Wednesday, January 27, 2021

वतनशायरी

 वतन की सर-ज़मीं से इश्क़ ओ उल्फ़त हम भी रखते हैं  खटकती जो रहे दिल में वो हसरत हम भी रखते हैं  

~जोश मलसियानी 

भलाई ये कि आज़ादी से उल्फ़त तुम भी रखते हो  
बुराई ये कि आज़ादी से उल्फ़त हम भी रखते हैं  
~जोश मलसियानी
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
देखना है ज़ोर कितना बाज़ू-ए-क़ातिल में है 
~बिस्मिल अज़ीमाबादी

मेरे जज़्बातों से इस कदर वाकिफ है मेरी कलम
मैं इश्क़ भी लिखना चाहूँ तो भी, इंकलाब लिख जाता है !
~भगत सिंह
वतन की ख़ाक ज़रा एड़ियाँ रगड़ने दे 
मुझे यक़ीन है पानी यहीं से निकलेगा 
~अज्ञात

ऐ शांति अहिंसा की उड़ती हुई परी 
आ तू भी आ कि आ गई छब्बीस जनवरी 
~नजीर बनारसी 

हैं इस हवा में क्या क्या बरसात की बहारें
सब्ज़ों की लहलहाहट बाग़ात की बहारें
~नज़ीर अकबराबादी

हम शहीदों को कभी मुर्दा नहीं कहते 'अनीस' 
रिज़्क़ जन्नत में मिले शान यहाँ पर बाक़ी 
~अनीस अंसारी

जब देश में थी दीवाली, वो खेल रहे थे होली
जब हम बैठे थे घरों में, वो झेल रहे थे गोली
~कवि प्रदीप

अजल से वे डरें जीने को जो अच्छा समझते हैं।
मियाँ! हम चार दिन की जिन्दगी को क्या समझते हैं?
~रामप्रसाद बिस्मिल

Tuesday, January 26, 2021

एक लम्हा भी तुझ बिन कुछ खास नहीं होता!

उम्र भर की बात बिगड़ी इक ज़रा सी बात में, 
एक लम्हा ज़िंदगी भर की कमाई खा गया.


इस दिल को अगर तेरा एहसास नहीं होता,
तू दूर भी रह कर के यूँ पास नहीं होता,
इस दिल ने तेरी चाहत कुछ ऐसे बसाली है,
एक लम्हा भी तुझ बिन कुछ खास नहीं होता! 

वो बात सारे फ़साने में जिस का ज़िक्र न था
वो बात उन को बहुत ना-गवार गुज़री है. 

                
तारीख़ की नज़रों ने ये जब्र भी देखा है।
लम्हों ने ख़ता की थी ,सदियों ने सज़ा पाई।।

