जब जी चाहा मसला कुचला जब जी चाहा धुत्कार दिया
तुलती है कहीं दीनारों में बिकती है कहीं बाज़ारों में
नंगी नचवाई जाती है अय्याशों के दरबारों में
ये वो बे-इज़्ज़त चीज़ है जो बट जाती है इज़्ज़त-दारों में
औरत ने जनम दिया मर्दों को मर्दों ने उसे बाज़ार दिया
उठ मेरी जान मेरे साथ ही चलना है तुझे,
क़द्र अब तक तेरी तारीख़ ने जानी ही नहीं,
तुझमें शोले भी हैं बस अश्क़ फिशानी ही नहीं,
तू हक़ीकत भी है दिलचस्प कहानी ही नहीं,
तेरी हस्ती भी है इक चीज़ जवानी ही नहीं,
अपनी तारीख़ का उन्वान बदलना है तुझे,
उठ मेरी जान मेरे साथ ही चलना है तुझे
तेरे माथे पे ये आंचल तो बहुत ही ख़ूब है लेकिन
तू इस आंचल से इक परचम बना लेती तो अच्छा था
लड़कियां मांओं जैसा मुकद्दर क्यों रखती है
तन सहरा और आंख समंदर क्यों रखती हैं
औरतें अपने दुख की विरासत किसको देंगी
संदूकों में बंद यह ज़ेवर क्यों रखती हैं
वह जो आप ही पूजी जाने के लायक़ थीं
चम्पा सी पोरों में पत्थर क्यों रखती हैं
वह जो रही हैं ख़ाली पेट और नंगे पांव
बचा बचा कर सर की चादर क्यों रखती हैं
बंद हवेली में जो सान्हें हो जाते हैं
उनकी ख़बर दीवारें अकसर क्यों रखती हैं
सुबह ए विसाल किरनें हम से पूछ रही हैं
रातें अपने हाथ में ख़ंजर क्यों रखती हैं
वो जिस ने अश्कों से हार नहीं मानी
किस ख़ामोशी से दरिया में डूब गई
शहर बहरा है लोग पत्थर हैं
अब के किस तौर इंक़लाब उतरे
कूल्हों में भंवर जो हैं तो क्या है
सर में भी है जुस्तुजू का जौहर
था पारा-ए-दिल भी ज़ेर-ए-पिस्तां
लेकिन मिरा मोल है जो इन पर
घबरा के न यूं गुरेज पा हो
पैमाइश मेरी खत्म हो जब
अपना भी कोई उज़्व नपो
कव्वे भी अंडे खाने के शौक़ को अपने
फ़ाख़्ता के घर जा कर पूरा करते हैं
लेकिन ये वो सांप हैं जो कि
अपने बच्चे ख़ुद ही चट कर जाते हैं
कभी कभी मैं सोचती हूं कि
सांपों की ये ख़सलत
मालिक-ए-जिंन-ओ-इन्स की, इंसानों के हक़ में
कैसी बे-पायां रहमत है!
गए बरस कि ईद का दिन क्या अच्छा था
चाँद को देख के उस का चेहरा देखा था
फ़ज़ा में ‘कीट्स’ के लहजे की नरमाहट थी
मौसम अपने रंग में ‘फ़ैज़’ का मिस्रा था
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