Friday, March 31, 2023

हम रुह में उतरने को मोहब्बत कहते हैं


वो जिस्म के छूने को मोहब्बत कहते हैं
और हम रुह में उतरने को मोहब्बत कहते हैं 

वो दिलबर को बाहों में भरने को राहत कहते हैं 
और हम तो उनके दिदार को ही राहत कहते हैं 

बेचैनियां तो जिस्म के मिलते ही खत्म हो जाएगी 
तसव्वुर में भी जो सुकून दे हम उसको चाहत कहते हैं 

अब तो इबादत के लिए खुदा भी नहीं चाहिए 
उनकी यादों में खोए रहने को हम इबादत कहते है। 

चलते हुए राह में वो गर ग़लती से भी देख लें तो 
हम अपनी जिंदगी में उसको ही इनायत कहते हैं।

Thursday, March 30, 2023

वो जो हमेशा मेरे ख्यालों में रहता है

वो जो हमेशा मेरे ख्यालों में रहता है,


आज कल वो बिखरा बिखरा रहता है 

उसके दोस्तों को देखता हूं हंसते हुए, 
वो उनके साथ भी रहकर चुप रहता है, 

मैं उसे हंसाने के लिए खुद हंसता हूं, 
फिर भी उसका चेहरा उतरा रहता है, 

बात क्या है पूछने पर बताता भी नहीं, 
लगता है किसी बात से बिगड़ा रहता है, 

मन करता है मनाऊं उसे किसी तरह, 
क्या करूं पास होकर भी दूर रहता है, 

क्या हो गई ' मुझसे ' से दुश्मनी उसकी, 
वो भी महीनों से उजड़ा उजड़ा रहता है

अब तुम्हारा प्यार भी - गोपालदास 'नीरज'

अब तुम्हारा प्यार भी मुझको नहीं स्वीकार प्रेयसि !

चाहता था जब हृदय बनना तुम्हारा ही पुजारी,
छीनकर सर्वस्व मेरा तब कहा तुमने भिखारी,
आँसुओं से रात दिन मैंने चरण धोये तुम्हारे,
पर न भीगी एक क्षण भी चिर निठुर चितवन तुम्हारी,
जब तरस कर आज पूजा-भावना ही मर चुकी है,
तुम चलीं मुझको दिखाने भावमय संसार प्रेयसि !
अब तुम्हारा प्यार भी मुझको नहीं स्वीकार प्रेयसि !

भावना ही जब नहीं तो व्यर्थ पूजन और अर्चन,
व्यर्थ है फिर देवता भी, व्यर्थ फिर मन का समर्पण,
सत्य तो यह है कि जग में पूज्य केवल भावना ही,
देवता तो भावना की तृप्ति का बस एक साधन,
तृप्ति का वरदान दोनों के परे जो-वह समय है,
जब समय ही वह न तो फिर व्यर्थ सब आधार प्रेयसि !
अब तुम्हारा प्यार भी मुझको नहीं स्वीकार प्रेयसि !
 

अब मचलते हैं न नयनों में कभी रंगीन सपने,
हैं गये भर से थे जो हृदय में घाव तुमने,
कल्पना में अब परी बनकर उतर पाती नहीं तुम,
पास जो थे हैं स्वयं तुमने मिटाये चिह्न अपने,
दग्ध मन में जब तुम्हारी याद ही बाक़ी न कोई,
फिर कहाँ से मैं करूँ आरम्भ यह व्यापार प्रेयसि !
अब तुम्हारा प्यार भी मुझको नहीं स्वीकार प्रेयसि !
 

अश्रु-सी है आज तिरती याद उस दिन की नजर में,
थी पड़ी जब नाव अपनी काल तूफ़ानी भँवर में,
कूल पर तब हो खड़ीं तुम व्यंग मुझ पर कर रही थीं,
पा सका था पार मैं खुद डूबकर सागर-लहर में,
हर लहर ही आज जब लगने लगी है पार मुझको,
तुम चलीं देने मुझे तब एक जड़ पतवार प्रेयसि !
अब तुम्हारा प्यार भी मुझको नहीं स्वीकार प्रेयसि !

