जब से मेरे बाग़ में अंगूर के दाने लगे,
मुझ को दुनिया में ही जन्नत के मज़े आने लगे!
मय-कशों ने ही नहीं ढूँढा मेरे घर का पता,
न पीने वाले भी मुझे अब याद फ़रमाने लगे!
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आशु तो कुछ भी नहीं आसूँ के सिवा, जाने क्यों लोग इसे पलकों पे बैठा लेते हैं।
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