आशु तो कुछ भी नहीं आसूँ के सिवा, जाने क्यों लोग इसे पलकों पे बैठा लेते हैं।
ये ज़ुल्फ़-बर-दोश कौन आया ये किस की आहट से गुल खिले हैं,
महक रही है फ़ज़ा-ए-हस्ती तमाम आलम बहार सा है.
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