गुलज़ार की नज़्म

(1)

जब भी यह दिल उदास होता है
जाने कौन आस-पास होता है

होंठ चुपचाप बोलते हों जब
सांस कुछ तेज़-तेज़ चलती हो
आंखें जब दे रही हों आवाज़ें
ठंडी आहों में सांस जलती हो

आँख में तैरती हैं तसवीरें
तेरा चेहरा तेरा ख़याल लिए
आईना देखता है जब मुझको
एक मासूम सा सवाल लिए

कोई वादा नहीं किया लेकिन
क्यों तेरा इंतजार रहता है
बेवजह जब क़रार मिल जाए
दिल बड़ा बेकरार रहता है

जब भी यह दिल उदास होता है
जाने कौन आस-पास होता है
 

(2)
हाल-चाल ठीक-ठाक है
सब कुछ ठीक-ठाक है
बी.ए. किया है, एम.ए. किया
लगता है वह भी ऐंवे किया
काम नहीं है वरना यहाँ
आपकी दुआ से सब ठीक-ठाक है

आबो-हवा देश की बहुत साफ़ है
क़ायदा है, क़ानून है, इंसाफ़ है
अल्लाह-मियाँ जाने कोई जिए या मरे
आदमी को खून-वून सब माफ़ है

और क्या कहूं?
छोटी-मोटी चोरी, रिश्वतखोरी
देती है अपा गुजारा यहाँ
आपकी दुआ से बाक़ी ठीक-ठाक है
 

गोल-मोल रोटी का पहिया चला
पीछे-पीछे चाँदी का रुपैया चला
रोटी को बेचारी को चील ले गई
चाँदी ले के मुँह काला कौवा चला

और क्या कहूं?
मौत का तमाशा, चला है बेतहाशा
जीने की फुरसत नहीं है यहाँ
आपकी दुआ से बाक़ी ठीक-ठाक है
हाल-चाल ठीक-ठाक है
 

(3)
अ-आ, इ-ई, अ-आ, इ-ई
मास्टर जी की आ गई चिट्ठी
चिट्ठी में से निकली बिल्ली
बिल्ली खाए जर्दा-पान
काला चश्मा पीले कान
कान में झुमका, नाक में बत्ती
हाथ में जलती अगरबत्ती
अगर हो बत्ती कछुआ छाप
आग में बैठा पानी ताप
ताप चढ़े तो कम्बल तान
वी.आई.पी. अंडरवियर-बनियान
 

अ-आ, इ-ई, अ-आ, इ-ई
मास्टर जी की आ गई चिट्ठी
चिट्ठी में से निकला मच्छर
मच्छर की दो लंबी मूँछें
मूँछ पे बाँधे दो-दो पत्थर
पत्थर पे इक आम का झाड़
पूंछ पे लेके चले पहाड़
पहाड़ पे बैठा बूढ़ा जोगी
जोगी की इक जोगन होगी
-गठरी में लागा चोर
मुसाफिर देख चाँद की ओर
 

पहाड़ पै बैठा बूढ़ा जोगी
जोगी की एक जोगन होगी
जोगन कूटे कच्चा धान
वी.आई.पी. अंडरवियर बनियान

अ-आ, इ-ई, अ-आ, इ-ई
मास्टर जी की आ गई चिट्ठी
चिट्ठी में से निकला चीता
थोड़ा काला थोड़ा पीला
चीता निकला है शर्मीला
घूँघट डालके चलता है
मांग में सेंदुर भरता है
माथे रोज लगाए बिंदी
इंगलिश बोले मतलब हिंदी
‘इफ’ अगर ‘इज’ है, ‘बट’ पर
‘व्हॉट’ माने क्या
इंगलिश में अलजेब्रा छान
वी.आई.पी. अंडरवियर-बनियान

कुछ इस तरह मिल जाना..

