आशु तो कुछ भी नहीं आसूँ के सिवा, जाने क्यों लोग इसे पलकों पे बैठा लेते हैं।
दीदार की ‘तलब’ हो तो नज़रे जमाये रखना ‘ग़ालिब’; क्युकी, ‘नकाब’ हो या ‘नसीब’… सरकता जरुर है।
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