफ़ाई देंगे 

पिछली सफ़ में ही सही है तो इसी महफ़िल में 
आप देखेंगे तो हम क्यूँ न दिखाई देंगे

Thursday, April 20, 2023

वो जो हमेशा मेरे ख्यालों में रहता है

वो जो हमेशा मेरे ख्यालों में रहता है


आज कल वो बिखरा बिखरा रहता है 

उसके दोस्तों को देखता हूं हंसते हुए, 
वो उनके साथ भी रहकर चुप रहता है, 

मैं उसे हंसाने के लिए खुद हंसता हूं, 
फिर भी उसका चेहरा उतरा रहता है, 

बात क्या है पूछने पर बताता भी नहीं, 
लगता है किसी बात से बिगड़ा रहता है, 

मन करता है मनाऊं उसे किसी तरह, 
क्या करूं पास होकर भी दूर रहता है, 

क्या हो गई 'हमसे' से दुश्मनी उसकी, 
वो भी महीनों से उजड़ा उजड़ा रहता ह.


विदा के बाद प्रतीक्षा


परदे हटाकर करीने से

रोशनदान खोलकर 
कमरे का फर्नीचर सजाकर 
और स्वागत के शब्दों को तोलकर 
टक टकी बाँधकर बाहर देखता हूँ 
और देखता रहता हूँ मैं। 

सड़कों पर धूप चिलचिलाती है 
चिड़िया तक दिखायी नही देती 
पिघले तारकोल में 
हवा तक चिपक जाती है बहती बहती, 
किन्तु इस गर्मी के विषय में किसी से 
एक शब्द नही कहता हूँ मैं। 

सिर्फ़ कल्पनाओं से 
सूखी और बंजर ज़मीन को खरोंचता हूँ 
जन्म लिया करता है जो ऐसे हालात में 
उनके बारे में सोचता हूँ 
कितनी अजीब बात है कि आज भी 
प्रतीक्षा सहता हूँ।



दुष्यंत कुमार

जुनूँ से गुज़रने को जी चाहता है

जुनूँ से गुज़रने को जी चाहता है 

हँसी ज़ब्त करने को जी चाहता है 

जहाँ इश्क़ में डूब कर रह गए हैं 
वहीं फिर उभरने को जी चाहता है 

वो हम से ख़फ़ा हैं हम उन से ख़फ़ा हैं 
मगर बात करने को जी चाहता है 

है मुद्दत से बे-रंग नक़्श-ए-मोहब्बत 
कोई रंग भरने को जी चाहता है 

ब-ईं ख़ुद-सरी वो ग़ुरूर-ए-मोहब्बत 
उन्हें सज्दा करने को जी चाहता है 

क़ज़ा मुज़्दा-ए-ज़िंदगी ले के आए 
कुछ इस तरह मरने को जी चाहता है 

निज़ाम-ए-दो-आलम की हो ख़ैर या-रब 
फिर इक आह करने को जी चाहता है 

गुनाह-ए-मुकर्रर 'शकील' अल्लाह अल्लाह 
बिगड़ कर सँवरने को जी चाहता है 

Shakeel Badayuni

Tuesday, April 11, 2023

मुझ में कोई शख़्स मर गया है

रुकने का समय गुज़र गया है

जाना तिरा अब ठहर गया है 

रुख़्सत की घड़ी खड़ी है सर पर 
दिल कोई दो-नीम कर गया है 

मातम की फ़ज़ा है शहर-ए-दिल में 
मुझ में कोई शख़्स मर गया है 

बुझने को है फिर से चश्म-ए-नर्गिस 
फिर ख़्वाब-ए-सबा बिखर गया है 

बस एक निगाह की थी उस ने 
सारा चेहरा निखर गया है 

परवीन शाकिर


पढ़ लेते हैं पढ़ने वाले

पढ़ लेते हैं पढ़ने वाले,

चेहरे को चाहे जितना छिपा ले। 
गम और खुशी पता चल ही जाए, 
ये नहीं छिपने वाले। 
आ जाते हैं चेहरे पर भाव, 
चाहे दिखाओ कैसा भी ताव? 
फिर भी छिपाते हैं जनाब, 
नहीं छिपते चाल ढाल, हाव भाव। 
बंदे! यह वहम मत पालें, 
आराम से जिंदगी बिता लें। 
पढ़ लेते हैं पढ़ने वाले, 
चेहरे को चाहे जितना छिपा लें। 