बस आखिरी बार

कुछ इस तरह मिल जाना.. 
नजरों को झलक दिखाकर 
तन्हाइयों का गहरा ज़ख्म सील जाना... 
मुझको खुद में रख लेना या तुम 
मुझमे रह जाना... 
बात कुछ चुभे भी तो सह जाना.. 
हंस कर कालियो सा खिल जाना.. 
बस आखिरी बार कुछ 
इस तरह मिल जाना............ 

सजोए हैं कितनी मुद्दत से 
आशा के आसूं... 
पलक से गिरकर मोती सा बन जाना... 
दूर जाकर भी एहसासों मंजर 
रख जाना.... 
मुस्कुराकर ये दिल समंदर सा 
भर जाना... 
बस आखिरी बार 
कुछ इस तरह मिल जाना.. 


Tuesday, March 28, 2023

कभी हम उमको, कभी अपने घर को देखते हैं

ये हम जो हिज्र में दीवार-ओ-दर को देखते हैं

कभी सबा को, कभी नामाबर को देखते हैं

वो आए घर में हमारे, खुदा की क़ुदरत हैं!
कभी हम उमको, कभी अपने घर को देखते हैं

नज़र लगे न कहीं उसके दस्त-ओ-बाज़ू को
ये लोग क्यूँ मेरे ज़ख़्मे जिगर को देखते हैं
 

तेरे ज़वाहिरे तर्फ़े कुल को क्या देखें
हम औजे तअले लाल-ओ-गुहर को देखते हैं

गालिब

अँधेरे का मुसाफ़िर

सर्वेश्वरदयाल सक्सेना की कविता- अँधेरे का मुसाफ़िर


यह सिमटती साँझ,
यह वीरान जंगल का सिरा,
यह बिखरती रात, यह चारों तरफ सहमी धरा;
उस पहाड़ी पर पहुँचकर रोशनी पथरा गयी,
आख़िरी आवाज़ पंखों की किसी के आ गयी,
रुक गयी अब तो अचानक लहर की अँगड़ाइयाँ,
ताल के खामोश जल पर सो गई परछाइयाँ।

दूर पेड़ों की कतारें एक ही में मिल गयीं,
एक धब्बा रह गया, जैसे ज़मीनें हिल गयीं,
आसमाँ तक टूटकर जैसे धरा पर गिर गया,
बस धुँए के बादलों से सामने पथ घिर गया,
यह अँधेरे की पिटारी, रास्ता यह साँप-सा,
खोलनेवाला अनाड़ी मन रहा है काँप-सा।
 

लड़खड़ाने लग गया मैं, डगमगाने लग गया,
देहरी का दीप तेरा याद आने लग गया;
थाम ले कोई किरन की बाँह मुझको थाम ले,
नाम ले कोई कहीं से रोशनी का नाम ले,
कोई कह दे, "दूर देखो टिमटिमाया दीप एक,
ओ अँधेरे के मुसाफिर उसके आगे घुटने टेक!"

दिल की बात शायरी

 






रूह को तड़पा रही है उन की याद

रूह को तड़पा रही है उन की याद

दर्द बन कर छा रही है उन की याद

इश्क़ से घबरा रही है उन की याद
रुकते-रुकते आ रही है उन की याद
 

वो हँसे वो ज़ेर-ए-लब कुछ कह उठे
ख़्वाब से दिखला रही है उन की याद
 

मैं तो ख़ुद्दारी का क़ाइल हूँ मगर
क्या करूँ फिर आ रही है उन की याद
 

अब ख़्याल-ए-तर्क-ए-रब्त ज़ब्त ही से है
ख़ुद ब ख़ुद शर्मा रही है उन की याद

शकील बदायुनी 

ख़ुश हूँ कि मेरा हुस्न-ए-तलब काम तो आया

ख़ुश हूँ कि मेरा हुस्न-ए-तलब काम तो आया

ख़ाली ही सही मेरी तरफ़ जाम तो आया

काफ़ी है मेरे दिल कि तसल्ली को यही बात
आप आ न सके आप का पैग़ाम तो आया

अपनों ने नज़र फेरी तो दिल ने तो दिया साथ
दुनिया में कोई दोस्त मेरे काम तो आया
 

वो सुबह का एहसास हो याँ मेरी कशिश हो
डूबा हुआ ख़ुर्शीद सर-ए-बाम तो आया
 

लोग उन से ये कहते हैं कि कितने हैं "शकील" आप
इस हुस्न के सदक़े में मेरा नाम तो आया