Sunday, January 24, 2021

खड़ी है चौखट पर इश्क़ वाली फरवरी।

अधूरी है ख्वाहिश सिमट रही है जनवरी, 
खड़ी है चौखट पर इश्क़ वाली फरवरी। 

Saturday, January 23, 2021

तेरा वादा तो नहीं हूं जो बदल जाऊंगा

मेरी तक़दीर में जलना है तो जल जाऊंगा
तेरा वादा तो नहीं हूं जो बदल जाऊंगा

सोज़ भर दो मिरे सपने में ग़म-ए-उल्फ़त का
मैं कोई मोम नहीं हूं जो पिघल जाऊंगा

दर्द कहता है ये घबरा के शब-ए-फ़ुर्क़त में
आह बन कर तिरे पहलू से निकल जाऊंगा

मुझ को समझाओ न 'साहिर' मैं इक दिन ख़ुद ही
ठोकरें खा के मोहब्बत में संभल जाऊंगा

Wednesday, January 20, 2021

कोई दवा दोगे या दुआ दोगे

इस दिले-बीमार को क्या दोगे
कोई दवा दोगे या दुआ दोगे

फिर कोई जख़्म नया दोगे
या पुराने जख़्मों को ही हवा दोगे

ये खता हम न करते जो मालूम होता
इश्क़ की इतनी बड़ी सज़ा दोगे

फिर करने लगे हो वादे वफ़ा के
बेवफा इस बार किसको दगा दोगे

दौड़े चले आएंगे तुम्हारी इक आवाज पे
तुम अगर मुहब्बत से हमें सदा दोगे

हमसे कर रहे हो दुश्मनी हमसे
सोच लो ये दुश्मनी तुम निभा दोगे

'दोस्त' मदद तुमसे हम ले तो लें
मगर बदगुमाँ हैं तुम एहसान जता दोगे

Friday, January 15, 2021

हम तेरे साथ रहेंगे जुदा होने तक

अपनी सांसों का हर फ़र्ज़ अदा होने तक । 

हम तेरे साथ रहेंगे जुदा होने तक ।। 

Thursday, January 14, 2021

तेरे सामने आसमाँ और भी हैं

तू शाहीं है परवाज़ है काम तेरा 
तिरे सामने आसमाँ और भी हैं 
- अल्लामा इक़बाल

दोस्तों को भी मिले दर्द की दौलत या रब 
मेरा अपना ही भला हो मुझे मंज़ूर नहीं 
- हफ़ीज़ 

तुम्हारी याद के जब ज़ख़्म भरने लगते हैं 
किसी बहाने तुम्हें याद करने लगते हैं 
- फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

Wednesday, January 13, 2021

तुझ से बिछड़ जाने का डर भी नहीं जाता


दिल को तिरी चाहत पे भरोसा भी बहुत है 
और तुझ से बिछड़ जाने का डर भी नहीं जाता 

आँख से दूर न हो दिल से उतर जाएगा 
वक़्त का क्या है गुज़रता है गुज़र जाएगा 

इस से पहले कि बे-वफ़ा हो जाएँ 
क्यूँ न ऐ दोस्त हम जुदा हो जाएँ 

इस ज़िंदगी में इतनी फ़राग़त किसे नसीब 
इतना न याद आ कि तुझे भूल जाएँ हम 

हम को अच्छा नहीं लगता कोई हमनाम तिरा 
कोई तुझ सा हो तो फिर नाम भी तुझ सा रक्खे 

बंदगी हम ने छोड़ दी है 'फ़राज़' 
क्या करें लोग जब ख़ुदा हो जाएँ 

तू मोहब्बत से कोई चाल तो चल 
हार जाने का हौसला है मुझे 

अब दिल की तमन्ना है तो ऐ काश यही हो 
आँसू की जगह आँख से हसरत निकल आए 

मैं क्या करूँ मिरे क़ातिल न चाहने पर भी 
तिरे लिए मिरे दिल से दुआ निकलती है 

गुफ़्तुगू अच्छी लगी ज़ौक़-ए-नज़र अच्छा लगा 
मुद्दतों के बाद कोई हम-सफ़र अच्छा लगा 

मुझ से बिछड़ के तू भी तो रोएगा उम्र भर 
ये सोच ले कि मैं भी तिरी ख़्वाहिशों में हूँ 

सिलवटें हैं मिरे चेहरे पे तो हैरत क्यूँ है 
ज़िंदगी ने मुझे कुछ तुम से ज़ियादा पहना 

याद आई है तो फिर टूट के याद आई है 
कोई गुज़री हुई मंज़िल कोई भूली हुई दोस्त 

कितना आसाँ था तिरे हिज्र में मरना जानाँ 
फिर भी इक उम्र लगी जान से जाते जाते 

ऐसी तारीकियाँ आँखों में बसी हैं कि 'फ़राज़' 
रात तो रात है हम दिन को जलाते हैं चराग़ 

शहर-वालों की मोहब्बत का मैं क़ाएल हूँ मगर 
मैं ने जिस हाथ को चूमा वही ख़ंजर निकला 

तेरे होते हुए महफ़िल में जलाते हैं चराग़ 
लोग क्या सादा हैं सूरज को दिखाते हैं चराग़ 

जब भी दिल खोल के रोए होंगे 
लोग आराम से सोए होंगे 

सामने उम्र पड़ी है शब-ए-तन्हाई की 
वो मुझे छोड़ गया शाम से पहले पहले

ये दिल का दर्द तो उम्रों का रोग है प्यारे 
सो जाए भी तो पहर दो पहर को जाता है

Monday, January 11, 2021

तुम याद आ जाते हो।

अक्सर खाली लम्हों के
तुम साथी बन जाते हो
होता हूँ जब भी अकेला 
तुम याद आ जाते हो।

