Thursday, April 25, 2024

कितने चुप-चाप से लगते हैं शजर शाम के बा'द

तू ने देखा है कभी एक नज़र शाम के बा'द 

कितने चुप-चाप से लगते हैं शजर शाम के बा'द 

इतने चुप-चाप कि रस्ते भी रहेंगे ला-इल्म 
छोड़ जाएँगे किसी रोज़ नगर शाम के बा'द 

मैं ने ऐसे ही गुनह तेरी जुदाई में किए 
जैसे तूफ़ाँ में कोई छोड़ दे घर शाम के बा'द 

शाम से पहले वो मस्त अपनी उड़ानों में रहा 
जिस के हाथों में थे टूटे हुए पर शाम के बा'द 

रात बीती तो गिने आबले और फिर सोचा 
कौन था बाइस-ए-आग़ाज़-ए-सफ़र शाम के बा'द 

तू है सूरज तुझे मा'लूम कहाँ रात का दुख 
तू किसी रोज़ मिरे घर में उतर शाम के बा'द 

लौट आए न किसी रोज़ वो आवारा-मिज़ाज 
खोल रखते हैं इसी आस पे दर शाम के बा'द 

फ़रहत शाह

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