शकील बदायूंनी

मैं बिखर के न सिमट सका

कभी मोम बन के पिघल गया कभी गिरते गिरते सँभल गया

वो बन के लम्हा गुरेज़ का मेरे पास से निकल गया

उसे रोकता भी तो किस तरह के वो शख़्स इतना अजीब था
कभी तड़प उठा मेरी आह से कभी अश्क़ से न पिघल सका
 

सरे-राह मिला वो अगर कभी तो नज़र चुरा के गुज़र गया
वो उतर गया मेरी आँख से मेरे दिल से क्यूँ न उतर सका
 

वो चला गया जहाँ छोड़ के मैं वहाँ से फिर न पलट सका
वो सँभल गया था 'फ़राज़' मगर मैं बिखर के न सिमट सका

अहमद फ़राज़

थोड़ा वक़्त लगेगा

फिर कभी फ़ुर्सत में निपटाऊँगा शिकायतें तुम्हारी , 

फ़िलहाल ख़ुद में उलझा हूँ, सुलझने में थोड़ा वक़्त लगेगा | 

तेरे दिल में भी झाकूँगा , क्या कुछ छुपाया है तूने , 
अभी ख़्वाबों में डूबा हूँ , निकलने में थोड़ा वक़्त लगेगा | 

अगर थोड़ा कड़वा बोल जाऊँ तुमसे, तो नाराज़ मत होना, 
कुछ देर पहले ही तो टूटा हूँ, संभलने में थोड़ा वक़्त लगेगा 

क्यों डियर ! डेमोक्रेसी क्या होती है?

पार्क के कोने में 

घास के बिछौने पर लेटे-लेटे 
हम अपनी प्रियसी से पूछ बैठे— 
क्यों डियर! 
डेमोक्रेसी क्या होती है? 

वह बोलीं— 
तुम्हारे वादों जैसी होती है! 
इंतज़ार में, 
बहुत तड़पाती है, 
झूठ बोलती है 
सताती है, 
तुम तो आ भी जाते हो, 
ये कभी नहीं आती है! 

एक विद्वान से पूछा 
वह बोले— 
हमने राजनीति-शास्त्र 
सारा पढ़ मारा, 
डेमोक्रेसी का मतलब है— 
आज़ादी, समानता और भाईचारा। 
 

आज़ादी का मतलब 
रामनाम की लूट है, 
इसमें गधे और घास 
दोनों को बराबर की छूट है। 

घास आज़ाद है कि 
चाहे जितनी बढ़े, 
और गधे स्वतंत्र हैं कि 
लेटे-लेटे या खड़े-खड़े 
कुछ भी करें, 
जितना चाहें इस घास को चरें। 

और समानता! 
कौन है जो इसे नहीं मानता? 
हमारे यहाँ— 
ग़रीबों और ग़रीबों में समानता है, 
अमीरों और अमीरों में समानता है, 
मंत्रियों और मंत्रियों में समानता है, 
संत्रियों और संत्रियों में समानता है। 
चोरी, डकैती, सेंधमारी, बटमारी 
राहज़नी, आगज़नी, घूसख़ोरी, जेबकतरी 
इन सबमें समानता है। 

बताइए, कहाँ असमानता है? 
और भाईचारा! 

तो सुनो भाई! 
यहाँ हर कोई 
एक-दूसरे के आगे 
चारा डालकर 
भाईचारा बढ़ा रहा है। 
 

जिसके पास 
डालने को चारा नहीं है 
उसका किसी से 
भाईचारा नहीं है। 

और अगर वो बेचारा है 
तो इसका हमारे पास 
कोई चारा नहीं है। 

फिर हमने अपने 
एक जेलर मित्र से पूछा— 
आप ही बताइए मिस्टर नेगी। 
वह बोले— 
डेमोक्रेसी? 