कितना दुर्गम होगा
उन राहों से गुजरना
जहाँ कभी हम
साथ चला करते थे।

कितनी मुश्किल होगी 
वो हीं बातें करना 
जो एक-दूजे से
हम कभी किया करते थे। 

क्या गुजरेगा वैसा
वक्त कभी
तुम संग जैसा 
गुजरता था कभी।

क्या उतनी उमंग 
उतनी पीड़ा...
मिल पाएगी कभी,
जितना तुम्हारे साथ होने
और बिछड़ने से
मिलती थी कभी।

रहने दो!
फिर अब यह न हो पाएगा,
तुम जैसा न था कोई 
न कोई हो पाएगा।

साथ हमारा 
बस इतना हीं था
मान लिया अब मैने भी,
पर तेरी यादों की संगत
छूट नहीं पाएगी कभी।

Sunday, January 10, 2021

हम यार से किस सबब मिलेंगे

1. दिलबर से हम अपने जब मिलेंगे
इस गुम-शुदा दिल से तब मिलेंगे
ये किस को ख़बर है अब के बिछड़े
क्या जानिए उस से कब मिलेंगे

जान-ओ-दिल-ओ-होश-ओ-सब्र-ओ-ताक़त
इक मिलने से उस के सब मिलेंगे
दुनिया है सँभल के दिल लगाना
याँ लोग अजब अजब मिलेंगे

ज़ाहिर में तो ढब नहीं है कोई
हम यार से किस सबब मिलेंगे
होगा कभी वो भी दौर जो हम
दिलदार से रोज़-ओ-शब मिलेंगे

आराम 'हसन' तभी तो होगा
उस लब से जब अपने लब मिलेंगे .

2. दिल ख़ुदा जाने किस के पास रहा
इन दिनों जी बहुत उदास रहा
क्या मज़ा वस्ल में मिला उस के
मैं रहा भी तो बे-हवास रहा

यूँ खिला अपना ये गुल-ए-उम्मीद
कि सदा दिल ये दाग़-ए-यास रहा
शाद हूँ मैं कि देख मेरा हाल
ग़ैर करने से इल्तिमास रहा

जब तलक कि जिया 'हसन' तब तक
ग़म मिरे दिल पे बे-क़यास रहा .

अब वो मेरे इतने करीब तो नही होंगे।

अब वो मेरे इतने करीब तो नही होंगे।
हर किसी से मिलते इतना शरीफ तो नही होंगे।

कितना अजीब है उनके मिलने की हसरत
शायद इसके सबब अब वो मशहूर तो नही होंगे।

जिसे मिलते है तो समझो वो उनका हुआ
अब ये हर किसी को नसीब तो नही होंगे।

मुझे उनसे बिछड़े जमाना हुआ शायद
वो किसी और के करीब तो नही होंगे।

जी भर के बदनाम किया उन्हें तू
शायद वो इतना बदनसीब तो नही होंगे।

दरमियाँ, फासले शायरी

बड़े लोगों से मिलने में हमेशा फ़ासला रखना
जहां दरिया समुंदर से मिला दरिया नहीं रहता
बशीर बद्र

फ़ासले ऐसे भी होंगे ये कभी सोचा न था
सामने बैठा था मेरे और वो मेरा न था
अदीम हाशमी

कोई हाथ भी न मिलाएगा जो गले मिलोगे तपाक से
ये नए मिज़ाज का शहर है ज़रा फ़ासले से मिला करो
बशीर बद्र

क़ुर्बतें लाख ख़ूबसूरत हों
दूरियों में भी दिलकशी है अभी
अहमद फ़राज़

भला हम मिले भी तो क्या मिले वही दूरियां वही फ़ासले
न कभी हमारे क़दम बढ़े न कभी तुम्हारी झिझक गई
बशीर बद्र

फ़ासला नज़रों का धोका भी तो हो सकता है
वो मिले या न मिले हाथ बढ़ा कर देखो
निदा फ़ाज़ली

दुनिया तो चाहती है यूं ही फ़ासले रहें
दुनिया के मश्वरों पे न जा उस गली में चल
हबीब जालिब

मसअला ये है कि उस के दिल में घर कैसे करें
दरमियां के फ़ासले का तय सफ़र कैसे करें
फ़र्रुख़ जाफ़री

उसे ख़बर है कि अंजाम-ए-वस्ल क्या होगा
वो क़ुर्बतों की तपिश फ़ासले में रखती है
ख़ालिद यूसुफ़