Monday, April 10, 2023

कहाँ है शहर में अब कोई ज़िंदगी की तरफ

कोई किसी की तरफ़ है कोई किसी की तरफ़

कहाँ है शहर में अब कोई ज़िंदगी की तरफ़ 

सभी की नज़रों में ग़ाएब था जो वो हाज़िर था 
किसी ने रुक के नहीं देखा आदमी की तरफ़ 

तमाम शहर की शमएँ उसी से रौशन थीं 
कभी उजाला बहुत था किसी गली की तरफ़ 

कहीं की भूक हो हर खेत उस का अपना है 
कहीं की प्यास हो जाएगी वो नदी की तरफ़ 

न निकले ख़ैर से अल्लामा क़ौल से बाहर 
'यगाना' टूट गए जब चले ख़ुदी की तरफ़

निदा फ़ाजली




बात बात पर मैं दिखावा नहीं करता

बात बात पर मैं दिखावा नहीं करता


प्यार करता हूँ तुझे पर दावा नहीं करता 
तुम मुझे पड़ते तो समझ जाते 
मैं शोर शराबा नहीं करता 
मैं तो पहले दिन से तेरा हूँ 
बस अपना हक मैं जताया नहीं करता 
कुछ फैसले तेरे हक में रखता हूँ हमेशा 
बस तुझे बताया नहीं करता 
वो मुस्कराता हुआ अच्छा लगता है मुझे 
बस यही सोचकर मैं उसे सताया नहीं करता 
औरों की और मेरी मोहब्बत में बस इतना ही फर्क है 
मैं तेरी फिक्र करता हूँ बस दिखावा नहीं करता। 

चलता रहा मैं बस इस उम्मीद में

चलता रहा - चलता रहा मैं बस इस उम्मीद में।

हमसफ़र कोई मिल जाएगा मुझे कभी न कभी।। 

ग़म- ए- ज़ीस्त से कभी घबराया नहीं मैं 'दोस्त'। 
यकीं है इस रात की सहर होगी कभी न कभी।। 

अंधेरा है सब और मगर मेरे दिल में रोशनी है। 
शम - ए - उम्मीद भी रोशन होगी कभी न कभी।। 

वादा करना और कर के तोड़ना फितरत है तेरी। 
बा-उम्मीद हूं वादा-ए-वफ़ा निभाएगा कभी न कभी।।


मुझसे रोज मिलती, फिजाओं से पूछो

मुझसे रोज मिलती, फिजाओं से पूछो।

मेरे दर्द की कहानी हवाओं से पूछो। 
मुझसे रोज मिलती ... 
बेकुसूर हो के भी बहती हैं, 
ये सारी सारी रात तड़पती हैं। 
कभी होठों पर मुस्कान सजे, 
उस मुस्कान की राह तकती हैं। 
अश्कों को समेटे रहती, आँखों से पूछो। 
मेरे दर्द की कहानी हवाओं से पूछो। 
मुझसे रोज मिलती ........ 
गम-ए-दर्द की काली घटायें छाई हैं, 
जब से घर बदल के आये हैं। 
बाबुल का आंगन, फिजाओं की रंगत, 
वो मुस्कुराते लम्हे ना पाये हैं। 
मेरी बदहाली इन घटाओं से पूछो। 
मेरे दर्द की कहानी हवाओं से पूछो। 
मुझसे रोज मिलती ........ 
दो हिस्सों में बटा दिल करके वफ़ा, 
एक रोया मेरे लिए, दूजे ने की खता। 
रब्ब से दुआ उसकी सलामत-ए-फ़िक्र, 
जिसने दो हिस्सों में बटने की दी सजा। 
मेरे दिल का हाल उन सजाओं से पूछो। 
मेरे दर्द की कहानी हवाओं से पूछो। 
मुझसे रोज मिलती ........

