Tuesday, April 21, 2020

मुस्तफ़ा ज़ैदी की ग़ज़लें...

हर इक ने कहा क्यूँ तुझे आराम न आया 
सुनते रहे हम लब पे तिरा नाम न आया 

दीवाने को तकती हैं तिरे शहर की गलियाँ 
निकला तो इधर लौट के बद-नाम न आया 

मत पूछ कि हम ज़ब्त की किस राह से गुज़रे 
ये देख कि तुझ पर कोई इल्ज़ाम न आया 

क्या जानिए क्या बीत गई दिन के सफ़र में 
वो मुंतज़िर-ए-शाम सर-ए-शाम न आया 

ये तिश्नगियाँ कल भी थीं और आज भी 'ज़ैदी' 
उस होंट का साया भी मिरे काम न आया

यूँ तो वो हर किसी से मिलती है 
हम से अपनी ख़ुशी से मिलती है 

सेज महकी बदन से शर्मा कर 
ये अदा भी उसी से मिलती है 

वो अभी फूल से नहीं मिलती 
जूहिए की कली से मिलती है 

दिन को ये रख-रखाव वाली शक्ल 
शब को दीवानगी से मिलती है 

आज-कल आप की ख़बर हम को! 
ग़ैर की दोस्ती से मिलती है 

शैख़-साहिब को रोज़ की रोटी 
रात भर की बदी से मिलती है 

आगे आगे जुनून भी होगा! 
शेर में लौ अभी से मिलती है 

दर्द-ए-दिल भी ग़म-ए-दौराँ के बराबर से उठा 
आग सहरा में लगी और धुआँ घर से उठा 

ताबिश-ए-हुस्न भी थी आतिश-ए-दुनिया भी मगर 
शो'ला जिस ने मुझे फूँका मिरे अंदर से उठा 

किसी मौसम की फ़क़ीरों को ज़रूरत न रही 
आग भी अब्र भी तूफ़ान भी साग़र से उठा 

बे-सदफ़ कितने ही दरियाओं से कुछ भी न हुआ 
बोझ क़तरे का था ऐसा कि समुंदर से उठा 

चाँद से शिकवा-ब-लब हूँ कि सुलाया क्यूँ था 
मैं कि ख़ुर्शीद-ए-जहाँ-ताब की ठोकर से उठा 

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