कितने शिकवे गिले हैं पहले ही
राह में फ़ासले हैं पहले ही

फिर भी लोग कहते हैं कि रंगीन है दुनिया

बाहर से देखो तो कितनी हसीन है दुनिया
अन्दर झांको तो कितनी गमगीन है दुनिया

दिल में कोई उमंग नहीं चेहरे पे कोई रंग नहीं
फिर भी लोग कहते हैं कि रंगीन है दुनिया

किसी के दर्द से इसको कोई मतलब नहीं
हमें दुनिया की तलब नहीं तमाशबीन है दुनिया

कभी असली तो कभी नकली सूरत दिखाती है
कभी बेपर्दा तो कभी पर्दानशीन है दुनिया

'नामचीन' ये अपने-अपने नजरिये की बात है
नजरिया अच्छा है तो फिर बेहतरीन है दुनिया

Saturday, January 9, 2021

एक उम्र बीती मगर दिल वही बच्चा निकला।

 जख्म मरहम से भी अच्छा निकला, 

कम से कम दर्द तो सच्चा निकला। 

तुम्हारी बेबसी का सबब मालूम है हमको, 
एक उम्र बीती मगर दिल वही बच्चा निकला। 

तेरी आवाज की खनक सुन के कलियां चटखें, 
कच्ची बातों में भी किरदार वो सच्चा निकला। 

कभी उसकी वफ़ा के हिसाब लगाने बैठो, 
सिरहाने ख्वाब सुबह का भी सच्चा निकला। 

हाशिया तो रहा हरदम तेरा मुरीद हमदम, 
तेरा ईमान, तेरे इश्क़ से कच्चा निकला। 

Thursday, January 7, 2021

क्यों मानें सपना कोई साकार नहीं होता

फूलों का अपना कोई परिवार नहीं होता 
खुशबू का अपना कोई घर-द्वार नहीं होता 

हम गुज़रे कल की आंखों का सपना ही तो हैं 
क्यों मानें सपना कोई साकार नहीं होता 

इस दुनिया में अच्छे लोगों का ही तो बहुमत है 
ऐसा अगर न होता ये संसार नहीं होता 

कितने ही अच्छे हों काग़ज़ पानी के रिश्ते 
काग़ज़ की नावों से दरिया पार नहीं होता 

हिम्मत हारे तो सब कुछ नामुमकिन लगता है 
हिम्मत कर लें तो कुछ भी दुश्वार नहीं होता 

वे दीवारें घर जैसा सम्मान नहीं पातीं 
जिनमें कोई खिड़की कोई द्वार नहीं होता 

Wednesday, January 6, 2021

हम अधूरे अधूरा हमारा सृजन

हम अधूरे अधूरा हमारा सृजन, 

पूर्ण तो एक बस प्रेम ही है यहां

कांच से ही न नजरे मिलाती रहो, 

बिम्ब को मूक प्रतिबिम्ब छल जायेगा

Tuesday, January 5, 2021

गोपाल दास नीरज के 5 गीत

हम तो मस्त फकीर, हमारा कोई नहीं ठिकाना रे
हम तो मस्त फकीर, हमारा कोई नहीं ठिकाना रे।
जैसा अपना आना प्यारे, वैसा अपना जाना रे।

रामघाट पर सुबह गुजारी
प्रेमघाट पर रात कटी
बिना छावनी बिना छपरिया
अपनी हर बरसात कटी
देखे कितने महल दुमहले, उनमें ठहरा तो समझा
कोई घर हो, भीतर से तो हर घर है वीराना रे।

औरों का धन सोना चांदी
अपना धन तो प्यार रहा
दिल से जो दिल का होता है
वो अपना व्यापार रहा
हानि लाभ की वो सोचें, जिनकी मंजिल धन दौलत हो!
हमें सुबह की ओस सरीखा लगा नफ़ा-नुकसाना रे।

कांटे फूल मिले जितने भी
स्वीकारे पूरे मन से
मान और अपमान हमें सब
दौर लगे पागलपन के
कौन गरीबा कौन अमीरा हमने सोचा नहीं कभी
सबका एक ठिकान लेकिन अलग अलग है जाना रे।

सबसे पीछे रहकर भी हम
सबसे आगे रहे सदा
बड़े बड़े आघात समय के
बड़े मजे से सहे सदा!
दुनिया की चालों से बिल्कुल, उलटी अपनी चाल रही
जो सबका सिरहाना है रे! वो अपना पैताना रे!