सहरा शायरी

मैं वो सहरा जिसे पानी की हवस ले डूबी

तू वो बादल जो कभी टूट के बरसा ही नहीं
- सुल्तान अख़्तर 


हैरत से तकता है सहरा बारिश के नज़राने को
कितनी दूर से आई है ये रेत से हाथ मिलाने को
- उस्मानी 

हमें रंजिश नहीं दरिया से कोई
सलामत गर रहे सहरा हमारा
- सिराज फ़ैसल ख़ान 

 

राब्ता क्यूँ रखूँ मैं दरिया से
प्यास बुझती है मेरी सहरा से
- ज़फ़र इक़बाल ज़फ़र

मैं था जब कारवाँ के साथ तो गुलज़ार थी दुनिया
मगर तन्हा हुआ तो हर तरफ़ सहरा ही सहरा था
- मनीश शुक्ला 


मेरे माथे पे उभर आते थे वहशत के नुक़ूश
मेरी मिट्टी किसी सहरा से उठाई गई थी
- क़मर अब्बास क़मर 

बाग़ में लगता नहीं सहरा से घबराता है दिल
अब कहाँ ले जा के बैठें ऐसे दीवाने को हम
- नज़ीर अकबराबादी 


हर कोई दिल की हथेली पे है सहरा रक्खे
किस को सैराब करे वो किसे प्यासा रक्खे
- अहमद फ़राज़ 


भड़काएँ मिरी प्यास को अक्सर तिरी आँखें
सहरा मिरा चेहरा है समुंदर तिरी आँखें
- मोहसिन नक़वी 


है अजब फ़ैसले का सहरा भी
चल न पड़िए तो पाँव जलते हैं
- जौन एलिया 

नया हुस्न : कितनी रंगीं है फ़ज़ा कितनी हसीं है दुनिया

कितनी रंगीं है फ़ज़ा कितनी हसीं है दुनिया

कितना सरशार है ज़ौक़-ए-चमन-आराई आज
इस सलीक़े से सजाई गई बज़्म-ए-गीती
तू भी दीवार-ए-अजन्ता से उतर आई आज

रू-नुमाई की ये साअत ये तही-दस्ती-ए-शौक़
न चुरा सकता हूँ आँखें न मिला सकता हूँ
प्यार सौग़ात, वफ़ा नज़्र, मोहब्बत तोहफ़ा
यही दौलत तिरे क़दमों पे लुटा सकता हूँ

कब से तख़्ईल में लर्ज़ां था ये नाज़ुक पैकर
कब से ख़्वाबों में मचलती थी जवानी तेरी
मेरे अफ़्साने का उनवान बनी जाती है
ढल के साँचे में हक़ीक़त के कहानी तेरी

मरहले झेल के निखरा है मज़ाक़-ए-तख़्लीक़
सई-ए-पैहम ने दिए हैं ये ख़द-ओ-ख़ाल तुझे
ज़िन्दगी चलती रही काँटों पे, अँगारों पर
जब मिली इतनी हसीं, इतनी सुबुक चाल तुझे
 

तेरे क़ामत में है इंसाँ की बुलन्दी का वक़ार
दुख़्तर-ए-शहर है, तहज़ीब का शहकार है तू
अब न झपकेगी पलक, अब न हटेंगी नज़रें
हुस्न का मेरे लिए आख़िरी मेआर है तू

ये तिरा पैकर-ए-सीमीं, ये गुलाबी सारी
दस्त-ए-मेहनत ने शफ़क़ बन के उढ़ा दी तुझ को
जिस से महरूम है फ़ितरत का जमाल-ए-रंगीं
तर्बियत ने वो लताफ़त भी सिखा दी तुझ को
 