आजकल ज़मानत पर रिहा है, 
कल सींखचों के अंदर दिखाई देगी। 
अंत में मिले हमारे मुसद्दीलाल, 
उनसे भी कर डाला यही सवाल। 

बोले— 
डेमोक्रेसी? 
दफ़्तर के अफ़सर से लेकर 
घर की अफ़सरा तक 
पड़ती हुई फटकार है! 

ज़बान के कोड़ों की मार है 
चीत्कार है, हाहाकार है। 
इसमें लात की मार से कहीं तगड़ी 
हालात की मार है। 
अब मैं किसी से 
ये नहीं कहता, 
कि मेरी ऐसी-तैसी हो गई है, 
कहता हूँ— 
मेरी डेमोक्रेसी हो गई है! 


Ashok Chakradhar



गजल शायरी

मैं तो ग़ज़ल सुना के अकेला खड़ा रहा

सब अपने अपने चाहने वालों में खो गए
- कृष्ण बिहारी नूर 


कभी लफ़्ज़ों से ग़द्दारी न करना
ग़ज़ल पढ़ना अदाकारी न करना
- वसीम बरेलवी  

रोज़ पत्थर की हिमायत में ग़ज़ल लिखते हैं
रोज़ शीशों से कोई काम निकल पड़ता है
- राहत इंदौरी 

ग़ज़ल उस ने छेड़ी मुझे साज़ देना
ज़रा उम्र-ए-रफ़्ता को आवाज़ देना
- सफ़ी लखनवी 

ग़ज़ल का शेर तो होता है बस किसी के लिए
मगर सितम है कि सब को सुनाना पड़ता है
- अज़हर इनायती 


अभी कुछ और करिश्मे ग़ज़ल के देखते हैं
'फ़राज़' अब ज़रा लहजा बदल के देखते हैं
- अहमद फ़राज़ 

मेरे चेहरे पे ग़ज़ल लिखती गईं
शेर कहती हुई आँखें उस की
- परवीन शाकिर 


हम से पूछो कि ग़ज़ल क्या है ग़ज़ल का फ़न क्या
चंद लफ़्ज़ों में कोई आग छुपा दी जाए
- जाँ निसार अख़्तर 

यूँही बे-सबब न फिरा करो कोई शाम घर में रहा करो
वो ग़ज़ल की सच्ची किताब है उसे चुपके चुपके पढ़ा करो
- बशीर बद्र 


कुछ तो पढ़िए कि लोग कहते हैं
आज 'ग़ालिब' ग़ज़ल-सरा न हुआ
- मिर्ज़ा ग़ालिब 

हाथ छूटे भी तो रिश्ते नहीं छोड़ा करते

हाथ छूटे भी तो रिश्ते नहीं छोड़ा करते

वक़्त की शाख़ से लम्हें नहीं तोड़ा करते
जिस की आवाज़ में सिलवट हो निगाहों में शिकन
ऐसी तस्वीर के टुकड़े नहीं जोड़ा करते
 

शहद जीने का मिला करता है थोड़ा थोड़ा
जाने वालों के लिये दिल नहीं थोड़ा करते
 

लग के साहिल से जो बहता है उसे बहने दो
ऐसी दरिया का कभी रुख़ नहीं मोड़ा करते

गुलज़ार

Monday, March 27, 2023

एक छोटी सी मुलाकात

कुछ देर और बैठो –

अभी तो रोशनी की सिलवटें हैं
हमारे बीच।

शब्दों के जलते कोयलों की आँच
अभी तो तेज़ होनी शुरु हुई है
उसकी दमक
आत्मा तक तराश देनेवाली
अपनी मुस्कान पर
मुझे देख लेने दो

