Tuesday, April 9, 2024

कम्बख़त वो आंसू भी छुपाने नहीं देता

लड़ना है गर तो ढूंढ बराबर का आदमी

तू क्यों खड़ा है रोक के रस्ता फ़क़ीर का

वो जिस अंदाज़ से आती है चिड़िया मेरे आंगन में
अगर आना मेरे घर में तो उस अंदाज़ से आना

लेता है तलाशी मेरी आँखों की हमेशा
कम्बख़त,वो आंसू भी छुपाने नहीं देता

बस्ती के सारे लोग तो मौजूद हैं मगर
खिड़की से मुझको देखनेवाला चला गया

बैठा है हाथ जोड़े आँखों में एक आंसू
देखा नहीं है मैंने पूजा में यूं किसी को

ज्ञानप्रकाश विवेक

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