आगही ने तिरी बातों में खिलाईं कलियाँ
इल्म ने शक्करीं लहजे में निचोड़े अंगूर
दिलरुबाई का ये अन्दाज़ किसे आता था
तू है जिस साँस में नज़दीक उसी साँस में दूर

ये लताफ़त, ये नज़ाकत, ये हया, ये शोख़ी
सौ दिए जुलते हैं उमड़ी हुई ज़ुल्मत के ख़िलाफ़
लब-ए-शादाब पे छलकी हुई गुलनार हँसी
इक बग़ावत है ये आईन-ए-जराहत के ख़िलाफ़
 

हौसले जाग उठे सोज़-ए-यक़ीं जाग उठा
निगह-ए-नाज़ के बे-नाम इशारों को सलाम
तू जहाँ रहती है उस अर्ज़-ए-हसीं पर सज्दा
जिन में तू मिलती है उन राह-गुज़ारों को सलाम

आ क़रीब आ कि ये जूड़ा मैं परेशाँ कर दूँ
तिश्ना-कामी को घटाओं का पयाम आ जाए
जिस के माथे से उभरती हैं हज़ारों सुब्हें
मिरी दुनिया में भी ऐसी कोई शाम आ जाए

कैफ़ी आज़मी


धीरे-धीरे बीती साँझ

धीरे-धीरे बीती साँझ

धीरे-धीरे डूबा क्षितिज अन्धेरे की लय में
विलय हुआ मैं बैठा वन के बीच
छवि मेरी गुम हुई पत्थरों के
ऊबड़खाबड़पन में, बैठा पत्थर एक
प्रतीक्षा घायल । लहू चन्द्रमा
उठा अचानक बादल का दिल फाड़
हमारे हृदय-देश में हुआ उजाला
गाढ़ा-गाढ़ा मद्धिम-मद्धिम रक्तिम

स्मृति लौटी फिर किसकी
ठगा हुआ मैं
हुआ तिरोहित
पछतावे के अन्धे
तम में ।

Sunday, April 9, 2023

सवाल घर नहीं बुनियाद पर उठाया है

सवाल घर नहीं बुनियाद पर उठाया है,

हमारे पाँव की मिट्टी ने सर उठाया है


हमेशा सर पे रही इक चटान रिश्तों की 
ये बोझ वो है जिसे उम्र-भर उठाया है 

मिरी ग़ुलैल के पत्थर का कार-नामा था 
मगर ये कौन है जिस ने समर उठाया है 

यही ज़मीं में दबाएगा एक दिन हम को 
ये आसमान जिसे दोश पर उठाया है 

बुलंदियों को पता चल गया कि फिर मैं ने 
हवा का टूटा हुआ एक पर उठाया है 

महा-बली से बग़ावत बहुत ज़रूरी है 
क़दम ये हम ने समझ सोच कर उठाया है

राहत indori 

टूट सा गया हूँ तेरे चले जाने से


हो सके तो लौट आ किसी बहाने से, 
कोई टूट सा गया है तेरे चले जाने से। 


कब तक तेरी यादों में रोता रहूंगा,

तेरे लिए अपना सब कुछ खोता रहूंगा। 

मेरे घर के भी कई जरूरी काम है, 
मुहल्ले का सीधा लड़का तेरे लिए बदनाम है। 

बहुत आसानी से चली गई तुम किसी और की बाहों में, 
दिन रात तड़पता रहा मैं तेरे साथ गुजरे यादों में। 


Saturday, April 8, 2023

वो खफा है तो कोई बात नहीं

वो खफा है तो कोई बात नहीं

इश्क मोहताज-ए-इल्त्फाक नहीं

दिल बुझा हो अगर तो दिन भी है रात नहीं
दिन हो रोशन तो रात रात नहीं

दिल-ए-साकी मैं तोड़ू-ए-वाइल
जा मुझे ख्वाइश-ए-नजात नहीं
 

ऐसी भूली है कायनात मुझे
जैसे मैं जिस्ब-ए-कायनात नहीं
 

पीर की बस्ती जा रही है मगर
सबको ये वहम है कि रात नहीं
 

मेरे लायक नहीं हयात "ख़ुमार"
और मैं लायक-ए-हयात नहीं

ख़ुमार बाराबंकवी

तू चली गई... तेरी यादें पड़ी है..