मैं जानता हूँ
आँच और रोशनी से
किसी को रोका नहीं जा सकता
दीवारें खड़ी करनी होती हैं
ऐसी दीवार जो किसी का घर हो जाए।

कुछ देर और बैठो –
देखो पेड़ों की परछाइयाँ तक
अभी उनमें लय नहीं हुई हैं
और एक-एक पत्ती
अलग-अलग दीख रही है।
 

कुछ देर और बैठो –
अपनी मुस्कान की यह तेज़ धार
रगों को चीरती हुई
मेरी आत्मा तक पहुँच जाने दो
और उसकी एक ऐसी फाँक कर आने दो
जिसे मैं अपने एकांत में
शब्दों के इन जलते कोयलों पर
लाख की तरह पिघला-पिघलाकर
नाना आकृतियाँ बनाता रहूँ
और अपने सूनेपन को
तुमसे सजाता रहूँ।
 

कुछ देर और बैठो –
और एकटक मेरी ओर देखो
कितनी बर्फ मुझमें गिर रही है।
इस निचाट मैदान में
हवाएँ कितनी गुर्रा रही हैं
और हर परिचित कदमों की आहट
कितनी अपरिचित और हमलावर होती जा रही है।
 

कुछ देर और बैठो –
इतनी देर तो ज़रूर ही
कि जब तुम घर पहुँचकर
अपने कपड़े उतारो
तो एक परछाईं दीवार से सटी देख सको
और उसे पहचान भी सको।
 

कुछ देर और बैठो
अभी तो रोशनी की सिलवटें हैं
हमारे बीच।
उन्हें हट तो जाने दो -
शब्दों के इन जलते कोयलों पर
गिरने तो दो
समिधा की तरह
मेरी एकांत
समर्पित
खामोशी 

सर्वेश्वरदयाल सक्सेना

Saturday, March 25, 2023

जो नहीं मिला उसे भूल जा

 कहाँ आ के रुकने थे रास्ते, कहाँ मोड़ था उसे भूल जा,

जो मिल गया उसे याद रख, जो नहीं मिला उसे भूल जा। 


जिहाल-ए -मिस्कीन

जिहाल-ए -मिस्कीन मकुन बा रंजिश,

बहाल-ए -हिजरा बेचारा दिल है
सुनाई देती है जिसकी धड़कन,
तुम्हारा दिल या हमारा दिल है।

इसका अर्थ है मुझ गरीब(मिस्कीन) को रंजिश से भरी इन निगाहों से ना देखो, क्योंकि मेरा बेचारा दिल जुदाई(हिजरा) के मारे यूँ ही बेहाल है। जिस दिल कि धड़कन तुम सुन रहे हो वो तुम्हारा या मेरा ही दिल है।

इस गीत की पंक्तियों को अमीर खुसरो की शायरी से लिया गया है जो इस प्रकार है

ज़िहाल-ए मिस्कीं मकुन तगाफ़ुल,
दुराये नैना बनाये बतियां।
कि ताब-ए-हिजरां नदारम ऎ जान,
न लेहो काहे लगाये छतियां। ।

यह शायरी फारसी और ब्रज के अनोखे सम्मेलन से बनाई गई है। इसमें खुसरो ने दो भाषाओं की विविधता द्वारा यह शायरी तैयार की थी इसका अर्थ है

मुझ गरीब को यूं आंखे इधर उधर दौड़ाकर और बातें बनाकर नजरअंदाज(तगाफुल) ना करो। मैं अब और जुदाई नहीं सह सकता तुमसे अय जान तुम क्यों नहीं आके मुझे सीने से लगा लेती हो।

जीवन को नए बहाने दो

तूफान को शोर मचाने दो

घटा को घिरकर छाने दो 
ये तो वक्त का है माजरा 
अपना भी वक्त आने दो 

बिखरो ना तुम टूट कर 
शीशे की तरह फूट कर 
होड़ लगाकर मौत से तुम 
जीवन को नए बहाने दो

कठिन सही तेरी मन्जिल मगर उदास न हो

मेरे नदीम मेरे हमसफ़र उदास न हो

कठिन सही तेरी मन्जिल मगर उदास न हो

कदम कदम पे चट्टानें खडी़ रहें लेकिन
जो चल निकले हैं दरिया तो फिर नहीं रुकते
हवाएँ कितना भी टकराएँ आँधियाँ बनकर
मगर घटाओं के परछम कभी नहीं झुकते
मेरे नदीम मेरे हमसफ़र...