दो गुलाब के फूल छू गए जब से होठ अपावन मेरे
दो गुलाब के फूल छू गए जब से होठ अपावन मेरे
ऐसी गंध बसी है मन में सारा जग मधुबन लगता है।

रोम-रोम में खिले चमेली
सांस-सांस में महके बेला,
पोर-पोर से झरे मालती
अंग-अंग जुड़े जूही का मेला
पग-पग लहरे मानसरोवर, डगर-डगर छाया कदम्ब की
तुम जब से मिल गए उमर का खंडहर राजभवन लगता है।
दो गुलाब के फूल...

छिन-छिन ऐसा लगे कि कोई
बिना रंग के खेले होली,
यूं मदमाएं प्राण कि जैसे
नई बहू की चंदन डोली
जेठ लगे सावन मनभावन और दुपहरी सांझ बसंती
ऐसा मौसम फिरा धूल का ढेला एक रतन लगता है।
दो गुलाब के फूल...

जाने क्या हो गया कि हरदम
बिना दिये के रहे उजाला,
चमके टाट बिछावन जैसे
तारों वाला नील दुशाला
हस्तामलक हुए सुख सारे दुख के ऐसे ढहे कगारे
व्यंग्य-वचन लगता था जो कल वह अब अभिनन्दन लगता है।
दो गुलाब के फूल...

तुम्हें चूमने का गुनाह कर
ऐसा पुण्य कर गई माटी
जनम-जनम के लिए हरी
हो गई प्राण की बंजर घाटी
पाप-पुण्य की बात न छेड़ों स्वर्ग-नर्क की करो न चर्चा
याद किसी की मन में हो तो मगहर वृन्दावन लगता है।
दो गुलाब के फूल...

तुम्हें देख क्या लिया कि कोई
सूरत दिखती नहीं पराई
तुमने क्या छू दिया, बन गई
महाकाव्य कोई चौपाई
कौन करे अब मठ में पूजा, कौन फिराए हाथ सुमरिनी
जीना हमें भजन लगता है, मरना हमें हवन लगता है।
दो गुलाब के फूल...


कारवां गुज़र गया
स्वप्न झरे फूल से,
मीत चुभे शूल से,
लुट गये सिंगार सभी बाग़ के बबूल से,
और हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे!

नींद भी खुली न थी कि हाय धूप ढल गई,
पांव जब तलक उठे कि ज़िन्दगी फिसल गई,
पात-पात झर गये कि शाख़-शाख़ जल गई,
चाह तो निकल सकी न, पर उमर निकल गई,
गीत अश्क़ बन गए,
छंद हो दफ़न गए,
साथ के सभी दिऐ धुआँ-धुआँ पहन गये,
और हम झुके-झुके,
मोड़ पर रुके-रुके
उम्र के चढ़ाव का उतार देखते रहे
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे।

क्या शबाब था कि फूल-फूल प्यार कर उठा,
क्या सुरूप था कि देख आइना मचल उठा
इस तरफ जमीन और आसमां उधर उठा,
थाम कर जिगर उठा कि जो मिला नज़र उठा,
एक दिन मगर यहाँ,
ऐसी कुछ हवा चली,
लुट गयी कली-कली कि घुट गयी गली-गली,
और हम लुटे-लुटे,
वक्त से पिटे-पिटे,
साँस की शराब का खुमार देखते रहे
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे।

हाथ थे मिले कि जुल्फ़ चांद की संवार दूं,
होंठ थे खुले कि हर बहार को पुकार दूं,
दर्द था दिया गया कि हर दुखी को प्यार दूं,
और सांस यूं कि स्वर्ग भूमि पर उतार दूं,
हो सका न कुछ मगर,
शाम बन गई सहर,
वह उठी लहर कि दह गये किले बिखर-बिखर,
और हम डरे-डरे,
नीर नयन में भरे,
ओढ़कर कफ़न, पड़े मज़ार देखते रहे
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे!

