Tuesday, April 16, 2024

ज़िंदगी ये तो नहीं तुझ को सँवारा ही न हो

ज़िंदगी ये तो नहीं तुझ को सँवारा ही न हो 

कुछ न कुछ हम ने तिरा क़र्ज़ उतारा ही न हो 

दिल को छू जाती है यूँ रात की आवाज़ कभी 
चौंक उठता हूँ कहीं तू ने पुकारा ही न हो 

कभी पलकों पे चमकती है जो अश्कों की लकीर 
सोचता हूँ तिरे आँचल का किनारा ही न हो 

ज़िंदगी एक ख़लिश दे के न रह जा मुझ को 
दर्द वो दे जो किसी तरह गवारा ही न हो 

शर्म आती है कि उस शहर में हम हैं कि जहाँ 
न मिले भीक तो लाखों का गुज़ारा ही न हो 

Jaan Nisar Akhtar

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