हर एक तलाश के रास्ते में मुश्किलें हैं मगर
हर एक तलाश मुरादों के रंग लाती है
हजारों चाँद सितारों का खून होता है
तब एक सुबह फ़िजाओं पे मुस्कुराती है
मेरे नदीम मेरे हमसफ़र...
 

जो अपने खून को पानी बना नहीं सकते
वो जिंदगी में नया रंग ला नहीं सकते
जो रास्ते के अँधेरों से हार जाते हैं
वो मंजिलों के उजाले को पा नहीं सकते
मेरे नदीम मेरे हमसफ़र...

साहिर लुधियानवी


Monday, March 20, 2023

तुम को पाते हैं हम जिधर जाते हैं

तुम को पाते हैं हम जिधर जाते हैं

तुम ठहर जाओ हम गुज़र जाते हैं। 

उलटी हो गई सब तदबीरें, कुछ न दवा ने काम किया

उलटी हो गई सब *तदबीरें, कुछ न दवा ने काम किया    (*तदबीरें - युक्तियाँ)

देखा इस बीमारी-ए-दिल ने आख़िर काम तमाम किया

*अह्द-ए-जवानी रो-रो काटा, *पीरी में लीं आँखें मूँद   (*अह्द-ए-जवानी - यौवन-काल, *पीरी - वृद्धावस्था)
यानि रात बहुत थे जागे सुबह हुई आराम किया

नाहक़ हम मजबूरों पर ये तोहमत है *मुख़्तारी की        (*मुख़्तारी - स्वतंत्रता)
चाहते हैं सो आप करें हैं, हमको *अबस बदनाम किया   (*अबस - यूँ ही)

सारे *रिन्दो-बाश जहाँ के तुझसे *सजुद में रहते हैं           (*रिन्दो-बाश - शराबी/ मवाली, *सजुद में रहते हैं - तेरा सम्मान करते हैं)
बाँके टेढ़े तिरछे तीखे सब का तुझको अमान किया
 

सरज़द हम से बे-अदबी तो *वहशत में भी कम ही हुई     (*वहशत - पागलपन)
कोसों उस की ओर गए पर सज्दा हर हर गाम किया

किसका क़िबला कैसा काबा कौन हरम है क्या अहराम
कूचे के उसके बाशिन्दों ने सबको यहीं से सलाम किया
 

ऐसे आहो-एहरम-ख़ुर्दा की वहशत खोनी मुश्किल थी
सिहर किया, ऐजाज़ किया, जिन लोगों ने तुझ को राम किया

याँ के सपेद-ओ-स्याह में हमको दख़ल जो है सो इतना है
रात को रो-रो सुबह किया, या दिन को ज्यों-त्यों शाम किया
 

सायदे-सीमीं दोनों उसके हाथ में लेकर छोड़ दिए   (*सायदे-सीमीं - चाँदी-सी बाहें)
भूले उसके क़ौलो-क़सम पर हाय ख़याले-ख़ाम किया

ऐसे *आहू-ए-रम ख़ुर्दा की वहशत खोनी मुश्किल है    (*आहू-ए-रम ख़ुर्दा - ज़ख़्म खाए-हिरण)
सिह्र किया, ऐजाज़ किया, जिन लोगों ने तुझको *राम किया   (*राम - शांत)
 

'मीर' के दीन-ओ-मज़हब का अब पूछते क्या हो उनने तो
*क़श्क़ा खींचा *दैर में बैठा, कबका तर्क इस्लाम किया    (*क़श्क़ा खींचा - तिलक लगाया, *दैर - मंदिर)

मीर तक़ी मीर