रोज़ आ जाता है समझाता है यूं है यूं है
तेरे क़ामत से भी लिपटी है अमर-बेल कोई
मेरी चाहत को भी दुनिया की नज़र खा गई दोस्त
हवा में नश्शा ही नश्शा फ़ज़ा में रंग ही रंग
ये किस ने पैरहन अपना उछाल रक्खा है
'फ़राज़' तू ने उसे मुश्किलों में डाल दिया
ज़माना साहब-ए-ज़र और सिर्फ़ शाएर तू
न मिरे ज़ख़्म खिले हैं न तिरा रंग-ए-हिना
मौसम आ ही नहीं अब के गुलाबों वाले
उजाड़ घर में ये ख़ुशबू कहां से आई है
कोई तो है दर-ओ-दीवार के अलावा भी
ज़िंदगी तेरी अता थी सो तिरे नाम की है
हम ने जैसे भी बसर की तिरा एहसां जानां
साक़िया एक नज़र जाम से पहले पहले
हम को जाना है कहीं शाम से पहले पहले
अब तिरा ज़िक्र भी शायद ही ग़ज़ल में आए
और से और हुए दर्द के उनवां जानां
इस क़दर मुसलसल थीं शिद्दतें जुदाई की
आज पहली बार उस से मैं ने बेवफ़ाई की!
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