तू चली गई... तेरी यादें पड़ी है


शाख पर, पत्तो पर 
कागज के पन्नों पर 
आंखों की पलकों पर 
मासूमियत शक्लों पर 
निहारती, देखती 
छुप जाती , 
कभी टपकती, शिसकती 
ओस की बूंदों सी 
चमकती खड़ी हैं.. 
तू चली गई... तेरी यादें पड़ी है..! 

दीवारों पर रेखा खींचती 
मन बहलाती हवाओं को सींचती 
फिजा में रंग घोलती 
सहम कर दिवाले बोलती 
पायल की छम- छम 
झुमके की झुन-झुन 
चूड़ियों की खनन अंधेरे में टोकती 
टटोलती , बाद्य यंत्रों में जड़ी हैं.... 
तू चली गई... तेरी यादें पड़ी है..! 

सूने में खनकती, चांदनी में घुलती 
किरणों संग रेगती, 
असमान से उतरती, बाहों में भरती 
तन्हाइयों से लड़ती है.. 
तू चली गई... तेरी यादें पड़ी है..! 

सीना दहक रहा हो तो क्या चुप रहे कोई

सीना दहक रहा हो तो क्या चुप रहे कोई 

क्यूँ चीख़ चीख़ कर न गला छील ले कोई 

साबित हुआ सुकून-ए-दिल-ओ-जाँ कहीं नहीं 
रिश्तों में ढूँढता है तो ढूँडा करे कोई 

तर्क-ए-तअल्लुक़ात कोई मसअला नहीं 
ये तो वो रास्ता है कि बस चल पड़े कोई 

दीवार जानता था जिसे मैं वो धूल थी 
अब मुझ को ए'तिमाद की दावत न दे कोई 

मैं ख़ुद ये चाहता हूँ कि हालात हों ख़राब 
मेरे ख़िलाफ़ ज़हर उगलता फिरे कोई  
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ऐ शख़्स अब तो मुझ को सभी कुछ क़ुबूल है 
ये भी क़ुबूल है कि तुझे छीन ले कोई 

हाँ ठीक है मैं अपनी अना का मरीज़ हूँ 
आख़िर मिरे मिज़ाज में क्यूँ दख़्ल दे कोई 

इक शख़्स कर रहा है अभी तक वफ़ा का ज़िक्र 
काश उस ज़बाँ-दराज़ का मुँह नोच ले कोई 

Jaun Eliya

मुझे देरी हुई पर तुमको तो रुक जाना था

उसकी आंखों में मैंने सारे समंदर देखे

दर्द देखे थे मगर जख्म नहीं अंदर देखे 

वो कराहती थी तो दर्द उम्र का कह टाला था, 
सुना, उसकी आंतों में कैंसर का एक जाला था 

मगर वो जा चुकी थी जब तक मुझको खबर हुई 
उसकी सांसे तो चली मगर न कभी कदर हुई | 

वो कहती थी किस्से, घुटती , और मुस्कराती थी 
बच्चों पर जान छिड़कती थी ,घर बुलाती थी || 

रूठ जाती थी, जो न जाते एक फोन पर हम, 
उसे सब चाहिए थे, वो किसी को, नहीं चाहिए थी 

मुझसे भी रूठ कर बैठी थी ,मगर मैने न ध्यान दिया 
ये नौकरी ने मनाने का, एक मौका तक न दिया | 

गुस्सा इतना थी कि मिलने तक को भी न रुकी, 
मेरी मां की मां ने मुझे ये मेरा हिस्सा भी न दिया | 

