आज फिर गर्दिश-ए-तक़दीर पे रोना आया
दिल की बिगड़ी हुई तस्वीर पे रोना आया
इश्क़ की क़ैद में अब तक तो उमीदों पे जिए
मिट गई आस तो ज़ंजीर पे रोना आया
क्या हसीं ख़्वाब मुहब्बत ने दिखाया था हमें
खुल गई आंख तो ताबीर पे रोना आया
पहले क़ासिद की नज़र देख के दिल सहम गया
फिर तेरी सुर्ख़ी-ए-तहरीर पे रोना आया
दिल गंवा कर भी मुहब्बत के मज़े मिल न सके
अपनी खोई हुई तक़दीर पे रोना आया
कितने मसरूर थे जीने की दुआओं पे 'शकील'
जब मिले रंज तो तासीर पे रोना आया
जैसे अब आई हंसी मुझे...
अब तो ख़ुशी का ग़म है न ग़म की ख़ुशी मुझे
बे-हिस बना चुकी है बहुत ज़िंदगी मुझे
वो वक़्त भी ख़ुदा न दिखाए कभी मुझे
उन की नदामतों पे हो शर्मिंदगी मुझे
रोने पे अपने उन को भी अफ़्सुर्दा देख कर
यूं बन रहा हूं जैसे अब आई हंसी मुझे
यूं दीजिए फ़रेब-ए-मुहब्बत कि उम्र भर
मैं ज़िंदगी को याद करूं ज़िंदगी मुझे
रखना है तिश्ना-काम तो साक़ी बस इक नज़र
सैराब कर न दे मेरी तिश्ना-लबी मुझे
पाया है सब ने दिल मगर इस दिल के बावजूद
इक शय मिली है दिल में खटकती हुई मुझे
राज़ी हों या ख़फ़ा हों वह जो कुछ भी हों 'शकील'
हर हाल में क़ुबूल है उन की ख़ुशी मुझे
मगर बात नहीं होती है...
कैसे कह दूं कि मुलाक़ात नहीं होती है
रोज़ मिलते हैं मगर बात नहीं होती है
आप लिल्लाह न देखा करें आईना कभी
दिल का आ जाना बड़ी बात नहीं होती है
छुप के रोता हूं तेरी याद में दुनिया भर से
कब मेरी आंख से बरसात नहीं होती है
हाल-ए-दिल पूछने वाले तेरी दुनिया में कभी
दिन तो होता है मगर रात नहीं होती है
जब भी मिलते हैं तो कहते हैं कि कैसे हो 'शकील'
इस से आगे तो कोई बात नहीं होती है
मेरी ज़िंदगी बदल कर...
ग़म-ए-इश्क़ रह गया है ग़म-ए-जुस्तुजू में ढल कर
वह नज़र से छुप गए हैं मेरी ज़िंदगी बदल कर
तेरी गुफ़्तुगू को नासेह दिल-ए-ग़म-ज़दा से जल कर
अभी तक तो सुन रहा था मगर अब संभल संभल कर
न मिला सुराग़-ए-मंज़िल कभी उम्र भर किसी को
नज़र आ गई है मंज़िल कभी दो क़दम ही चल कर
ग़म-ए-उम्र-ए-मुख़्तसर से अभी बे-ख़बर हैं कलियां
न चमन में फेंक देना किसी फूल को मसल कर
हैं किसी के मुंतज़िर हम मगर ऐ उमीद-ए-मुबहम
कहीं वक़्त रह न जाए यूं ही करवटें बदल कर
मेरे दिल को रास आया न जुमूद-ओ-ग़ैर-फ़ानी
मिली राह-ए-ज़िंदगानी मुझे ख़ार से निकल कर
मेरी तेज़-गामियों से नहीं बर्क़ को भी निस्बत
कहीं खो न जाए दुनिया मिरे साथ साथ चल कर
कभी यक-ब-यक तवज्जो कभी दफ़अतन तग़ाफ़ुल
मुझे आज़मा रहा है कोई रुख़ बदल बदल कर
हैं 'शकील' ज़िंदगी में ये जो वुसअतें नुमायां
इन्हीं वुसअतों से पैदा कोई आलम-ए-ग़ज़ल कर
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