ढूंढे किसे इधर-उधर
न कोई ठोर न ठिकाना
न ही पता शहर
न जाने कब और कैसे
होगी इसकी सहर
मुखौटे ओढ़ कई
लोग आते हैं जाते हैं
कभी रुक जाते हैं
तो कभी आगे को बढ़ जाते हैं
मुंह तकते रहे जाता है
ये 'बंजारा
लोग आजमाकर इनसे
आगे को बढ़ जाते हैं..
आशु तो कुछ भी नहीं आसूँ के सिवा, जाने क्यों लोग इसे पलकों पे बैठा लेते हैं।
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