कोई आसमा का रास्ता मुझको बतला दो, 
मेरी नानी के घर में ,नानी को मेरी पहुंचा दो| 

तुमने जो चाहा, वो सब कर, मुझे दिखाना था 
मुझे देरी हुई पर तुमको तो रुक जाना था || 


कोई यूं ही खामोश नहीं होता

कोई यूं ही खामोश नहीं होता,

मेरी ख़ामोशी भी दर्दों से लिपटी दास्ताँ है। 
जिसे कोई पढ़ के भी पढ़ ना सका, 
वो जिंदगी के पन्नों में सिमटी दास्ताँ है।

देखते हो जो तुम अंतर्विरोध-सा

दोस्त, देखते हो जो तुम अंतर्विरोध-सा

मेरी कविता कविता में, वह दृष्टि दोष है ।
यहाँ एक ही सत्य सहस्र शब्दों में विकसा
रूप रूप में ढला एक ही नाम, तोष है।

एक बार जो लगी आग, है वही तो हँसी
कभी, कभी आँसू, ललकार कभी, बस चुप्पी ।
मुझे नहीं चिंता वह केवल निजी या किसी
जन समूह की है, जब सागर में है कुप्पी

 

मुक्त मेघ की, भरी ढली फिर भरी निरंतर ।
मैं जिसका हूँ वही नित्य निज स्वर में भर कर
मुझे उठाएगा सहस्र कर पद का सहचर
जिसकी बढ़ी हुई बाहें ही स्वर शर भास्वर
 

मुझ में ढल कर बोल रहे जो वे समझेंगे
अगर दिखेगी कमी स्वयं को ही भर लेंगे ।

 

गए दिनों का सुराग़ ले कर किधर से आया किधर गया वो

गए दिनों का सुराग़ ले कर किधर से आया किधर गया वो

अजीब मानूस अजनबी था मुझे तो हैरान कर गया वो 

बस एक मोती सी छब दिखा कर बस एक मीठी सी धुन सुना कर 
सितारा-ए-शाम बन के आया ब-रंग-ए-ख़्वाब-ए-सहर गया वो 

ख़ुशी की रुत हो कि ग़म का मौसम नज़र उसे ढूँडती है हर दम 
वो बू-ए-गुल था कि नग़्मा-ए-जाँ मिरे तो दिल में उतर गया वो 

न अब वो यादों का चढ़ता दरिया न फ़ुर्सतों की उदास बरखा 
यूँही ज़रा सी कसक है दिल में जो ज़ख़्म गहरा था भर गया वो 

कुछ अब सँभलने लगी है जाँ भी बदल चला दौर-ए-आसमाँ भी 
जो रात भारी थी टल गई है जो दिन कड़ा था गुज़र गया वो 

बस एक मंज़िल है बुल-हवस की हज़ार रस्ते हैं अहल-ए-दिल के 
यही तो है फ़र्क़ मुझ में उस में गुज़र गया मैं ठहर गया वो 

शिकस्ता-पा राह में खड़ा हूँ गए दिनों को बुला रहा हूँ 
जो क़ाफ़िला मेरा हम-सफ़र था मिसाल-ए-गर्द-ए-सफ़र गया वो 

मिरा तू ख़ूँ हो गया है पानी सितमगरों की पलक न भीगी 
जो नाला उट्ठा था रात दिल से न जाने क्यूँ बे-असर गया वो 

वो मय-कदे को जगाने वाला वो रात की नींद उड़ाने वाला 
ये आज क्या उस के जी में आई कि शाम होते ही घर गया वो 

वो हिज्र की रात का सितारा वो हम-नफ़स हम-सुख़न हमारा 
सदा रहे उस का नाम प्यारा सुना है कल रात मर गया वो 

वो जिस के शाने पे हाथ रख कर सफ़र किया तू ने मंज़िलों का 
तिरी गली से न जाने क्यूँ आज सर झुकाए गुज़र गया वो 

वो रात का बे-नवा मुसाफ़िर वो तेरा शाइर वो तेरा 'नासिर'
तिरी गली तक तो हम ने देखा था फिर न जाने किधर गया वो