मांग भर चली कि एक, जब नई-नई किरन,
ढोलकें धुमुक उठीं, ठुमक उठे चरण-चरण,
शोर मच गया कि लो चली दुल्हन, चली दुल्हन,
गांव सब उमड़ पड़ा, बहक उठे नयन-नयन,
पर तभी ज़हर भरी,
ग़ाज एक वह गिरी,
पुंछ गया सिंदूर तार-तार हुई चूनरी,
और हम अजान से,
दूर के मकान से,
पालकी लिये हुए कहार देखते रहे।
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे।
मानव कवि बन जाता है
तब मानव कवि बन जाता है!
जब उसको संसार रुलाता,
वह अपनों के समीप जाता,
पर जब वे भी ठुकरा देते
वह निज मन के सम्मुख आता,
पर उसकी दुर्बलता पर जब मन भी उसका मुस्काता है!
तब मानव कवि बन जाता है!
जीवन कटना था कट गया
जीवन कटना था, कट गया
अच्छा कटा, बुरा कटा
यह तुम जानो
मैं तो यह समझता हूं
कपड़ा पुराना एक फटना था, फट गया
जीवन कटना था कट गया।

रीता है क्या कुछ
बीता है क्या कुछ
यह हिसाब तुम करो
मैं तो यह कहता हूं
परदा भरम का जो हटना था, हट गया
जीवन कटना था कट गया।

क्या होगा चुकने के बाद
बूंद-बूंद रिसने के बाद
यह चिंता तुम करो
मैं तो यह कहता हूं
करजा जो मिटटी का पटना था, पट गया
जीवन कटना था कट गया।

बंधा हूं कि खुला हूं
मैला हूं कि धुला हूं
यह विचार तुम करो
मैं तो यह सुनता हूं
घट-घट का अंतर जो घटना था, घट गया
जीवन कटना था कट गया।


वफा शायरी

उस की वफ़ा न मेरी वफ़ा का सवाल था
दोनों ही चुप थे सिर्फ़ अना का सवाल था
- अब्बास दाना


है वफ़ा तुझ में तो पाबंद-ए-वफ़ा हूँ मैं भी
मुझ से मिल बैठ मोहब्बत की फ़ज़ा हूँ मैं भी
- सबिहा ख़ान


काश होती वफ़ा ज़माने में
पर हक़ीक़त कहां फ़साने में
- अदील शाकिर


की वफ़ा यार से एक एक जफ़ा के बदले
हम ने गिन गिन के लिए ख़ून-ए-वफ़ा के बदले
- फ़ानी बदायूंनी


दार-ओ-मदार-ए-इश्क़ वफ़ा पर है हम-नशीं
वो क्या करे कि जिस से वफ़ा भी न हो सके
- मख़मूर जालंधरी


सितम करना करम करना वफ़ा करना जफ़ा करना
मगर जो अहद कर लेना वो आख़िर तक वफ़ा करना
- सय्यद नज़ीर हसन सख़ा देहलवी

हज़ारों बार कह कर बेवफ़ा को बा-वफ़ा मैं ने
बताया है ज़माने को वफ़ा का रास्ता मैं ने
- दिवाकर राही


आरज़ू है वफ़ा करे कोई
जी न चाहे तो क्या करे कोई
- दाग़ देहलवी

वफ़ा के बराबर जफ़ा चाहता हूं
तिरा हौसला देखना चाहता हूं
- जिगर जालंधरी


वफ़ा करते उसे देखा नहीं है
मगर वो बेवफ़ा लगता नहीं है
- नाज़िम नक़वी

इश्क में यार ग़र वफा न करे, 
 क्या करे कोई और क्या न करे. 

बारिश पानी शायरी

किस ने भीगे हुए बालों से ये झटका पानी
झूम के आई घटा टूट के बरसा पानी
आरज़ू लखनवी

अगर फ़ुर्सत मिले पानी की तहरीरों को पढ़ लेना
हर इक दरिया हज़ारों साल का अफ़्साना लिखता है
बशीर बद्र

मैंने अपनी ख़ुश्क आंखों से लहू छलका दिया
इक समुंदर कह रहा था मुझ को पानी चाहिए
राहत इंदौरी

हम इंतेज़ार करें हम को इतनी ताब नहीं
पिला दो तुम हमें पानी अगर शराब नहीं
नूह नारवी

ये पानी ख़ामुशी से बह रहा है
इसे देखें कि इस में डूब जाएं
अहमद मुश्ताक़

हंसता पानी रोता पानी
मुझ को आवाज़ें देता था
नासिर काज़मी

हैरान मत हो तैरती मछली को देख कर
पानी में रौशनी को उतरते हुए भी देख
मुहम्मद अल्वी

क़िस्से से तेरे मेरी कहानी से ज्‍़यादा
पानी में है क्या और भी पानी से ज्‍़यादा
अबरार अहमद 

तेरे क़रीब आ के बड़ी उलझनों में हूं

तेरे क़रीब आ के बड़ी उलझनों में हूं
मैं दुश्मनों में हूं कि तिरे दोस्तों में हूं

मुझ से गुरेज़-पा है तो हर रास्ता बदल
मैं संग-ए-राह हूं तो सभी रास्तों में हूं

तू आ चुका है सत्ह पे कब से ख़बर नहीं
बेदर्द मैं अभी उन्हीं गहराइयों में हूं

ऐ यार-ए-ख़ुश-दयार तुझे क्या ख़बर कि मैं
कब से उदासियों के घने जंगलों में हूं

तू लूट कर भी अहल-ए-तमन्ना को ख़ुश नहीं
याँ लुट के भी वफ़ा के इन्ही क़ाफ़िलों में हू

बदला न मेरे बाद भी मौज़ू-ए-गुफ़्तुगू
मैं जा चुका हूं फिर भी तिरी महफ़िलों में हूं

मुझ से बिछड़ के तू भी तो रोएगा उम्र भर
ये सोच ले कि मैं भी तिरी ख़्वाहिशों में हूं

तू हंस रहा है मुझ पे मिरा हाल देख कर
और फिर भी मैं शरीक तिरे क़हक़हों में हूं

ख़ुद ही मिसाल-ए-लाला-ए-सेहरा लहू लहू
और ख़ुद 'फ़राज़' अपने तमाशाइयों में हूं

कुछ ख़्वाब मिरे ऐन-जवानी में मरे हैं

बहती हुई आंखों की रवानी में मरे हैं
कुछ ख़्वाब मिरे ऐन-जवानी में मरे हैं

रोता हूं मैं उन लफ़्ज़ों की क़ब्रों पे कई बार
जो लफ़्ज़ मिरी शोला-बयानी में मरे हैं

कुछ तुझ से ये दूरी भी मुझे मार गई है
कुछ जज़्बे मिरे नक़्ल-ए-मकानी में मरे हैं

क़ब्रों में नहीं हम को किताबों में उतारो
हम लोग मोहब्बत की कहानी में मरे हैं

इस इश्क़ ने आख़िर हमें बरबाद किया है
हम लोग इसी खौलते पानी में मरे हैं

कुछ हद से ज़ियादा था हमें शौक़-ए-मोहब्बत
और हम ही मोहब्बत की गिरानी में मरे हैं

ज़रा सा क़तरा कहीं आज अगर उभरता है

ज़रा सा क़तरा कहीं आज अगर उभरता है
समुंदरों ही के लहजे में बात करता है

खुली छतों के दिए कब के बुझ गए होते
कोई तो है जो हवाओं के पर कतरता है

शराफ़तों की यहां कोई अहमियत ही नहीं
किसी का कुछ न बिगाड़ो तो कौन डरता है

ये देखना है कि सहरा भी है समुंदर भी
वो मेरी तिश्ना-लबी किस के नाम करता है

तुम आ गए हो तो कुछ चांदनी सी बातें हों
ज़मीं पे चांद कहां रोज़ रोज़ उतरता है

ज़मीं की कैसी वकालत हो फिर नहीं चलती
जब आसमां से कोई फ़ैसला उतरता है

Saturday, January 2, 2021

खुदा करे कि नया साल सब को रास आए !

तू नया है तो दिखा सुब्ह नई शाम नई 
वर्ना इन आँखों ने देखे हैं नए साल कई 
~ फ़ैज़ लुधियानवी

कौन सी बात नई ऐ दिल-ए-नाकाम हुई
शाम से सुब्ह हुई सुब्ह से फिर शाम हुई

शाद अज़ीमाबादी

नई सुब्ह पर नज़र है मगर आह ये भी डर है
ये सहर भी रफ़्ता रफ़्ता कहीं शाम तक न पहुँचे

शकील बदायुनी

ना कोई रंज का लम्हा किसी के पास आए
खुदा करे कि नया साल सब को रास आए ! 

#अज्ञात